Sunday, August 16, 2009

इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था -भाग ३ (अन्तिम भाग)

"...This hasty survey of historical development of caste sufficiently disposes of the popular theory that caste is permanent institution, transmitted unchanged from dawn of Hindu history and myth"
विलियम क्रूक, "दा ट्राइब्स एंड कॉस्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविन्सस एंड अवध - प्रथम अध्याय।

पिछली चर्चा में हमने भारतीय मध्यम वर्ग के उदय एवं विदेशी यात्रियों के यात्रा -वृतांतों और शिलालेखों के आधार पर पाया कि वर्ण-व्यवस्था श्रम प्रबंधन के लिए एक सामाजिक-व्यवस्था का सामान्य विस्तार था । उसमे सभी को अपनी कार्य कुशलता के आधार पर उत्कर्ष के अवसर प्राप्त थे। कई शूद्र वंश के शासकों और अन्य अज्ञात कुलीय क्षत्रियों (जैसे चन्द्रगुप्त) के उत्थान से भी इस कथन की पुष्टि होती हैं।

इतिहास के पन्नों में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो कि अ-क्षत्रीय शासको का भी वर्णन करते हैं जैसे कि सिंध के ब्राह्मण वंश के अन्तिम हिंदू शासक या वर्त्तमान काशी नरेश भूमिहार ब्राह्मणों से सम्बन्ध रखते हैं। भूमिहार ब्राह्मणों के अतिरिक्त सुंग साम्राज्य, हिन्दू-शाही , त्यागी-ब्राह्मण और कोंकणास्थ-ब्राह्मण अन्य अ-क्षत्रीय -राजवंशों के उदाहरण हैं जिन्होंने कालांतर में क्षत्रिय रूप पा लिया था। यह परिवर्तन की परम्परा आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक चला आया हैं। विलियम क्रूक ने ब्रिटिश शासन-काल में ही मिर्जापुर में सिंगरौली के राजा के खारवार जाति से को वनवासी क्षत्रिय के रूप में परिवर्तन का जिक्र किया हैं। इसी प्रकार ब्रिटिश कर्नल स्लीमन ने अपने यात्रा संस्मरण "जर्नी थ्रू अवध (Journey through Oudh)" में भी एक पासी समुदाय के व्यक्ति द्वारा अपनी पुत्री के पुअर जाति में विवाह के बाद क्षत्रिय वंशी हो जाने की जानकारी दी हैं। विलियम क्रूक ने अवध में ही अन्य वर्ण परिवर्तन के विषय में भी वर्णन किया हैं । इन घटनाओ मे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सभी वर्णों में अन्य अवैदिक समुदायों और जनजातियों से आगमन होता रहा हैं। (पिछली चर्चा में हम जन-मान्यताओं में ब्राह्मण शासक के शूद्र परिवर्तन देख चुके हैं - ह्वेन त्सांग यात्रा के दौरान सिंध नरेश)। अवध की ही कुछ प्रमुख वर्ण परिवर्तन की घटनाओं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य -
  1. चंद्रवंशी और नागवंशी शासको में बघेल, अह्बन आदि समुदाय में अन्य शासक जातियाँ स्वीकृत हुई।
  2. क्षत्रिय राजाओं में वंश-परम्परा की समाप्ति के भय पर दासी पुत्र अथवा अन्य अन्य जातियों से दत्तक पुत्र लेने की परम्परा रही हैं। (जोकि वर्ण के जन-स्वीकृत परिवर्तनीय रूप को ही दर्शाता हैं। जन्म से वंश में होना अनिवार्यता नहीं थी। )
  3. असोथर के राजा भगवंत राय द्वारा लगभग ढाई शताब्दियों पहले लुनिया समुदाय (नमक व्यवसायी) के एक व्यक्ति को मिश्रा ब्राह्मण बनाना।
  4. इसी प्रकार प्रतापगढ़ के तत्कालीन नरेश राजा मानिकचंद द्वारा सवा-लाख ब्राह्मणों की आवश्यकता के लिए कुंडा ब्राह्मणों का निर्माण।
  5. इस तरह के प्रकरण तिर्गुनैत ब्राह्मण, अंतर के पाठकों, हरदोई के पाण्डेय प्रवर, गोरखपुर और बस्ती के सवालाखिया ब्राह्मण के सम्बन्ध में भी मिलते हैं।
  6. इसी प्रकार वैश्य समुदाय में भी कई जातियों के मिलने का उल्ल्लेख किया हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ऐतिहासिक तौर पर भी वर्ण-व्यवस्था की दीवारें उतनी अभेद्य नहीं हैं। पुरातन काल से ही वर्ण की परिभाषा और उसकी परिधि का विस्तार समय की मांग के अनुसार बदलता रहा हैं। संभवतः यही वर्ण-व्यवस्था का वह रूप हैं जिसने इस प्रथा को युगों-युगों तक जीवित रखा हैं। सभी वर्गों के उत्थान की भावना और उन्हें अंगीकार करके उन्हें समान अवसर प्रदान करने के अपने इस स्वरुप के कारण ही यह काल के अनुसार स्वयं को ढाल पाई। अन्य प्रारंभिक सभ्यताएँ कर्म की आवश्यकता से शुरू अवश्य हुई थी किंतु भारतीय वर्ण-व्यवस्था की तरह सभी को समान अवसर न प्रदान कर पाने की वजह से उनका ह्रास हो गया (पुरोहितों और सम्राटों की प्रजा शोषण की नितियां और अन्य समुदायों को आत्मसात न कर पाना एक बड़ा कारक रहा)। अपने कर्म-बोधक स्वरुप के कारण ही यह व्यवस्था न केवल स्वयं को जीवित रख पाई बल्कि इसमें अन्य जनजातियों को कर्म के आधार पर सम्मलित होने देने से इसका विस्तार और विकास भी हुआ। जे सी नेसफिल्ड ने अपनी पुस्तक "ब्रीफ वियूस ऑफ़ दा कास्ट सिस्टम ऑफ़ दा नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध" में भी इस विषय पर विचार रखते हुए कहा हैं कि "जनजातीय कबीलों और परिवारों को जिस भावना ने जाति के रूप में बांधे रखा वह पंथ-सम्प्रदाय की भावना या सगोत्रीय (पारिवारिक) भावना से अधिक कर्मगत समानता ही थी। कर्मात्मक केवल कर्मात्मक समानता ही जाति व्यवस्था के निर्माण की अवधारणा थी। " यह बात अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं से भी सिद्ध होती हैं जैसे महर्षि वेदव्यास और विचित्रवीर्य व चित्रांगद के भ्राता होते हुए भी ब्राह्मण और क्षत्रिय रूप; इसी प्रकार गोरखनाथ मठ के क्षत्रिय उत्तराधिकारी को संत रूप नें मानना आदि।

इस सम्बन्ध में सबसे सहज प्रश्न जो आता हैं कि वर्त्तमान में जगह-जगह दलित शोषण का जो विकृत रूप देखने को मिलता हैं; उसके कारण क्या हैं? मैक्स मूलर के विचार इस बारे में महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रदान करते हैं - उसके अनुसार बौध और जैन धर्म के कारण हुए ह्रास के बाद जब वैदिक धर्म का पुनर्जागरण हुआ तब हिंदू वैदिक (ब्राह्मण वादी व्यवस्था) ने कठोरता से अपने मत का अनुपालन करना शुरू किया। मेरे विचार से यह व्यवस्था और कट्टर अन्य गैर-भारतीय धर्मों के प्रभाव और उससे बचाव के कारण भी हुई होगी। हम मनु-स्मृति सम्बंधित अपनी चर्चा में भी इसी प्रकार के विचार पातें हैं - जब बौध धर्म के बढ़ते प्रभाव के कारण मनु-स्मृति के कई अंशो का विस्तार हुआ और साथ ही उनमे कई दंडात्मक नियमो का सृजन हुआ। इसी प्रभाव से कुछ स्थानों पर संभवतः आधुनिक दौर में वर्ण-व्यवस्था ने शोषणात्मक और क्रूर रूप ले लिया हो। किंतु सम्पूर्ण आर्यावर्त पर एक नज़र डालने पर और उसके सामाजिक ढांचे के तर्तिक मूल्यांकन से हमे यह व्यवस्था सर्व कल्याण -सर्व-उत्थान की अधिक प्रतीत होती हैं। हमारी जीवन-शैली, धार्मिक संस्कृति, वैचारिक प्रबुद्धता, सामाजिक दर्शन और वर्षो के निरंतर चले आ रहे रीति-रिवाजों का ताना-बाना हमारी वर्ण-व्यवस्था के इर्द-गिर्द ही बुना हैं और इनमे से कोई भी लेस मात्र भी मानवीय भेदभाव अथवा शोषण की अनुमति नहीं देता है । श्रीमद् भागवत में कहा हैं 'आद्योऽवतार: पुरूष: परस्य' अर्थात् यह संसार भगवान का पहला अवतार हैं । इस सम्पूर्ण जगत -मित्र या शत्रु , जड़ या चेतन, सभी को अपने प्रभु का अंश मानने वाला समुदाय "वसुधैव कुटुंबकम्" और "सर्वेभवन्तु सुखिनः" की भावना के अलावा मानव जाति के लिए कोई और भावः रख ही नहीं सकता।


सहर्ष,
सुधीर

Saturday, August 8, 2009

इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था -भाग २

न वर्णा न वर्णाश्रमाचारधर्मा न मे धारणाध्यानयोगादयोपि।
अनात्माश्रयाहंममाध्यासहानात्‌ तदेकोऽवशिष्ट: शिवः केवलोऽहम्‌॥

जगतगुरु आदि शंकराचार्य द्वारा रचित "दशाश्लोकी" के यह श्लोक
७वी शताब्दी में वर्ण-व्यवस्था की धार्मिक मीमांसा और दर्शन में नगण्यता को दिखता है।

पिछली चर्चा (देखें) में हमने विश्व की सभी पुरातन सभ्यताओं के विकास क्रम में सहज रूप से कर्माधारित सामाजिक वर्गों या वर्णों का निर्माण होना पाया। आज भी विश्व की विभिन्न क्षेत्रो में इस प्रकार के सामाजिक वर्ग देखने को मिल जातें हैं - चाहे वह मेसो अमेरिकन क्षेत्रों में पाया जाने वाला वर्गीकरण हो (पेनिनसुलर, क्रिओल्लो , कास्तिजो , मेस्तिजो , चोलो , मूलतो, इन्डियो , जंबो मराकुचो इत्यादि) या अफ्रीकी महाद्वीप में पाई जाने वाली मंडे , जोनोव , वोलोफ, बोरना और उबुहके जातियाँ ; या हवाई की कहुना, अली'इ, मकाsइनना और कौवा जातियाँ; या इसी प्रकार जापान, चीन, या कोरिया के सामाजिक वर्ग...हर सामाजिक व्यवस्था में इन श्रम आधारित वर्गों का कोई न कोई रूप देखने को मिल ही जाता हैं। साथ ही इन सभी भौगालिक रूप से फ़ैली हुई सभ्यताओं का प्रथम दृष्टया अध्धयन सामान स्वरूप के वही तीन-चार वर्गों को दर्शाता हैं। ऐसे में भारतीय वर्ण-व्यवस्था को धार्मिक (वैदिक अथवा हिंदू) आधार पर स्वीकार करना अनुचित होगा। वस्तुतः यह वयवस्था सामाजिक विकास क्रम की ही स्वाभाविक परिणति हैं।

भारतीय संस्कृति में भी यह व्यवस्था श्रम-आधारित ही थी और इस प्रकार का वर्ग-विभाजन सामाजिक आवश्यकता के कारण ही उत्पन्न हुआ। इसे किसी भी रूप से धार्मिक और वैदिक नहीं माना जा सकता। इसी कारण भारतीय इस्लामिक और ईसाई पद्धतियों में भी जाति का स्वरुप बना रहा । (इसी कारण आज भी दलित ईसाई, मुस्लिम और सिखों की राजनीति भी हिंदू दलितों की तरह अपने परवान पर हैं।) इस विषय पर दक्षिण भारतीय विद्वान "के श्रीनिवासुलु" के विचार भी महत्वपूर्ण हैं - वे वर्ण व्यवस्था का आधार सिद्धान्तिक रूप से सामाजिक मानते हैं न की धार्मिक। "यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया , बर्कली " के "जोर्ज एल हार्ट" द्वारा किए तमिल संगम साहित्य और १००-७०० ईस्वी के बीच रचित अन्य दक्षिण भारतीय सहित्य अध्ययन के अनुसार भी वर्ण व्यवस्था वैदिक नहीं मानी जा सकती। अवैदिक समाज में भी एक प्रकार के वर्ग-विभाजन और पुजारी प्रधान समाज के रूप मिलते हैं (जोर्ज हार्ट के लेख "दक्षिण भारत में जाति के प्रारंभिक साक्ष्य" (Early Evidence for Caste in South India ) के अनुसार)। इस सम्बन्ध में विलियम क्रूक के सम्पूर्ण अवध (और मूल रूप से सारे भारतीय ) के वर्णों के बीच मानवीय संरचना के अध्ययन से (अन्थ्रोपोमेट्री स्टडी - anthropometry study) से निकला गया यह निष्कर्ष कि सभी भारतीय वर्ण एक ही मानव-प्रजाति के संतति हैं और उनमे कोई विजित और पराजित जातियों का मेल नहीं मिलता हैं - यह सिद्ध करता हैं की उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूर्व से लेकर पश्चिम तक वर्ण व्यवस्था का विकास सहज रूप से भारतीय उपमहादीप में हुआ। यहाँ पनपते समाज ने अपनी श्रम की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वर्ण-व्यवस्था का विकास किया। (शूद्र समाज कोई आर्यों से पराजित जाति नहीं हैं।)

भारतीय समाज में कालांतर में उत्त्पन्न हुए मध्यम वर्ग (जैसेकि कायस्त ) भी वर्ण व्यवस्था के कर्मगत रूप को उजागर करता हैं। सामाजिक विकास के साथ जब कृषि और पशु-पालन जैसे प्राथमिक व्यवसायों को छोड़ कर शिल्प, कला और निर्माण जैसे व्यवसायों के विकास हुआ उनके साथ ही वाणिज्य, कर, राजस्व जैसे जटिल प्रक्रियाओं का भी उदय हुआ। इन जटिल सामाजिक विकास क्रम में समाज को एक नए मध्यम वर्ग की आवश्यकता हुई तो लेखाकारों, मुनिमो, महाजनों, धनिकों के नए समुदायों का जन्म हुआ। यह समुदाय चार वर्णों की परिभाषा पर पूर्ण रूपेण खरे नहीं उतरते किंतु यह समाज की आवश्यकता ही थी जिसने इन वर्गों को भी न केवल धार्मिक मान्यता ही दी किंतु साथ ही उन्हें उनके गुणों के आधार पर संकर वर्णों में भी जगह दी। उदाहरणार्थ - कायस्थों को ब्राह्मण और क्षत्रिय का मिला जुला रूप माना गया हैं नाकि मनु-स्मृति के अनुसार उन्हें सूत माना गया । ( स्पष्ट करना चहुँगा कि प्रचलित किम्वदंती के अनुसार - चित्रगुप्त के ब्रह्मा जी के काया से उत्पन्न होने वाले १७ वे पुत्र के नाते कई जगह कायस्थों को ब्राह्मण का ही रूप माना जाता हैं किंतु इस चर्चा में हम मानव इतिहास के आधार पर इस व्यवस्था को परख रहें हैं)।

भारतीय इतिहास के रूप को समझने के लिए प्राचीन काल के विदेशी यात्रियों के विवरण से उपयुक्त स्रोत क्या होगा। विदेशी पर्यटक बिना किसी सामाजिक प्रभाव के एक निष्पक्ष टिपण्णी प्रदान करते हैं। ३०६-२९८ ईसा पुर्व में मेगस्थनीज मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्यूकस का राजदूत बनकर रहा था। उसने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में पाटलिपुत्र नगर की विस्तृत चर्चा की है। इसमे उसने चार वर्णों के स्थान पर सात वर्णों का उल्लेख किया हैं - दार्शनिक, कृषक, चरवाहे (पशु-पालक), शिल्पकार, योद्धा , निरीक्षक (अधिकारी) और मंत्री। इसके अतिरिक्त सम्राट तो प्रमुख होता ही था। इस प्रकार हम उस समाज में चार वर्णों का स्पष्ट रूप नहीं पाते हैं। जो इस बात को उजागर करता हैं कि या तो उस समय इन वर्णों का उदय नहीं हुआ था या फ़िर वे इतनी महत्ता नहीं रखते थे कि वे समाज में स्पष्ट रूप से दिखें। अन्य साक्ष्यों के आधार पर चाणक्य ब्राह्मण था यह बात सर्व-विदित हैं अतः प्रथम सिद्धांत कि उस काल में वर्ण व्यवस्था नहीं थी सत्य नहीं प्रतीत होती हैं। सो उस काल में वर्ण-व्यवस्था के बंधन और नियम उतने कठोरता से नहीं पालन किए जाते थे और उनका कोई भी महत्व नहीं था। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को साधारण सैनिक से सम्राट बनाया किंतु उस समय भी जाति आड़े नहीं आयी। यहाँ तक कि चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी जाति के विभाजान को कहीं भी आधार नहीं बनाया गया हैं।

३९८ ईसवीं में चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन में आने वाले चीनी यात्री फाह्यान ने नालन्दा, पटना, वैशाली आदि स्थानों का भ्रमण किया। उसने भी अपने यात्रा वृतांतों में वर्ण व्यवस्था अथवा जाति प्रथा या समाज के किसी वर्ग के शोषण का उल्लेख नहीं किया हैं। इसी प्रकार ७वीं सदी में (६७३-६९२ ई.) भारत आगमन पर आए चीनी यात्री इत्सिंग के भी यात्रा-वृतांतों में जाति का उल्लेख नहीं मिलता।

हर्षवर्धन के शासनकाल (६४१ ई.) में भारत आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (ह्वेनसांग) ने अपने यात्रा-वृतान्त सी-यू-की में सिन्ध प्रदेश में शूद्र शासक क वर्णन किया हैं। अन्य साक्ष्यों के आधार पर उस समय सिंध में अन्तिम हिंदू शासक राजा दाहिर का शासन था -वे ब्राह्मण वंशज थे (और संभवतः अपनी सौतेली बहन से विवाह के कारण शूद्र माने जाने लगे हों।) । यह तो स्पष्ट नहीं हैं कि ह्वेन त्सांग ने उस शासन को शूद्र की उपाधि क्यों दी किंतु इस वर्णन से यह तो सिद्ध होता ही हैं कि राजकीय कार्य क्षत्रियों तक ही सिमित नहीं थे। उन्हें ब्राह्मण या शूद्र कोई भी कर सकता था।

आंध्र-प्रदेश के शूद्र वंशीय शासकों ने तो स्वयं अपनी शूद्रता पर गर्व करते हुए शिलालेख लगवाये (सिन्गामा-नायक, १३६८)। इनमें तीनो वर्णों से शूद्र वर्ण को शुद्धता के आधार पर श्रेष्ठ माना गया हैं। इसमें लिखा हैं कि जिस प्रकार प्रभु के चरणों से निकल कर गंगा पवित्र हैं वैसे ही ईश्वर के चरणों से उत्पन्न शूद्र भी पवित्र हैं। (के राम शास्त्री, एपिग्रफिया इंडिका संस्करण १३)। इसी प्रकार एक अन्य दक्षिण भारतीय शासक प्रोलाया भी शूद्र वंश में पैदा हुए थे। उन्होंने भी ईश्वर के चरणों से उत्पत्ति को भाग्यशाली मानते हुए कहा कि "पुंसः पुरानास्य पदादुदिर्नाम वर्णं यामाहु कलिकलावार्यम" (कुनाल)

इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल शास्त्रों के आधार पर बल्कि भारत के प्रारंभिक और मध्यकालीन इतिहास तक वर्ण व्यवस्था कोई भी जन्मगत आधार पर अवरोध नहीं उत्पन्न करती हैं। यह एक पूर्ण रूपेण सामाजिक व्यवस्था है जिसको धार्मिक ग्रंथों में कर्मगत आधार पर मान्यता तो मिली हैं किंतु उसके अनुपालन में कोई बाध्यता नहीं हैं। सभी वर्णों को सामान अवसर प्राप्त हैं। अपनी आगे की चर्चा में वर्ण व्यवस्था के परिवर्तनीय रूप को देखेंगे।

सादर,
सुधीर

Saturday, August 1, 2009

कर्ण और वर्ण व्यवस्था

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक,
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
-- रामधारी सिंह "दिनकर" (रश्मिरथी)


पिछली चर्चा "शास्त्रों के अनुसार वर्ण व्यवस्था - भाग ३ (अन्तिम भाग) " में वर्ण व्यवस्था के मानकों पर विदुर के सम्मान की वार्ता पर श्रधेय अनुराग शर्मा जी (स्मार्ट इंडियन) ने एक सहज प्रश्न किया था - कर्ण और वर्ण व्यवस्था पर उसकी उपेक्षा पर। कर्ण और भीष्म दोनों ही महाभारत के ऐसे पात्र हैं जिनकी पीड़ा और विवशता किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को द्रवित कर जाती हैं। भीष्म ने जहाँ अपना राजपाट, वंश परम्परा को पिता के लिए त्याग दिया और फ़िर उस निर्णय के कारण अपने वंश को नष्ट होते हुए देखा, अपनी इच्छा-मृत्यु के अभिशापित वर से जितना दुखी वे हुए होंगे उतना तो शायद हो कोई हुआ हो ।

इसी प्रकार कर्ण भी अपने जीवन में सैदव ही सत्य और निष्ठां के कसौटी पर कसा गया, प्रेम और ममत्व में छाला गया। कैसा लगता होगा जब आप के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण युद्घ से पहले आपकी माँ, जिसने आपको हमेशा के लिए त्याग दिया हो, आकर आपसे उन भाइयों की जीवन की भिक्षा मांगे जिन्होंने जीवन भर आपका विरोध किया हो। और साथ ही यह भी सम्भावना हो कि जिस युद्घ में आप उन्हें जीवन दान दे रहे हैं उसी में वो आपके प्राण हरने की घोर चेष्ठा करंगे । कैसा लगता होगा जब आपके द्वार पर स्वं इन्द्र आकर आपके शरीर का अंश कवच और कुंडल मांगे, कैसा लगता होगा जब जिस गुरु की निद्रा के लिए आप वृश्चिक-दंश सहें वो ही आपको शाप दे दे, अपनी मृत्यु वेदना भुला कर भी अपने दांतों का दान करना पड़े.....ऐसे मित्र-वत्सल, सत्य निष्ठ, महादानी और धनुरश्रेष्ठ महा पराक्रमी वीर से सहानभूति किसी को कैसे नहीं होगी।

वैसे तो विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद और कालांतर में पाण्डु की मृत्यु के बाद, कुरुवंश तो शुद्ध क्षत्रियों का रक्तविहीन हो गया था और उसे संकर वर्ण की ही संताने थी। उस काल में संकर वर्ण के इन प्रतिनिधियों का क्षत्रिय रूप में उभारना और मान्यता प्राप्त करना वर्ण व्यवस्था के कर्मगत स्वभाव को ही दर्शाता हैं। साथ ही महाराज शांतनु के मतस्यगंधा सत्यवती और गंगा (जिसके विषय में शांतनु को कुछ भी ज्ञात नहीं था) से विवाह से लेकर भीम और अर्जुन तक विवाह संबंधों में भी वर्ण व्यवस्था नगण्य प्रतीत होती हैं। ऐसे में उस काल में कर्ण की सूत-पुत्र के रूप में हुई तथाकथित उपेक्षा जातिगत कम और राजनैतिक अधिक प्रतीत होती हैं। कर्ण के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलु जिनमे उसकी जातिगत उपेक्षा प्रतीत होती हैं के विषय में मैं अपने विचार रख रहा हूँ...

कर्ण का जन्म के समय कुंती ने स्वाभाविक रूप से वहीं किया जो कोई भी अविवाहिता लड़की लोक-लाज के भय से करती। अपने कवच और कुंडल की वजह से संभवतः कुंती ने कर्ण को अपने प्रथम साक्षात्कार में ही पहचान लिया हो किंतु राज-माता होते हुए शायद वे अपनी गरिमा को खोना नहीं चाहती हो । वैसे भी कर्ण के लालन-पोषण में उसकी जातिगत उपेक्षा नहीं मिलती हैं। अधिरथ और राधा ने संभवतः कर्ण कभी उसके अज्ञात कुल-वंश की वजह से तिरस्कृत नहीं किया - मेरे ज्ञान में तो ऐसा कोई भी सन्दर्भ नहीं हैं। कर्ण के सूत-पुत्र होने का पहला स्मरण उसकी शिक्षा के साथ आता हैं - जब वह द्रोणाचार्य के पास शिक्षा पाने गया। और द्रोणाचार्य ने यह कहकर उसको मन कर दिया कि वे केवल राज-पुत्रों को शिक्षा दे सकते हैं। इस घटना में कहीं भी वर्ण-व्यवस्था के कारण उसे शिक्षा से वंचित नहीं किया गया। राजकीय सुरक्षा के कारण यह एक सोचा समझा कदम रहा होगा। द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वस्थामा के अतिरिक्त शायद किसी और को शिक्षा न प्रदान करने के लिए बाध्य थे। जबतक द्रोणाचार्य कुरु राजपुत्रों को शिक्षा देने में रत थे तबतक उनके आश्रम से किसी और महाबली को ज्ञान मिला हो इसका वर्णन भी नहीं मिलता हैं। वैसे भी द्रोणाचार्य द्रुपद से प्रतिशोध में इतने संलग्न थे कि वे कुरुकुमारों की शिक्षा जल्द से जल्द पूरी करके अपने अपमान का बदला लेना चाहते थे। ऐसे में कर्ण को विद्यार्थी के रूप में बीच में लेने से उनकी योजनाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता था। कर्ण के द्रोणाचार्य के पास जाकर विद्याथी के रूप में लेने के अनुरोध से ही यह सिद्ध होता हैं कि उस काल में कोई भी योग्य मनुष्य किसी भी गुरु से शिक्षा ले सकता था - सभी को ऐसे सामान अवसर प्राप्त थे और जाति व्यवस्था शिक्षा के क्षेत्र में मान्यता नहीं रखती रही होगी ।

कर्ण के जीवन में जाति का दूसरा प्रकरण तब आता हैं जब परशुराम ने उन्हें झूठी जाति बताने पर शापित किया था। इस घटना के विवेचन पर यहाँ भी कर्ण को निम्न जाति का होने से शाप नहीं मिला था। कर्ण ने परशुराम को जाकर अपनी जाति ब्राह्मण बताई। परशुराम का ब्राह्मण-प्रेम उस युग में भी सर्व-विदित था और कर्ण ने ऐसे में अपने को ब्राह्मण बता कर उनसे दीक्षा ली। यहाँ ये प्रश्न स्वाभाविक हैं कि कर्ण ने अपना अधिकांश शैशव क्षत्रिय के बीच ही बिताया था - ऐसे में उसने स्वं को क्षत्रिय (या वैश्य) क्यों नहीं बताया? परशुराम क्षत्रियों को भी शिक्षा देते थे जैसेकि भीष्म। ऐसे में कर्ण का असत्य अपना वर्ण छिपाने से अधिक अपनी स्वीकृति के अवसर बढ़ाने के अधिक प्रतीत होता हैं। पशुराम का शाप भी कर्ण को उसके झूठ के कारण मिला। परशुराम जब उसे उसके गुणों के आधार पर क्षत्रिय मान रहे थे तब भी कर्ण स्वं ब्राह्मण और तदुपरांत सूत पुत्र कह रहा था। ऐसे में परशुराम को कर्ण की अपने कुल की अनभिज्ञता छल अधिक प्रतीत हुई और उन्होंने कर्ण को शाप दे दिया। यहाँ ध्यान देने योग्य दो बातें हैं - प्रथम, परशुराम द्वारा गुणों के आधार पर जाति का निर्धारण और दूसरी परशुराम का क्षत्रिय विरोधी स्वभाव। जिस प्रकार परशुराम ने अनेको बार क्षत्रिय विरोधी अभियान चलाये उससे उन्हें संभवतः क्षत्रियों से विशेष सावधान रहना पड़ता हो -ऐसे में जब उन्होंने एक छदम-भेषी क्षत्रिय को अपने शिष्य के रूप में पाया तो उनका क्रोध और कठोर दंड स्वाभाविक ही था। परशुराम दंड देते समय भी कर्ण को क्षत्रिय ही मान रहे थे (न कि सूत-पुत्र ) क्योंकि उनका शाप कर्ण को युद्घ में आवश्यकता पड़ने पर विद्या भूल जाने का दंड था। अब यदि सूत-पुत्र के रूप में कर्ण को दंड मिलता तो उसके युद्धरत होने की सम्भावना अत्यन्त क्षीण थी। (उस समय तक तो कर्ण के लिए अंग-राज होने का स्वप्न भी दृष्टव्य नहीं था।) इस प्रकार यहाँ भी जाति व्यवस्था के स्थान पर गुरु-शिष्य व्यवस्था में विश्वास का हनन ही शाप का मूल कारण हैं।

एक अन्य घटना जिसने कर्ण को अंगाधिपति बना दिया भी कर्ण और वर्ण-व्यवस्था की चर्चा के लिए महत्वपूर्ण हैं। जब सारे कुरु-कुमार अपने युद्घ कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे ऐसे में कर्ण ने आकर अर्जुन को द्वंद के लिए ललकारा और कृपाचार्य ने कर्ण के राज-पुरूष न होने के कारण उसे अस्वीकार कर दिया। यहाँ भी कर्ण निम्न वर्ण के होने के वजह से अस्वीकृत नहीं हुए। इसी समय दुर्योधन द्वारा उन्हें अंग का राज दे दिया जाता हैं - सूत-पुत्र होना कर्ण के शासक बनने में आड़े नहीं आता हैं। पूरी सभा में उपस्थित कोई भी विद्वजन (यहाँ तक कि कृपाचार्य और द्रोणाचार्य भी) कर्ण के इस उत्कर्ष पर आपत्ति नहीं करते हैं। विदुर, धृतराष्ट्र, भीष्म या प्रजा कोई भी इस आशय में कोई आपत्ति नहीं रखते हैं। इससे यह तो सिद्ध होता ही हैं कि शासन का अधिकार जन्मगत या कुल/वंश आधारित तो नहीं था।

कर्ण के जीवन में जाति के आधार पर प्रथम और एकमात्र तिरस्कार द्रौपदी के स्वयंवर में मिलता हैं। किंतु इस प्रकरण का भी विश्लेषण इसे राजनैतिक अधिक और जातिगत कम ही उजागर करता हैं। कर्ण जब द्रौपदी के स्वयंवर में मत्स्य भेदन के लिए खड़े होते हैं तब श्री कृष्ण के इशारे पर द्रौपदी कर्ण को सूत-पुत्र कहकर विवाह से मना कर देती हैं। इस घटना के अनेक पहलु हैं किंतु इस बात का उज्जवल पक्ष हैं - उस समय में नारी की विवाह के सम्बन्ध में स्वतंत्रता । कर्ण अन्य शासकों के साथ वहां विवाह के लिए आमंत्रित थे अतः विवाह के लिए जाति सामाजिक रूप से कोई अवरोध नही प्रतीत होती हैं। अब प्रश्न अवश्य ही यह उठता हैं कि द्रौपदी ने विवाह के लिए मना क्यों किया (या कृष्ण ने उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित क्यों किया)। द्रुपद और द्रोणाचार्य की शत्रुता किसी से भी छिपी नहीं थी। साथ ही पांडवों द्वारा द्रुपद विजय के बाद कौरवों में गुरु के लिए कुछ करने के उत्कंठा अवश्य ही रही होगी। श्री कृष्ण तो कौरवों के अमर्यादित, उच्छृंखल और उदंड स्वभाव को जानते ही थे, ऐसे में, यदि द्रुपदी कौरवों या उनके किसी समर्थक के साथ विवाहित होती तो द्रौपदी के अहित की संभावना बनी रहती। कर्ण जो मित्रता के नाते अधर्म का न चाहते हुए भी समर्थन करता रहा (युयुत्सु सा सामर्थ्य सभी में नही होता), किस प्रकार पत्नी रूप में द्रौपदी का अहित रोक पता यह विषय विचारणीय हैं। दूसरी ओर पांडवों के सदैव ही नियंत्रित व्यवहार में ऐसी सम्भावानी क्षीण थी। इस घटना का दूसरा पक्ष यह भी रहा होगा द्रौपदी स्वयं भी इस शत्रुता के चलते कुरु वंश जिसने उनके पिता का अपमान किया हो में न जाना चाहती हों । अर्जुन ने जब द्रौपदी का वरण किया तब द्रौपदी को उनके कुरु वंशज होने का भेद नहीं पता था। वर्ण इतर घरानों में होने वाले कुरु विवाह (शांतनु से लेकर पांडवों तक) और स्वयंवर में कर्ण के निमंत्रण से इस प्रकरण में वर्णाधारित भेदभाव नगण्य प्रतीत होता हैं। द्रौपदी द्वारा कर्ण को मना करना एक सुरक्षात्मक निर्णय था जिसका क्रियान्वयन जाति व्यवस्था की ओट में हुआ परन्तु उस निर्णय में जाति गत विद्वेष नहीं था ।

युद्घ की घड़ी में कर्ण के जाति-गत विरोध के रूप में कुछ प्रबुद्ध जन भीष्म के उस निर्णय को भी लेते हैं जिसमे अपने नेतृत्व में कर्ण को लेने से मना कर दिया था। इस घटना को जाति-गत रूप से देखना भी अनुचित होगा। भीष्म कर्ण के गुरु-भाई भी थे और गुरु के दिए शाप को भी जानते थे संभवतः इसी कारण कर्ण को युद्घ में लाकर क्षति नहीं पहुँचाना चाहते थे। उनको स्वयं इच्छा मृत्यु का वर था और वे चाहते तो सारे पांडवों का विनाश भी कर सकते थे। किंतु वे ह्रदय से पांडवों की विजय चाहते थे। ऐसे में एक और पराक्रमी योद्धा को रण में लाने से पांडवों को भी हानि होती। दोनों ही परिस्थितियों में इस निर्णय को भी जाति-गत नहीं माना जा सकता।

कर्ण का चरित्र आदर्शों से भरा होकर भी अधर्म का मूक समर्थक रहा। और संभवतः यही उसके पतन का कारण भी बना । यश पाकर भी यशस्वी न हो सका। यह जानकर भी कि वह पांडवों और कौरवों में अग्रज होकर भी युद्घ को रोक सकता - मित्र के मान-सम्मान के लिए लड़ता अपनी मृत्यु-शय्या तक दान देता रहा। ऐसे व्यक्तित्व अपने आप में वर्ण वर्गीकरण से कहीं ऊंचा उठ जातें हैं। कर्ण के लिए गुलाल फ़िल्म से कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं -

जीत की हवस नहीं, किसी पर कोई वश नहीं
क्या जिंदगी है ठोकरों पे मार दो ,
मौत अंत है नही तो मौत से भी क्यों डरे?
यह जाके आसमान में दहाड़ दो ।

Saturday, July 25, 2009

इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था -भाग १

ब्राह्मण क्षत्रिय विशाम् शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:॥
(गीता १८/४१)
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र कर्म स्वभाव से ही
उत्पन्न गुणों के आधार पर ही विभाजित किए गए हैं।


अरविन्द शर्मा की "क्लास्सिकल हिंदू थोअट" में वर्ण व्यवस्था के सन्दर्भ में तीन मुख्य भ्रांतियां बताई गयी हैं -
१) वर्ण व्यवस्था को ऋग्वेद के पुरूष सूक्त ने अध्यात्मिक (दैवीय) मान्यता दी हैं।
२) वर्ण व्यवस्था ने हिंदू समाज को अभेद्य वर्गों में विभाजित कर दिया हैं।
३) हिन्दू समाज में सभी वर्गों की सामान उत्त्पति नहीं नहीं माने जाती हैं ।
यह भ्रांतिया सम्पूर्ण व्यवस्था को समझे बिना और शास्त्रों को उनके शाब्दिक आधार पर लेने से हैं। हमने पिछली चर्चाओंमें पाया था की शास्त्र-सम्मत आधार पर भी ये तीनो बातें आधारहीन प्रतीत होती हैं। ऋग्वेद जहाँ इस व्यवस्था को कर्मगत बताते हैं वहीं एक वर्ण के दुसरे के साथ सम्बन्ध और परिवर्तन भी सामान्य था। और जहाँ तक तीसरी भ्रान्ति का सम्बन्ध हैं वो भी यदि सभी वर्गों को मनु-पुत्र माने या पुरूषसूक्त के आधार पर इस समाज की संतान दोनों ही रूपों में वे सामान सामाजिक-उत्त्पति वाले प्रतीत होते हैं (हाँ पश्चिमी मान्यताओं के आधार पर वे आदम और इव की संतान नहीं हैं)। शास्त्र के आधार पर हम तथ्यपूर्ण रूप से पाते हैं कि वर्ण-व्यवस्था का वास्तविक रूप तो कर्मगत ही हैं। वेदों से लेकर रामायण और गीता तक, उपनिषद और ब्राह्मण व्याख्या से लेकर पौराणिक कथाओं तक प्रथम दृष्टया वर्ण-व्यवस्था कर्मणा ही मान्य हैं। गीता में स्वं श्री कृष्ण भी कहते हैं - "चातुर्वंर्यम् मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः"(गीता ४-१२) अर्थात् चारों वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा कर्म गुण के आधार पर विभागपूर्वक रचित हैं (वर्गीकृत हैं)।


इसी प्रकार इतिहास के पृष्ठ पलटने पर भी वर्ण-व्यवस्था का कर्मगत रूप ही उजागर होता हैं किंतु कालांतर में एक पीढी द्वारा दूसरी पीढी को अपने व्यवसाय के गुण पैत्रिक धरोहर के रूप में विरासत में देने से संभवतः यह व्यवस्था जन्मणा मान्य हो गई हो ... आइये एक दृष्टि अपनी पुरातन व्यवस्था पर डालें और भारतीय समाज और वर्ण-व्यवस्था के उस विकास क्रम को समझने के प्रयास करें जिसने इतनी शताब्दियों तक इस समाज को जीवंत बनाये रखा ।

जैसाकि हम प्रारंभिक चर्चाओं के आधार पर जानते हैं कि वर्ण व्यवस्था का जन्म कर्मगत आधार पर समाज के श्रम विभाजन के कारण हुआ था। इस विभाजन के पीछे समाज के स्थायित्व और उसके सुचारू संचालन की कामना अवश्य ही थी। आर्यावर्त में वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त विश्व की अन्य सभ्यताओं,जैसे कि ईरान और मिस्र , में भी वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ । यह सभी व्यवस्थाएं कर्मगत ही थी। जान अवेस्ता (जोराष्ट्रियन धार्मिक ग्रन्थ) में प्रारंभिक ईरानी समाज को तीन श्रेणियों -शिकारियों, पशुपालकों और कृषकों, में बांटा गया हैं (विलियम क्रूक - दा ट्राइब एंड कास्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध)। यह सभी श्रेणियां कर्मगत हैं। कालांतर में जब ईरानी सामाजिक व्यवस्था उन्नत हुई तो चार वर्णों में विभक्त हुई। यह वर्ण थे - अथोर्नन (पुजारी), अर्थेश्तर (योद्धा), वास्तारिउश (व्यापारी) और हुतुख्श (सेवक)। कर्मगत आधार पर पनपे इन चारों वर्णों की वैदिक भारत से समानता विस्मयकरी हैं। अन्य जोराष्ट्रियन ग्रन्थ डेनकार्ड (जो कालांतर में लिखा गया ) में चार वर्णों के जन्म का उल्लेख हैं भी आश्चर्यजनक रूप से वैदिक पुरुषसूक्त का अनुवाद ही प्रतीत होता हैं (पुस्तक ४ -ऋचा १०४ )। किंतु इससे यह अवश्य सिद्ध होता हैं कि स्वतंत्र रूप से विकसित हुए इन दो सभ्यताओं में सामाजिक संरचना का रूप अवश्य ही कर्मगत था। यह भी सम्भावना हैं कि सिन्धु घटी सभ्यता काल में ही इस प्रकार की व्यवस्था का जन्म हुआ हो और वो अपने सहज रूप के कारण ईरान में भी अपनाई गयी हो। आर्यों के भारत आगमन के सिद्धांत में विश्वास करने वाले यदि ये तर्क रखते हैं कि ऐसा एक ही शाखा से जन्मे होने के कारण इन सभ्यताओं में समानता के कारण हैं तो मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि इस सिद्धांत के अनुसार ही वेदों की रचना आर्यों के भारत आने के बाद हुई हैं। उस समय के तत्कालीन जोराष्ट्रियन ग्रन्थ जान अवेस्ता में तीन ही श्रेणियों का वर्णन हैं । डेनकार्ड की रचना नवी शताब्दी के आसपास की हैं।

इसी काल के आसपास मिस्र में भी कर्म आधारित वर्ग का जन्म हुआ जिसमे दरबारी, सैनिक, संगीतज्ञ, रसोइये आदि कर्माधारित वर्गों का जन्म हुआ। मिस्र के शासक राम्सेस तृतीय के अनुसार मिस्र का समाज भूपतियों, सैनिकों, राजशाही, सेवक, इत्यादी में विभक्त था (हर्रिस अभिलेख (Harris papyrus ) जेम्स हेनरी ब्रासटेड - ऐन्सीएंट रेकॉर्ड्स ऑफ़ ईजिप्ट पार्ट ४)। इसी काल में यूनानी पर्यटक हेरोडोटस (Herodotus) के वर्णन के अनुसार मिस्र में सात वर्ण थे - पुजारी, योद्धा, गो पालक, वराह पालक, व्यापारी, दुभाषिया और नाविक। इनके अतिरि़क उसने दास का भी वर्णन किया हैं (उसके अनुसार दास बोलने वाले यन्त्र/औजार थे जोकि दास के अमानवीय जीवन को दर्शाता हैं)। इसके अतिरिक्त एक अन्य यूनानी पर्यटक स्त्रबो (Strabo) के वर्णन के अनुसार शासक के अतिरिक्त समाज में तीन भाग थे - पुजारी, व्यापारी और सैनिक। (यूनान की प्रचिलित दास व्यवस्था के कारण स्त्रबो ने भी दासों का उल्लेख आवश्यक नहीं समझा होगा)। मिस्र की सामाजिक व्यवस्था में मुख्यतः लोग अपने पैत्रिक कामों को वंशानुगत रूप से अपनाते रहे। इस प्रकार ये व्यवस्था कर्मगत होते हुए भी जन्मणा प्रतीत होती हैं। संभवतः ऐसा ही कुछ भारतीय वर्ण व्यवस्था के साथ भी हुआ होगा।

पुरातन काल की सभी स्वतंत्र रूप से विकसित सभ्यताओं में, हम पाते हैं कि समाज का कर्मगत वर्गीकरण स्वाभाविक रूप से हुआ। कालांतर में यह सभ्यताएं अवश्य ही वाणिज्य और राष्ट्र विस्तार के लिए एक दुसरे के संपर्क में आई और इन सभ्यताओं ने अवश्य ही एक दुसरे के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित किया होगा किंतु इनके पुरातन विकास को देखकर यह कयास तो लगाया जा सकता हैं कि वर्ण निर्माण की भावना में सर्वत्र एक ही रही होगी। अतः यदि अन्य तत्कालीन सभ्यताओं में वर्ण व्यवस्था समाज के बढती जटिलताओं के समाधान के रूप में श्रम विभाजन के आधार पर उत्त्पन्न हुई तो वही विकासक्रम वैदिक व्यवस्था में भी रहा हुआ होगा। जेम्स फ्रांसिस हेविट ने अपने निबंध संग्रह "दा रूलिंग रेसस ऑफ़ प्रिहिस्टोरिक टाईम्स इन इंडिया, साउथ वेस्टर्न एशिया एंड साउथर्न यूरोप में भी पुरानी लोककथाओं, शास्त्रों और साक्ष्यों के आधार पर इन सभ्यताओं के विकासक्रम में ऐसी ही समानता स्थापित करने का प्रयास किया हैं। अगली कड़ी में हम भारतीय इतिहास के कुछ पृष्ठों में वर्ण-व्यवस्था का विकास क्रम देखेंगे....

सादर,
सुधीर

विशेष - पिछली टिप्पणियों में कर्ण की वर्ण व्यवस्था पर उपेक्षा की बात चली हैं। मैं अवश्य ही अगले कुछ दिनों में अपने विचार आपके समक्ष रखूँगा ।

Thursday, July 2, 2009

शास्त्रों के अनुसार वर्ण व्यवस्था - भाग ३ (अन्तिम भाग)

तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणों नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति॥
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वज्रसूचिका उपनिषद


गत सप्ताह हम मनु स्मृति के विषय में चर्चा कर रहें थे। मनु स्मृति में वर्ण व्यवस्था को कर्माधारित ही माना गया हैं। उसके संकर जाति के नियमो का भी कर्मगत रूप ही दृष्टव्य होता हैं। उन नियमो को मार्गदर्शक ही माना जा सकता हैं। यदि हम अपने पुराणों और इतिहासों पर एक दृष्टि डालें तो पायेंगे कि कर्म ने सदैव ही जन्म आधारित व्यवस्था पर प्रधानता पाई हैं। चाहे वो विश्रवा और दैत्य कुमारी कैकसी के पुत्र को (संकर वर्ण के स्थान पर ) ब्राह्मण मानना या विश्रवा के दुसरे पुत्र "कुबेर" का लंकापति (क्षत्रिय) रूप, चाहे राजा हरिश्चंद का क्षत्रिय से चांडाल होना (वर्ण व्यवस्था में चांडाल भी एक संकर वर्ण हैं) या सावित्री के द्वारा एक वन्यप्रस्थ लकड़हारे सत्यवान का वरण या हिमालय पुत्री की शिव कामना.... इन सभी रूपों में हम वर्ण-व्यवस्था की तथाकथित छद्म दीवारों को नगण्य पाते हैं। इसी प्रकार सीता राम को ब्राह्मण कुमार के रूप में देखती और विवाह कामना करती हैं, द्रौपदी को अर्जुन ब्राह्मण रूप में पाते हैं, भीम दानव-पुत्री हिडाम्बा से विवाह करते हैं, रावण के कुल में मय दानव और नाग कन्याओं का आगमन होता हैं...सत्यकामा जबला के सत्य के आधार पर उसे ब्राह्मण माना जाता हैं (और माता जबला को उसका गोत्र... ) , दासी पुत्र नारद ऋषि और दासी तनय विदुर कहीं भी वर्ण व्यवस्था पर उपेक्षित नहीं दीखते, विश्वामित्र ब्राह्मण कर्म करते हैं तो परशुराम क्षत्रिय सम युद्घ...इन कथाओ और घटनाओ में मनु के प्रस्तावित नियमो का उल्लंघन नहीं किंतु उनके कर्मगत स्वरुप की सामाजिक मान्यताये ही परिलक्षित होती हैं...


इस सप्ताह वर्ण व्यवस्था के सम्बन्ध में तीसरे महत्वपूर्ण ग्रन्थ वज्र-सूचिका उपनिषद के सम्बन्ध में वार्ता करते हैं। वज्र के सामान कठोर (सत्य को परिभाषित करने वाला), और

सुई के सामान पैना और सटीक होने के नाते इस उपनिषद को वज्र-सूचिका उपनिषद कहा गया। यथा नाम तथा गुण - यह उपनिषद न केवल छोटा हैं बल्कि अत्यन्त प्रभावशाली रूप से अपने विचार रखता हैं। स्वं अपने को परिभाषित करते हुए यह उपनिषद कहता हैं - "ॐ वज्रसूचीम् प्रवक्ष्यामि शास्त्रमज्ञानभेदनम्। दूषणं ज्ञानहीनानाम् भूषणं ज्ञानचक्षुषाम् ॥ अर्थात् वज्रसूचिका उपनिषद अज्ञानता का नाश करता हैं, अज्ञानियों के भ्रम को तोड़ता हैं और ज्ञान दृष्टियों से युक्त (योग्य) जन का सम्मान करता हैं। शायद वर्ण व्यवस्था को परिभाषित करते हुए शास्त्र के शाब्दिक ज्ञान से यूक्त अज्ञानी व्यक्ति, जो पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ की उक्ति को चरितार्थ करतें हैं के विरोध में लिखा ग्रन्थ हैं - जो वर्ण व्यवस्था के वास्तविक रूप को उजागर करने के उद्देश्य से लिखा गया हैं। इसके रचयिता के विषय में कई विविध विचार-धाराएँ हैं कुछ के मातानुसार इसे शंकराचार्य ने लिखा हैं तो कुछ के अनुसार इसे ब्राह्मण बौध भिक्षु अश्वाघोस (जोकि बुद्धचरित के भी रचनाकार हैं) ने लिखा हैं। कुछ विचारक इसे शंकराचार्य से पूर्व रचित मानतें हैं।

अपने तीक्ष्ण तार्तिक श्लोकों और सुदृढ दृष्टिकोण से अपने नाम को सत्यापित करते हुए यह ग्रन्थ सर्वप्रथम चारों वर्णों के आस्तित्व को स्वीकार करता हैं और तदुपरांत वर्ण व्यवस्था की व्याख्या के लिए "ब्राह्मणों" को वेद और स्मृति शास्त्रों के आधार श्रेष्ठ मानते हुए उनका चयन करता हैं।

ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषाम् वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेदवचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम्॥ तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणों नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति॥


किंतु इससे पूर्व कि ब्राह्मण इसे वर्ग विशेष के लिए समझा जाए वो दार्शनिक आधार पर 'ब्राह्मण कौन हैं?' प्रश्न करता हैं। इसके बाद सारे के सारे श्लोक ब्राह्मण के कर्मगत और ईश्वर प्रेमी रूप को स्पष्ट करने और जन्म, कर्म-कांडी, रंग, नस्ल और सांसारिक रूप से इस वर्ण के परिभाषा के विरोध में आतें हैं। अतः यह उपनिषद ब्राह्मण और वर्ण-व्यवस्था को विशेष रूप से जन्म , शरीर, रंग, नस्ल, सामाजिक सफलता (यश-कीर्ति) , शास्त्रीय ज्ञान, कर्म-कांड (हवन, यज्ञ, पूजा पाठ) से नकार देता हैं।


प्रथम प्रश्न में जीव (आत्मा) को ब्राह्मण मानने का विरोध करता हैं क्योंकि जीव तो जन्म-जन्मान्तर से एक ही हैं और सभी चेतन जगत में एक ही हैं। वो तो कर्मवश मिले इस शरीर से पृथक एक ही हैं अतः वो ब्राह्मण नहीं हैं। इसी प्रकार प्रश्न करता हैं की शरीर से कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता क्योंकि सभी से शरीर एक ही प्रकार के पञ्च तत्वों से बने हैं (क्षिति जल पावक गगन समीरा पञ्च तत्व रचत अधम सरीरा॥ ) "जरामरणधर्माधार्मादिसम्यदर्शनत" सभी वर्ग के लोगों पर मृत्यु, बुढापे और अन्य सामाजिक और भौतिक परिवर्तनों का सामान असर होता हैं। न ही ऐसा हैं कि क्षत्रिय रक्त (लाल) रंग के होते हैं, ब्राह्मण श्वेत (गोरे), वैश्य पीले और शूद्र कृष्ण (काले) रंग के होते हैं। यह विशेष रूप महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन रंगों का प्रयोग पुरातन काल से नस्लीय आधार पर भी होता रहा हैं। यहाँ इस बात पर स्पष्टीकरण हैं कि यह व्यवस्था सार्वभौमिक हैं और इसमे अलग -अलग प्रजातियों का कोई स्थान नहीं था - ऐसा नहीं था कि आर्य -अनार्य के बीच इस व्यवस्था का भेद था /शूद्र आर्यों से पराजित प्रजाति नहीं थे)। अतः शरीर के आधार पर कोई ब्राह्मण नहीं हैं।


प्रजाति और आत्मा का ब्राह्मण रूप नकार कर, यह उपनिषद फ़िर प्रश्न करता हैं क्या जाति ब्राह्मण होने आधार हैं अर्थात् क्या कुल परिवार या वर्ग विशेष में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण हैं? इस प्रश्न के विश्लेषण में तर्क देते हुए यह उपनिषद कहता हैं कि कई ऋषि विभिन्न कुलों (जातियों) में उत्पन्न होकर भी अपने (अध्यात्मिक) ज्ञान के आधार पर ब्राह्मणों में अग्रणीय हैं। अपनी बात के लिए उदाहरण देते हुए ऋषि श्रृंगी को मृग से, कौशिक को कुश , जंबूका को सियार से, वाल्मीकि को चींटियों (कीटों) से , व्यास मत्स्य कन्या से (मछुआरों की बेटी से), गौतम ऋषि खरगोश से, वशिष्ठ देव-अप्सरा उर्वशी से, अगस्त कलश से जन्मे और ब्राह्मण हुए । संभवतः यह उदाहरण यह सिद्ध करता हैं की भिन्न जन-जातियों से लोग ज्ञानी लोग ब्राह्मण अथवा वर्ण व्यवस्था से जुड़े। ब्राह्मणत्व केवल मनु-वंशजो का एकाधिकार नहीं था। इन तीनों श्लोकों के यह सिद्ध तो होता ही हैं कि जन्म और नस्ल के आधार पर ब्राह्मण (वर्ण) व्यवस्था नहीं हैं।


इसके बाद शास्त्रों के शब्द ज्ञान और कर्म (यहाँ कर्म-कांडों, रीति -रिवाजों, संस्कारों के लिए उपयुक्त हुआ हैं ) के आधार पर भी ब्राह्मण का आस्तित्व नहीं माना गया हैं क्योंकि ब्राह्मणों के सामान ही कई क्षत्रिय (एवं अन्य वर्ण ) शास्त्रों में प्रवीण हैं। मनुष्य के सारे कार्य (कर्म-कांड) उसकी कर्मों की गति के आधार पर होते हैं अतः वे ब्राह्मण होने का मापदंड नहीं हो सकते। इसी प्रकार धर्मिक कर्म भी व्यक्ति को ब्राह्मण नहीं बनते क्योंकि क्षत्रिय (अवं अन्य वर्ण) ब्राह्मणों से आधिक धार्मिक कृत्यों में लिप्त हो सकते हैं।
अंत में उपनिषद स्वं ही इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहता हैं ब्राह्मण वे हैं जिन्होंने ईश्वर (ब्रह्म) से साक्षात्कार कर लिया हैं, जो कि वैमनष्य और विद्वेष से ऊपर हैं (अर्थात् सभी से प्रेम रखता हैं), जाति के बन्धनों से मुक्त हैं, जो सांसारिक मोह माया से विमुख हैं (अर्थात् समाज कि क्षुद्र बातों से अलग हो चुका हैं), जो सभी (छह) विकारों -मृत्यु, बुढापा, दुविधा, दुःख, भूख और प्यास से अप्रभावित हैं , जो परिवर्तनों जैसे जन्म आदि के लोभ से मुक्त हें- वहीं सही अर्थो में ब्राह्मण हें।


इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्ण व्यवस्था मूल रूप से न तो जन्मगत थी और नही वर्ग विशेष की पहचान। यह व्यवस्था समाज को सुदृढ़ आधार प्रदत करने के लिए सोच समझकर उठाया हुआ एक कदम था।


एक और बात जो ये सिद्ध करती हैं कि ब्राह्मण व्यवस्था समाज के शोषण का साधन नहीं थी वो हैं ब्राह्मणों द्वारा पूजित मंदिरों में ब्राह्मण कुल के देवी-देवताओ का आभाव। यदि हम ध्यान से देखे तो कालांतर में जब वैदिक निर्गुण ब्रह्म का स्थान वर्तमान पूजा पद्धतियों ने लिया -उसी काल में जाति -व्यवस्था जन्मगत और गहरी हुई पर फ़िर भी मठों और मंदिरों में पूजे जाने वाले देव अ-ब्राह्मण कुलों से ही आए। अपने पितामह ब्रह्मा को सम्पूर्ण आर्यावत में सिर्फ़ तीन मंदिरों में पूजा जाता हैं, उसी प्रकार विष्णु का वामन और परशुराम अवतार राम और कृष्ण अवतारों की अपेक्षा में कम ही पूजित हैं। (शिव रूप को ब्राह्मण कहना अतिशयोक्ति होगी क्योंकि वे देवाधिदेव सभी वर्गों के देव हैं) यदि ब्राह्मणों को समाज पर अधिपत्य ही जमाना होता तो देवीय कुलों से अपनी वर्ण व्यवस्था सिद्ध करके स्वं अपना साम्राज्य स्थापित करते जैसा कि हमारे क्षत्रिय वर्ग के लिए उन्होंने किया। हमने शास्त्र-सम्मत आधार पर यह देखा कि ब्राह्मण व्यवस्था सिर्फ़ कर्मगत रूप में ही शुरुआत से मान्य हैं। अगली कड़ी में हम इस व्यवस्था को इतिहास के पन्नो में झांक कर देखने का प्रयास करेंगे....

सादर,

सुधीर

Friday, June 19, 2009

शास्त्रों के अनुसार वर्ण व्यवस्था - भाग २

पिछली चर्चा में हम वर्ण व्यवस्था की वेदानुसार व्याख्या कर रहे थे और उसके प्रारंभिक रूप को कर्मगत ही पाया। आज उस चर्चा को वेदों और मनु-स्मृति के अनुसार समझने का प्रयास करेंगे।

पिछली चर्चा में यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण के अनुसार हमने वर्णों के जन्म के विषय में जाना। किस प्रकार स्वर्ग, व्योम और भूमि से वर्णों का सम्बन्ध स्थापित किया गया था - जिसका विश्लेषणात्मक पहलु कर्मगत आधार पर यूँ किया जा सकता हैं कि दार्शनिक, बौधिक और धार्मिक कृत्यों से सम्बंधित कार्य (स्वर्ग) से ब्राह्मण, प्रशासनिक, संरक्षण एवं आश्रय देने के कृत्यों (व्योम) से क्षत्रिय और भूमि से जुड़े कार्यों से अन्य वर्ण (वैश्य और शूद्र) जन्मे। इस व्यवस्था में सभी को सामान अवसर भी प्राप्त थे। शतपथ ब्राह्मण के १.१.४.१२ श्लोक में वैदिक क्रियाओं में सभी वर्णों का संबोधन दिए हैं जिससे ये स्पष्ट होता हैं कि वैदिक कार्यों में सारे वर्ग भाग लेते थे । शतपथ ब्राह्मण (श्लोक १४.४.२.२३, ४.४.४.१३), तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.९.१४) में क्षत्रियों को संरक्षण और व्यवस्था कायम करने के कारण सभी वर्णों में श्रेष्ठ बताया गया हैं । वहीं दूसरी ओर तैत्तिरीय संहिता ( ५.१.१०.३) और ऐतरेय ब्राह्मण (८.१७) में ब्राह्मणों को ज्ञान के कारण श्रेष्ठ मन गया हैं। इन विरोधाभासी प्रतीत होने वाले विचारों से यह तो सिद्ध होता ही कि सर्वमान्य रूप से किसी वर्ण की भी श्रेष्ठता नहीं थी और un वर्गों को केवल अपने कर्मो के आधार पर ही आँका जाता था। वेदों से चर्चा समाप्त करने से पहले मैं अरविन्द शर्मा जी के विचार भी प्रस्तुत करना चाहूँगा। उनके मतानुसार सभी वर्गों की समानता उनको एक-एक वेद के साथ जोड़ भी हमारे मनीषियों ने प्रदान की हैं ("क्लास्सिकल हिंदू थॉट")। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.१२.९.२) में कहा गया हैं -
"सर्वं तेजः सामरूप्य हे शाश्वत।
सर्व हेदम् ब्रह्मणा हैव सृष्टम्
ऋग्भ्यो जातं वैश्यम् वर्णमाहू:
यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् ।
सामवेदो ब्रह्मणनाम् प्रसूति
अर्थात ऋगवेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण का जन्म हुआ। इस आधार पर ये भी मन जा सकता हैं कि अथर्ववेद का सम्बन्ध शूद्रों से हैं। जिस प्रकार कोई भी ज्ञानवां व्यक्ति किसी भी वेदों को दुसरे से ऊपर नहीं मान सकता उसी प्रकार उनसे जुड़े वर्ण भी एक दुसरे से ऊपर नहीं हो सकते।

वेदों के बाद वर्ण-व्यवस्था से सम्बंधित सबसे ज्यादा चर्चित ग्रन्थ मनु-स्मृति ही हैं (संभवतः वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में वेदों से भी अधिक चर्चित)। भारतीय दर्शन को समझने के लिए जिस ग्रन्थ को पाश्चात्य विद्वानों (अंग्रेजो) ने सर्वप्रथम चुना था वो मनु स्मृति ही था (सन् १७९४ में सर विलियम जोन्स)। इस ग्रन्थ के जिन अंशो को लेकर इसकी निंदा होती रही हैं उनमे से अधिकांश ८वे आध्याय से हैं। वास्तव में उनके अध्ययन के बाद कुछ तो अत्यन्त ही क्रूर और अमानवीय प्रतीत होते हैं (मुझे तो व्यक्तिगत रूप से कुछ अत्याचार के दिशा-निर्देशों से भरे किसी डरावनी पुस्तक से उठाये हुए प्रतीत हुए - जैसे जिह्वा, हस्त विच्छेदित करना, जीवन पर्यन्त बंधुआ मजूरी करना, एक वर्ण का दुसरे का उत्पीडन शास्त्र सम्मत मानना आदि) किंतु इस सम्बन्ध में श्री सुरेन्द्र कुमार की लिखित पुस्तक "विशुद्ध मनुस्मृति" से विचार प्रकट करना चाहूँगा। उन्होंने मनु-स्मृति के 2,६८५ छंदों (श्लोकों) में से मात्र १,२१४ को मूल ग्रन्थ का अंश माना हैं। उनके अनुसन्धान के अनुसार बाकी के श्लोक कालांतर में मनु-स्मृति से जुड़े - उनमे से अधिकांश या तो तत्कालिन लेखकों/ऋषियों की व्यतिगत समझ के अनुसार की हुई व्याख्याएं हैं। इसी सम्बन्ध श्री भीमराव अम्बेडकर जी का भी शोध महत्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार मनुस्मृति के अधिकांश भाग (जोकि यह कालांतर में जुड़े अंश हो सकते हैं) पुष्यमित्र सुंग के राज्य में बढ़ते बौध्य प्रभाव को दबाने के लिए लिखे गए (Revolution and Counter-Revolution in India )। यदि इन कालांतर में जुड़े हुए श्लोकों की भाषा को देखें तो वो भी एक विलुप्त होते समाज की साम, दाम दंड भेद की भाषा ही लगती हैं जोकि उस काल के उच्च वर्ग को लुभाकर अन्य पंथ की तरफ़ होने वाले रुझान से एन केन प्रकारेण रोकना चाह रहा हो। यदि इस ग्रन्थ को इन श्लोको से हटा कर देखें तो हम मनु-स्मृति के मूल रूप को समझ पाएंगे और जान पाएंगे कि शंकराचार्य, स्वामी दयानंद, एन्नी बेसेंट, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और फ्रिएद्रीच निएत्ज़सचे जैसे विद्वानों ने इस ग्रन्थ को क्यों सराहा।


मनु स्मृति में वर्ण व्यवस्था को अत्यन्त विस्तार से समझाया गया हैं। किंतु इसमे भी वर्ण परिवर्तनीय और कर्म बोधक ही हैं.... मनु की मूल व्यवस्था विद्वेषकारी नहीं हैं। मनु कहते हैं "शुद्रो ब्रह्मणाथामेथी ब्रह्मणास्चेथी शुद्रताम" अपने कर्मो के आधार पर ब्राह्मण शूद्र हो सकता हैं और शूद्र ब्राह्मण. इसी प्रकार अन्यत्र मनु कहते हैं "आददीत परां विद्यां प्रयत्नादवरादपि । अन्त्याद्पी परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि" अर्थात जिस प्रकार दुष्कुल (छोटे कुल) की स्त्री से मिलने पर रत्न (उपहार) ले जाने चाहिए उसी प्रकार ज्ञान किसी भी व्यक्ति से (वर्ण भेद नगण्य हैं) आदर पूर्वक लेना चाहिए।


इसी प्रकार मनु ने १०वे अध्याय में कहा हैं "अहिंसा सत्यम् अस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रह: । एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वंर्ये आब्रवीन मनु: ॥ " अर्थात चारों वर्णों के लिए नियम बनाते हए मनु कहते हैं - "अहिंसा, इन्त्रियों पर संयम, शुद्धता और सत्यता ही सभी वर्णों के लिए आवश्यक हैं"। (जब अहिंसा सभी वर्णों ले लिए आवश्यक हैं तो फ़िर आठवें अध्याय में बताये नियम कियान्वित ही नहीं किए जा सकते। ) इसी अध्याय में २४वे श्लोक में ब्राह्मण और शूद्र से उत्पन्न वंशजों के पुनः ब्राह्मण वर्ण में पुनः लौट आने का भी नियम भी दिया हैं। वर्ण परिवर्तन और उसकी उन्मुक्तता छान्दोग्य उपनिषद के सत्यकामा जाबाला की कथा में भी मिलता हैं, जहाँ केवल माता के परिचय के आधार पर बिना वर्ण के ज्ञान पर भी गुरु ने सत्यकामा को दीक्षित किया। ऐसा ही विवरण चंद्रप्रभा राजन की तीन हाथ वाली उपनिषद कथा में भी मिलता हैं (भारत एक खोज एपिसोड ४)। नारद भक्ति सूत्र में भी ईश्वर भक्ति और उपासना में जाति भेदों को नगण्य बताया हैं क्योंकि सभी भक्त भगवान् के ही हैं. - "नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियाभेदः । यतस्तदीया: । "। इसी प्रकार शाण्डिल्य सूत्र में कहा गया हैं - "आनिन्द्ययोंयाधिक्रियते पारम्पर्यात सामान्यवत" शास्त्रों और उपदेशों की परम्परा से सिद्ध होता हैं कि भक्ति पर सभी का बराबर अधोकार हैं।


इसी प्रकार मनु स्मृति में विभिन्न वर्णों के मिलन से उत्पन्न वर्णों (जातियों ) का भी उल्लेख हैं किंतु यदि इन संकर वर्णों का प्रथम दृष्टया विश्लेषण उन्हें कर्मगत ही पाते हैं। इन वर्णों में से कई तो कर्म सूचक ही हैं जैसे निषाद, वीणा, सूत इत्यादि। अन्य संकर वर्ण जैसे ब्राह्मण और वैश्य के मिलन से उत्पन्न अम्बष्ठ (चिकित्सक) वर्ण भी कर्मगत ही हैं। यह तो सम्भव नहीं कि इस प्रकार के मिलन से उत्पन्न हर व्यक्ति वैद्य ही होगा ....किंतु इस प्रकार के श्लोकों को यूँ समझा जा सकता हैं कि वैश्य गुण से व्यापारिक समझ और ब्राह्मण गुण से ज्ञान पिपासु होने से इस वर्ग की चिकित्सा क्षेत्र में सफलता निश्चित हैं। किंतु ये संकर वर्ण फ़िर भी कर्मगत रूप ही दिखाते हैं। इस विषय पर ऐसे ही कुछ विचार विलियम क्रूकस ने भी अपनी पुस्तक "दा ट्राइब्स एंड कास्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध" में व्यक्त किए हैं।


आज चर्चा में इतना ही... अगले सप्ताह वज्रसूचिका उपनिषद में ब्राह्मण व्यवस्था की चर्चा....


सादर,
सुधीर


विशेषानुरोध: अभी तक की चर्चा के विषय में अपने विचारों को अवश्य बतलाये

Saturday, June 13, 2009

शास्त्रों के अनुसार वर्ण व्यवस्था - भाग १

अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहंकारः समदु:खसुखः क्षमी॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः। माय्यर्पितमनो बुद्धिर्यो मद्भक्तः स में प्रियः॥

अर्थात् जो सभी जीवों (भूतों) के प्रति द्वेष भावः से विहीन हैं, जो सभी के लिए मित्रवत एवं दया (करुणा) भाव से परिपूर्ण हैं, किसी के प्रति ममत्व से रहित (निष्पक्ष) हैं , अंहकार से रहित हैं, सुख दुःख में सम और क्षमावान, संतुष्ट हैं, मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले ढृढ़-निश्चयी हैं और ईश्वर में मन और बुद्धि अर्पित किए हुए हैं वे (मुझे ) ईश्वर को प्रिय हैं। (गीता अध्याय १२, श्लोक १३-१४)


भारतीय दर्शन में सभी जीवों के उत्थान की कामना ही मूल मंत्र हैं - चाहे वो विश्व कल्याण का भावः हो या विश्व शान्ति की कामना। जहाँ नित्य पूजन "सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामय, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु , मा कश्चिद दुख्भाग भवेत्। ॐ शांति शांति शांति" के आवाहन के बिना पूर्णता नही पाता, ऐसे समाज में वर्ण व्यवस्था का उदय उसके उत्कृष्ट एवं जटिल स्वरुप और उसके नागरिकों के बौधिक स्तर को परिलक्षित करता हैं। जिस समाज में स्वं को छोड़कर सभी को मान देने की परम्परा हो ('सबहि मानप्रद आपु अमानी'), जहाँ दुष्टों को भी सज्जनों के साथ मानव होने के नाते आदर मिलता हो ("बहुरि बन्दि खल गन सभिताएं), जहाँ चराचर जीवों के स्थापित मापदंडों के से बाहर जड़वत तत्वों को भी ईश्वरीय रूपों में पूजा जाता हो (निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोधा) - ऐसे समाज में कोई व्यवस्था जन साधारण के तिरस्कार और विभाजन की रूपरेखा के साथ पनप सकती हैं इसकी सम्भावना अत्यन्त ही क्षीण हैं।


जिस समाज और दर्शन में (ईश्वर की प्राप्ति ) मोक्ष कामना ही जीवन का उद्देश हो और उसके प्राप्त करने के माध्यम विरक्ति, भक्ति और (मानव) आसक्ति हो उसमे ईश्वर वंदन के नाम पर समाज के किसी वर्ग का शोषण होगा सम्भव ही नहीं। विरक्ति का मार्ग जहाँ सभी मनुष्यों से दूर ले जाता हैं (संन्यास), वहीं भक्ति मार्ग सभी के बीच रहकर भी उनसे विमुख रखता हैं परन्तु मानव आसक्ति का मार्ग समाज में रहकर उसमे बसे सभी जीवो को सम्मान के साथ रहने की प्रेरणा देता हैं। मेरे विचार से मानव जीवन को चार आश्रमों में बाँट कर (छान्दोग्य उपनिषद) भी शायद ब्रह्मचर्य के बाद तीनो आश्रम संभवतः इन तीनो माध्यम से मोक्ष प्राप्ति की प्रेरणा देते रहे होंगे। (गृहस्थ -आसक्ति, वानप्रस्थ -भक्ति और संन्यास - विरक्ति)। हमारे मोक्ष लालायित समाज में फ़िर भी एक सामाजिक वर्गीकरण के लिए वर्ण-समाज का उदय हुआ। आईये देखें कि इस सन्दर्भ में हमारे शास्त्र क्या कहते और जानने का प्रयत्न करें कि इस वर्गीकरण के मापदंड क्या थे और उसकी विशिष्टताएं क्या थी?


वैसे तो वर्ण व्यवस्था का ताना बाना हमारी सभ्यता में इंतना रचा बसा सभी कि इसका वर्णन हमारे सभी धर्म ग्रंथो में मिलता हैं - इसमे सभी वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, संघितायें, भाष्य, पुराण, इतिहास (गीता एवं रामायण), उनकी समीक्षाएँ सम्मलित हैं। किंतु जिन ग्रंथो का नाम सर्वप्रथम मानस पटल पर उभरता हैं वे हैं ऋग्वेद, मनु स्मृति और वज्रसूचिका उपनिषद। ऋग्वेद में जहाँ वर्ण व्यवस्था के उदय का वर्णन हैं वहीं मनु स्मृति में उसकी व्यवस्था और वज्रसूचिका उपनिषद में उसकी व्याख्या का वर्णन हैं। इसके अतिरिक्त भी अन्य ग्रंथो और पुरातन साहित्य में भी इस व्यवस्था का वर्णन मिलता हैं।


सबसे प्राचीन ऋग्वेद के जिस श्लोक में सर्वप्रथम वर्ण व्यवस्था के जन्म का उल्लेख मिलता हैं वो "पुरुष सूक्त" (१०।९०।१२) में कुछ इस प्रकार से वर्णित हैं - "बराह्मणो अस्य मुखमासीद बाहू राजन्यः कर्तः ऊरूतदस्य यद वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत " उस ब्रह्म (पुरूष) के मुख से ब्राह्मण, बाँहों से राज कार्य करने वाले, पेट से वैश्य और पांवो के शूद्र का जन्म हुआ। कई विद्वजन इस श्लोक को सामाजिक श्रेष्ठता और गरिमा स्थापित करने का प्रयास मानते हैं। किंतु इस सम्बन्ध में मैं मैक्स मूलर के विचारों को रखना चाहूँगा जिसमे उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया हैं कि शुद्र और राजन्य जैसे शब्दों का प्रयोग इस श्लोक के अतिरिक्त ऋग्वेद में कहीं नहीं मिलता हैं (चिप्स फ्रॉम अ जर्मन वर्कशॉप ई, ३१२)। ऐसी ही मान्यता विलियम क्रूक ने अपनी पुस्तक "दा ट्राइब्स एंड कॉस्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविन्सस एंड अवध" में और अरविन्द शर्मा ने "क्लास्सिकल हिंदू थॉट" में भी मानी हैं। अतः यह श्लोक या तो बाद में ऋग्वेद से जुडा या इसका तात्पर्य वर्ण व्यवस्था के नामों से नहीं हैं। मेरे विचार से यह श्लोक ही वर्ण वयवस्था के कर्मगत रूप को उजागर करता हैं। क्षत्रिय शब्द के स्थान पर राजन्य शब्द का चयन स्पष्ट रूप से कर्म बोधक ही हैं। यहाँ पुरूष शब्द भी वैदिक समाज के लिए प्रयुक्त हैं। इसका आधार ऋग्वेद के इस श्लोक के पूर्व के श्लोकों में मिलता हैं। पुरूष की परिभाषा देते हुए ऋग्वेद कहते हैं - "सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात"(१०.९०।१) अर्थात उसके सहस्र सर, पैर और नेत्र हैं। यह उद्बोधन सहस्र व्यक्तियों के समूह का ही वर्णन करता हैं। तदुपरांत श्लोक १०.९०.११ में फ़िर प्रश्न होता हैं - "यत पुरुषं वयदधुः कतिधा वयकल्पयन मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते " जब पुरूष (समाज) को बाटा गया तो उसके कितने भाग हुए - उसका मुख , बांह उदर और पैर का क्या हुआ? हमारे चिंतनशील मनीषियों ने फ़िर उस प्रश्न के उत्तर में वर्ण वयवस्था का विवरण दिया हैं। समाज को ज्ञान देकर वाणी देने वाले कर्म-समूह ब्राह्मण कहलाए (मुख), समाज की सारी प्रणाली को सुचारू रूप से (अपने राजकाज से) व्यवस्थित करने राजन्य (बाहें), अपने वाणिज्य कर्म द्वारा समाज के पेट का पोषण करने वाले वैश्य (उदर) और अपने अत्यन्त आवश्यक श्रम-श्रेष्ठ कर्मो से समाज को गति देने वाले शुद्र (पैर) कहलाए। इससे ये स्पष्ट होता हों की व्यवस्था कर्मगत ही थी। इस आशय में ऋग्वेद का ही श्लोक याद आता हैं - "कुविन मा गोपां करसे जनस्य कुविद राजानं मघवन्न्र्जीषिन कुविन म रषिं पपिवांसं सुतस्य कुविन मे वस्वो अम्र्तस्य शिक्षाः (३.४३.५) - ( हे इन्द्र ) आप मुझे क्या बनायेंगे लोगों कि रक्षा करने वाला प्रजापति (राजा), (ज्ञान के) सोम का पान करने वाला साधू? याचक के इस इस संशय से यह तो पता चलता हैं कि उसके पास दोनों विकल्प थे और उन्हें प्राप्त करने के अवसर भी .... ऋग्वेद में यत्र-तत्र ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ वर्ण व्यवस्था कर्मगत ही हैं।

इसी प्रकार यजुर्वेद (वाजसनेयी संहिता) की १४ वी पुस्तक में भी शुद्र और आर्यों का जन्म के साथ ही होना बताया गया हैं - "न॑वद॒शभिरस्तुवत शूद्रा॒र्याव॑सृज्येतामहोरात्रे अधि॑पत्नी आस्ताम्"। इसी प्रकार का विवरण तैत्तिरीय संहिता में भी मिलता हैं। यदि जन्म साथ लिया हैं तो फ़िर उनमे ऊँच-नीच कैसी ? जिस प्रकार हमारी मान्यता हैं कि सभी मनुष्यों का जन्म मनु से ही हुआ हैं, उस आधार पर भी सभी वर्ण एक ही पिता की संतान होने से सामान ही माने जायेंगे। (शुक्ल) यजुर्वेद से जुड़े 'शतपथ ब्राह्मण' में भी वर्ण व्यवस्था के उदय के विषय में बताते हुए कहा गया हैं प्रजापति ने ब्रह्माण्ड में व्याप्त भूः से पृथ्वी, भुवः से व्योम और स्वः से स्वर्ग की उत्पत्ति की (कांड २.१.४.११)। फ़िर इन्ही तीन तत्वों से क्रमश: जन साधारण (वैश्य), क्षत्रिय और ब्राह्मण का निर्माण किया। इस व्यवस्था में शूद्रों का कोई उल्लेख नहीं हैं। जिसका तात्पर्य यह हुआ कि या तो उस समाज में वे थे ही नहीं या फ़िर वे वैश्य वर्ग के साथ जन साधारण के भाग थे। इस विषय पर अरविन्द शर्मा अपनी पुस्तक में "क्लास्सिकल हिंदू थॉट" में रोचक विचार प्रस्तुत किए हैं - उनके अनुसार ऋग्वेद के पुरूष-सूक्त में पृथ्वी का सम्बन्ध पुरूष के चरणों से हैं जहाँ से शूद्रों की उत्पत्ति भी घोषित हुयी हैं अतः वैश्य और शुद्र सभी एक वर्ग के भाग थे और भूमि से जुड़े कार्यों में लिप्त थे। किंतु मेरे अनुसन्धान के अनुसार इस सम्बन्ध मे यजुर्वेद के तैत्तिर्य ब्राह्मण में शूद्रों के सम्बन्ध में दो उद्धरण मिलते हैं - शूद्रों का जन्म असुरों से हुआ और ब्राह्मणों का देवों से (१.२.४.७) - जिसका आशय समाज के आसुरी और देव प्रवृतियों से होगा। समाज का एक वर्ग अपनी आसुरी प्रवृतियों से शुद्र हो गया वहीं दूसरा अपने देव-तुल्य आचरण से ब्राह्मण कहलाया। यही शास्त्र अन्यत्र शूद्रों के जन्म के विषय मे कहता हैं कि वे असतो से जन्मे हैं (३.२.३.९) जिससे यह सिद्ध होता हैं कि तीन वर्गों के बाद अपने आचरण से गिरने के बाद असत्यता धारण करने से वे शुद्र मे परिवर्तित हुए.

वेदों मे वर्ण-व्यवस्था की चर्चा अत्यन्त ही व्यापक हैं...इस पर कई दिनों तक व्याख्या की जा सकती हैं किंतु अभी के लिए इतना ही .... अगले सप्ताह अन्य ग्रंथों पर भी एक दृष्टि डालकर वर्ण-व्यवस्था की चर्चा जारी रखने का प्रयास करूँगा।

सादर,
सुधीर

विशेष: गत सप्ताह स्वास्थ एवं पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण चर्चा आगे न बढ़ा पाने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।

Saturday, May 30, 2009

वर्ण व्यवस्था: दो शब्द

इस सप्ताह मैं ब्राह्मण/सरयूपारीण व्यवस्था का जन्म के विषय में वार्तालाप का प्रारम्भ करना चाह रहा था। सौभाग्य से मुझे विलियम क्रूक की "दा ट्राइब्स एंड कॉस्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविन्सस एंड अवध" एवं एम ऐ शेर्रिंग की "हिंदू ट्राइब्स एंड कॉस्ट एज रेप्रेजेंटेड इन बनारस" की पाण्डुलिपि भी गूगल बुक्स के माध्यम से प्राप्त हो गई हैं। अभी इन पुस्तकों का अध्धयन कर रहा हूँ। किंतु पिछली कुछ चर्चाओं में मेरे इस प्रयास को जातिवादी रूप में देखने के आभास मिले तो मन उदिग्न हो गया... जो लिखना चाह रहा था छोड़कर मूलतः "ब्राह्मण जातिवादी होगा और वैमनस्य बढ़ाने वाली व्यवस्था नहीं हैं" के विषय में सोचने लगा...

प्रसंगवश, मुझे गुलजार की एक कविता "छाँव-छाँव" याद आती हैं -
मैं छाँव-छाँव चला था अपना बदन बचाकर कि रुह को एक खूबसूरत-सा जिस्म दे दूँ
मगर तपी जब दोपहर दर्दों की, दर्द की धूप से जो गुज़रा
तो रुह को छाँव मिल गयी हैं
अजीब हैं दर्द और तस्कीं का साँझा रिश्ता मिलेगी छाँव तो बस कहीं धूप में मिलेगी


ठीक इसी प्रकार श्रम-विभाजन एवं सामाजिक स्थिरता के महती उद्देशों से प्रेरित आर्यवर्त में वर्ण व्यवस्था का अभिर्भाव हुआ होगा । कुछ समय तक इसके वास्तविक रूप का पालन भी हुआ होगा। साथ ही प्रारंभिक रूप और भावना को जीवंत रखने का भी प्रयास भी हुआ होगा किंतु समय के साथ इसमे व्यतिगत स्वार्थ, शक्ति लोलुपता, झूठे अहम् और अज्ञानता के कारणों से शोषण, द्वेष, वंशवाद जैसे अवसाद आ गए। किंतु आज इन्ही अवसादों के कारण उस मूल -आधारभूत कारकों को समझना आवश्यक हैं जिनके फलस्वरूप इस व्यवस्था जन्म हुआ। साथ अवसादों की धूप से ही उन कारको की छाँव का महत्व उजागर हो पायेगा।

वर्ण व्यवस्था मूलतः न तो जन्मगत हैं और न ही शोषणात्मक व्यवस्था। किसी भी समाज की स्थिरता के लिए उसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामूहिक निर्भरता दोनों ही सुनिश्चित करनी होती हैं (गाँधी जी, दा वर्ड्स ऑफ़ गाँधी)। वर्ण व्यवस्था का स्थायित्व उसकी इन्ही दोनों मापदंडों पर सफलता का द्योतक हैं।

यह व्यवस्था सहस्राब्दियों से चली आ रही हैं। यदि यह व्यवस्था प्रारम्भ से ही एक भी वर्ग के शोषण का कारक होती तो इसके विरूद्व सदियों पहले विद्रोह हो चुका होता। यदि समाज का एक विशालकाय भाग शोषित होता तो उसने इस व्यवस्था के विरूद्व विद्रोह किया होता। मनु के नियमो में यदि सभी वर्गों के उत्थान की भावना नहीं होती तो इनका विस्तार और अनुमोदन सम्पूर्ण आर्यावर्त में नहीं होता और यदि होता भी और यदि यह व्यवस्था शोषणात्मक और विद्वेषपूर्ण होती तो इसके विरोध में स्वर अवश्य हो प्रखर होते.... इस व्यवस्था का वर्त्तमान रूप अवश्य ही बाह्य समाज के मेलजोल से उत्पन्न हुआ होगा। समाज के कर्मगत रूप को देखते हुए ही १८ शताब्दी तक इन वर्णों में जनजातियों से लोग जुड़ते रहे साथ ही इस वर्ण के लोग दुसरे वर्ण में जाते रहे हैं।

इतिहास साक्षी हैं कि कोई भी वर्ग विशेष या व्यवस्था जन समूह को दबाकर, शोषण करके अधिक समय तक नहीं चल पाई हैं ... चाहे वो फ्रांस की जनक्रांति हो, या रूस का ज़ार के विरूद्व विद्रोह या अमेरिका की स्वतंत्रता प्रेमी समुदाय। रंगभेद की नीति, गुलाम प्रथा इन सभी के विरूद्व एक जनादोलन हुआ। यहाँ तक कि साम्यवाद के शोषणात्मक पहलू के कारण उसकी सामूहिक उत्थान की भावना की अनदेखी करके भी जन साधारण ने उसका तिरस्कार कर दिया। अंग्रेज भी अपने अथक प्रयासों के बाद भी भारत पर २०० वर्ष से ज्यादा पाँव नही टिका पाए क्योकि उनके साम्राज्य में सभी को उत्थान के सामान अवसर नहीं प्राप्त थे। ऐसे में एक व्यवस्था कम से कम ५००० वषों से यदि स्वं को जीवित रखे हुए हैं तो अवश्य ही उसमे सभी वर्णों के लिए अग्रसारित होने के अवसर रहे होंगे। अतः यह वर्ण व्यवस्था के दीघ्रकालिक स्वरुप से ही सिद्ध हो जाता हैं कि इसमें सामाजिक वैमनस्य, विद्वेष अथवा शोषण का कोई स्थान नहीं रहा होगा।

इतना अवश्य हैं कि कई स्थानों पर इस व्यवस्था को अपनी (झूठी) श्रेष्टता सिद्ध करने के लिए (या अपने अज्ञान या स्वार्थ के कारण ) कई वर्गों ने ,जिनमे क्षत्रिय, ब्राह्मण सम्मिलित हैं, ग़लत रूप से प्रयोग किया। इस पर मुझे गाँधी जी का कथन याद आता हैं - "...आजकल सभी नैतिकता पर अपना अधिपत्य ज़माने लगें वो भी बिना किसी स्वध्धाय, आत्म अनुशासन के... शायद यही कारण हैं आज विश्व में फैली असत्यता (अराजकता ) का ...." । संभवतः वर्ण व्यवस्था के तथाकथित कुछ प्रतिनिधियों ने भी यह ही किया हो जिस कारण यह व्यवस्था अपने मूल उद्देशों से विमुख हो गयी हो ...पर ये भी सत्य हैं कि इस प्रकार के व्यवहार पिछले कुछ शताब्दियों में ही हुआ हैं। पर जो भी हो यह तो सभी प्रबुद्ध जन मानेगे कि किसी मनुष्य का शोषण करके कोई भी भद्र जीव गौरान्वित नहीं हो सकता। ब्राहण व्यवस्था के इसी ह्रास से द्रवित होकर मैथली शरण गुप्त ने कहा था -

प्रत्यक्ष था ब्राह्मत्व तुममें यदि उसे खोते नहीं -
तो आज यों सर्वज्ञ तुम लांछित कभी होते नहीं

आज यह और भी आवश्यक हो जाता हैं कि हम आत्म मंथन करें... कोशिश करे यह समझने की कि वे क्या कारण थे जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को स्थायित्व दिया। आज हम कहाँ भटक गए हैं... जहाँ तक विश्लेषण का प्रश्न हैं यह तो सभी को व्यक्तिगत रूप से करना होगा किंतु मैं वर्ण व्यवस्था का शास्त्रीय और एतिहासिक रूप अपने ज्ञान के अनुसार रखने का प्रयास करूँगा।

अब ब्राह्मण जन्म गाथा की चर्चा अगले माह (जून) ही शुरू करूँगा लेकिन उससे पहले "ब्राह्मण व्यवस्था (वर्ण व्यवस्था)" पर अपने विचार प्रस्तुत करना चाहूँगा। आशा हैं आप मेरे इस भटकाव को क्षमा करेंगे। साथ ही इस विषय पर अपने उर्जावान एवं विविध विचारो से चर्चा को सार्थकता प्रदान करेंगे। तुलसीदास जी के शब्दों में कहना चाहूँगा....
मति अति नीच ऊँचि रूचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरी ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥

उदिग्न हृदय किंतु विचारमग्न ....

आपका स्नेहाकांक्षी,
सुधीर

Saturday, May 23, 2009

दैनिक हिन्दुस्तान के रविश जी को एक खुला पत्र.

आदरणीय रविश जी,

सहर्ष अभिनन्दन। सर्वप्रथम मैं आपका आभार व्यक्त करना चाहूँगा - मेरे इस प्रयास का संज्ञान लेने और इसके सम्बन्ध में अपने विचारों का प्रकाशन के लिए। आपके विचार, यूँ तो १३ मई २००९ के दैनिक हिन्दुस्तान संस्करण में प्रकाशित हुए किंतु उसके विषय में मुझे इस ही सप्ताहांत में पता चला। सौभाग्यवश मेरे एक शुभेक्छु ने ऑनलाइन प्रिंट संस्करण से उस विवेचन (कमेंट्री) की एक प्रति सुरक्षित रख ली थी (देखें)। उस लेख को पढ़कर लगा कि कई मसलों पर मुझे अपने विचार स्पष्ट करने चाहिए पर साथ ही यह सोचकर हर्षानुभूति भी हुई कि "बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा" ।

गाँधी जी ने कहा था कि (अपने धरोहर और परम्पराओं का) सच्चा ज्ञान नैतिक सामर्थ्य और स्थायीत्व प्रदान करता हैं। मैंने इस चिठ्ठे का प्रारम्भ इसी आस्था के साथ किया था। जहाँ तक इस चिठ्ठे की यदुकुल के पोर्टल से समानता हैं वो केवल वर्ग विशेष पर आधारित नाम के साथ समाप्त हो जाती हैं । यदुकुल जहाँ एक वर्ग विशेष के लिए सामाजिक मेलजोल बढाने के लिए समर्पित हैं (जिसका स्पष्टीकरण वे अपने मूल पृष्ट पे ही कर देते हैं) वहीं सरयूपारीण एक स्वान्वेषण का प्रयास हैं। इस प्रयास में मैं सभी बुद्धिजीवियों का सानिध्य चाहता हूँ। एक अपेक्षा हैं कि इस विश्लेषण की समीक्षा सभी वर्गों के प्रतिनिधियों के सहयोग से तैयार होगी। जहाँ तक मेरी खोज हैं वो तो संसाधनों की उपलब्धता से सीमित हैं किंतु पाठक जगत के विशालकाय ज्ञान सिन्धु और गंभीर चिंतन से एक सार्थक, सम्पूर्ण, सारगर्भित, विश्वसनीय और तथ्वात्मक लेख-कोष का निर्माण होगा - यही आशा हैं। साथ ही वंश परम्परा के अनुसरण का प्रयास भी, आजकल कि यायावर जीवन शैली में बिना सहयोग के किन्चित मात्र भी सम्पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकती। यह जड़ों के खोज का प्रयास प्रथम दृष्टया जातिवादी लग सकता हैं किंतु एक निष्पक्ष विश्लेषण प्राचीन ज्ञान व्यवस्था के वैज्ञानिक आधार के अन्वेषण की तृष्णा को अवश्य ही उजागर करेगा।

जहाँ तक मेरे चिठ्ठे पर ब्राह्मणों के टिपण्णी का प्रश्न हैं- मैं समझता हूँ की वंश परम्परा ढूँढने की सांझी -इच्छा और योगदान की चाहत और साथ में यह मार्ग-दर्शन की कामना और शुभेच्छा हो सकती हैं। वैसे हर वर्ग का आशीष चाहिए। जब मैं खादियापार (अपने पैतृक ग्राम) के विषय में लिखना प्रारम्भ करूंगा तो साथ ही मेरे पूर्वज और ग्राम संस्थापक स्वर्गीय श्री पलटन बाबा और एक उनके मित्र (जोकि तेली थे) की मित्रता की भी बात करूँगा। इस गाँव में आज भी ये दोनों समुदाय बिना किसी विद्वेष और वैमनस्य के रहते हैं।

आपके द्वारा साईबर ब्राह्मण की कामना .... हाँ! साईबर ब्राहमणों का आगमन तो हो ही चुका हैं। कर्मगत आधार पर भारत वर्ष के द्वारा जो परचम लहराए गएँ हैं वे सभी तो साईबर ब्राह्मण की ही तो देन हैं.... चाहे वो अजीम प्रेम जी हो या सब्बीर भाटिया... (जन्मगत आधार पर तो यह वर्ग प्रस्तावित नहीं हैं, जैसे जोशी जी से मिलकर आपको लगा)।

बोस्टन ब्राह्मण के विषय में कुछ तथ्य.... जिस प्रकार आप को, एक सामाजिक रूप से प्रबुद्ध वर्ग जो तत्कालीन विषयों पर अपने विचार (निष्पक्ष रूप से) निर्भय हो कर संगणक के माध्यम से सबसे कह सके , के लिए साईबर ब्राह्मण नामकरण करने की प्रेरणा हुई ठीक उसी प्रकार डॉ ऑलिवर वेन्डेल सीनियर को जब बोस्टन में प्रतिष्ठित संभ्रांत वर्ग को परिभाषित करने के लिए एक नाम की आवश्यकता हुई तो उन्होंने "बोस्टन ब्राह्मण" शब्द का इस्तेमाल किया। पिछले अमेरिकी चुनावों में सेनिटर जॉन कैरी के लिए इस शब्द का इस्तेमाल काफी खुल के हुआ। डॉ ऑलिवर वेन्डेल पेशे से एक चिकित्सक और लेखक थे। सर्वप्रथम इस शब्द का उपयोग १८६० में "अटलांटिक मंथली" नामक पत्रिका के जनवरी संस्करण में डॉ वेन्डेल ने अपने लेख 'दा प्रोफ़ेसरस स्टोरी' (The Professor's Story) में किया था। बाद में उन्होंने अपने नावेल "दा ब्राह्मण कास्ट ऑफ़ न्यू इंग्लैंड (The Brahmin Caste of New England)"में भी इस शब्द का प्रयोग बोस्टन और न्यू इंग्लैंड के संभ्रांत वर्ग के लिए किया। कालांतर में यह शब्द व्यापक सन्दर्भ में सारे न्यू इंग्लैंड के उच्च वर्गीय संभ्रांतों के लिए प्रयुक्त होने लगा। सामान्यतः यह वर्ग अति शिक्षित (मूलतः हारवर्ड के संस्थागत विद्यार्थी ),सामाजिक रूप से उदार और चिंतनशील लोगों का समुदाय था। यह लोग प्रभावशाली वर्ग कला, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान और तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्था के संरक्षक थे। यह समुदाय तो स्वमेव रूप से भारत की प्राचीन परम्परा से प्रभावित था।

रवीश जी, आज तो भारत में भी कोई ब्राह्मण कहलाना पसंद नहीं करता (देखें, स्पष्ट कर दूँ कि मैं इस विडियो विचारों से पुर्णतः सहमत नहीं हूँ) तो विदेशों में कहाँ से मेक्सिको या जार्जिया ब्राह्मण कहाँ से आयेंगे ? किंतु यदि हम ब्राह्मण व्यवस्था को सही रूप से समझे और उसका पालन करें तो कोई निश्चय ही हर घर में, हर गली में और हर हाट पर स्वं को सगर्व ब्राह्मण कहते हुए लोग मिल जायेंगे। आपका साईबर ब्राह्मण का स्वपन इतना विस्तृत हो जाएगा कि आप विज्ञान ब्राह्मण, अर्थशास्त्र ब्राह्मण, दर्शन ब्राह्मण न जाने कितने ब्राह्मणों से ख़ुद को घिरा हुआ पायेंगे ।

अंत में, इस आशा के साथ इस पत्र को समाप्त कर रहा हूँ कि मेरे सारे चिठ्ठों को (विशेष रूप से इस चिठ्ठे को) भविष्य में भी आपकी समीक्षा का लाभ और आशीष मुझे मिलता रहेगा।

सादर,

विशेषानुरोध : कृपया अगली समीक्षा के विषय में मुझे भी सूचित करेंगे तो हर्ष होगा।

Sunday, May 17, 2009

ब्राह्मण: एक परिचय (भाग ३) - वर्तमान परिवेश में ब्राह्मण

चर्चा प्रारम्भ करने के पूर्व कुछ विचार पिछली चर्चा से - मैंने कर्म श्रेष्टता के आधार पर नेतृत्व करने वाले ब्राह्मण वर्ग के विस्मरण एवं कालांतर में जन्म की व्यवस्था के आधार पर उनके वर्गीकरण और वर्तमान में उनके सामाजिक तिरस्कार की बात करनी चाही थी। संभवतः मेरे शब्दों ने विचारों का प्रतिबिम्ब अपेक्षित रूप से साकार नहीं किया। किंतु इष्ट देव सांकृत्यायन जी का मैं अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने मेरे शब्दों का उचित विश्लेषण प्रदान किया। साथ ही में उन सभी श्रद्धेय टिपण्णीकर्ताओं का धन्यवाद करना चाहूँगा जिन्होंने मेरे मार्गदर्शन हेतु अपना विरोध या अपना समर्थन देकर इस मंच को सार्थकता दी। गाँधी जी ने एक बार कहा था कि पूर्ण शान्ति सागर का नियम नहीं हैं। और यह नियम जीवन के सागर के लिए भी सत्य हैं" (दा वर्ड्स ऑफ़ गाँधी - रिचर्ड अटटेनबोरो १९८२)। मैं यही बात वैचारिक सागर के बारे में भी कहना चाहूँगा और आशा करता हूँ कि आप सभी भविष्य में भी अपनी वैचारिक लहरों से इस सागर को जीवंत रखेंगे। अपने अग्रज अरविन्द मिश्रा जी के श्रवण-आश्वासन और आगे बढ़ने के आदेश के अनुपालन हेतु अब आज की चर्चा....

वर्तमान परिवेश में, संभवतः, अपने ह्रास होते पुरातन ज्ञान से उपजे क्षोभ, अपने अनादर और उपेक्षा की पीड़ा और साथ ही बढ़ते भौतिकवादी समाज में अध्यात्मिक ज्योति को प्रज्वलित रखने की कशमकश ने ब्राह्मणों को अति रूढिवादी और कर्मकांडी बना दिया। अपने स्वाभिमान और ज्ञान की रक्षा करते-करते कब यह वर्ग मानववादी रूप को छोड़ करे जातिगत विद्वेष और घृणा का अनुगामी हो गया कहा नहीं जा सकता किंतु इतना तो अवश्य ही अनुमानित किया जा सकता हैं कि अवैदिक समाजो और सभ्यताओ के प्रभाव और उनके विरूद्व अपने संस्कारों और अपने अस्तित्व के संघर्ष ने ही इस परिवर्तन को जन्म दिया होगा। परमहंस योगानन्द जी ने भी (वर्तमान) सामाजिक वर्गीकरण के इस रूप को अवैदिक ही माना हैं (कोन्वेर्सशन्स विथ योगनान्दा, क्रिस्टल क्लारिटी पब्लिशर्स , २००३ )।

आधुनिक समाज में नित्य उभरते ज्ञान के तुषार कणों को अपने वैदिक ज्ञान के असीम क्षीर-सागर के मध्य ढूँढने के स्थान पर उनके विरोध ने ही मानवीय मूल्यों के उपासको को मानसिक श्रेष्टता से च्युत कर दिया। वेदों में भी कहा गया हैं - "अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः। दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढाः अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा: ॥" अर्थात् अज्ञानता के अन्धकार में और सर्व-ज्ञानी होने के दंभ के साथ मुर्ख (छद्म ज्ञानी) दूसरो को राह दिखाते हुए उस प्रकार दुष्चक्र में फंसते हैं जैसे एक नेत्रहीन दुसरे नेत्रहीन को मार्ग दिखाते हुए गर्त में जा गिरता हैं।

सत्य यह हैं कि प्राचीन काल में दासी तनय नारद और धीमर-सुत व्यास (यहाँ 'धीमर' शब्द कर्मगत आधार पर प्रयुक्त हैं) प्रभृति ऋषि कहलाये क्योंकि उन्हें सत्य धर्म का साक्षात्कार हो गया था (कृपया ध्यान दे जन्म व्यवस्था यहाँ नगण्य हैं)। किंतु आज का ब्राह्मण वर्ग (कर्मणा या जन्मणा -किसी भी मापदंड से) दिग्भ्रमित होकर यज्ञोपवीत धारण करने के महती संकल्प को भुलाकर अपने सामाजिक, नैतिक और अध्यात्मिक दायित्वों से विमुख हो गया हैं। वास्तव में गीता ने ब्राह्मण के कर्म की परिभाषा देते हुए कहा हैं कि "शमोदमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानं अस्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥ " अर्थात् ब्राह्मण को तो अंतःकरण का निग्रह, इन्द्रियों का दमन करते हुए (मानव) धर्म के लिए कष्ट सहते हुए, आंतरिक एवं बाह्य (मानसिक एवं सामाजिक) शुद्धता के साथ परदोषों को क्षमा करते हुए, मन इन्द्रियों और शरीर को सरल (व्यवहारगत सरलता) रखते हुए वेद, शास्त्र (ज्ञान) और ईश्वर में श्रद्धा करते हुए उनका अध्ययन -अध्यापन करना चाहिए। आज हर यथोचित क्षेत्र में समाज को नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता पुनः प्राप्त करने के लिए ब्राह्मण वर्ग को ऋषित्व (श्रेष्टतम मानवता संरक्षक) पाने का प्रयास करना होगा।

यह समय केवल हरिजनों के उत्थान का ही नहीं वरन ब्राह्मणों के भी जागरण का हैं। "उत्तिष्ट जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। " - स्वामी विवेकानंद के शब्दों में आज के ब्राह्मण वर्ग से कहना चाहूँगा - "उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रूको। अपने ज्ञान और कर्मगत गुणों से विमुख ब्राह्मण उसी प्रकार निस्तेज रहेंगे जैसे असंख्य जुगनुओ का समूह मिल कर भी दिन का प्रकाश नहीं कर सकता। कर्मकांडों में लिप्त तथा अपने धर्म और ज्ञान से दूर ब्राह्मण समाज की दशा चन्दन धोते हुए गर्धभ सी हो जायेगी जिसे अपनी पीठ पर लादे चंदन के मूल्य का आभास भी नहीं हैं (किंतु उसके बोझ से पीड़ित अवश्य हैं) - "यथा खरश्चंदनभारवाही भारस्य वेत्ता न तू चन्दनस्य।"

मानव सभ्यता के गगन पर दैदीप्यमान सूर्य की तरह चमकने के किए सभी वर्णों के उत्थान की कामना के साथ ब्राह्मणों को भी अपने पुरातन कर्मोंमुख ज्ञान की साधना करनी होगी जिससे आर्यावर्त पुनः जगत श्रेष्टता प्राप्त कर सके। किसी ने सत्य ही कहा हैं - यदि ब्राम्हण जागेगा तो राष्ट्र जागेगा, विश्व जागेगा - क्योकि जन-जागरण सदैव से ही ब्राह्मणों का कर्तव्य रहा हैं। यदि अपने इस ज्ञान के आभाव में ब्राह्मण निस्तेज हुआ तो राष्ट्र निष्प्राण हो जाएगा अतः ब्राह्मणों को न केवल अपने रूढिवादी अज्ञान की केचुल को उतार कर सर्व-समाज के साथ समरसता की किरण जागते हुए नवोदय करना होगा बल्कि (राष्ट्र निर्माण और मानव उत्थान के लिए) अपने पितामह ब्रह्मा की तरह सृजनात्मकता धर्म का पालन करना होगा।

इतिहास साक्षी हैं कि समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए ब्राह्मण ने त्रेता में वशिष्ठ बनकर राम को, द्वापर में संदीपनी बनकर कृष्ण को, कलयुग में चाणक्य बनकर चन्द्रगुप्त को निखारा हैं। आवश्यकता पड़ने पर "अश्वस्थामा" का बलिदान करके "अर्जुन" को संवारा हैं तो दूसरी ओर परशुराम कर सहस्रबाहु जैसे आतातायी का विनाश भी किया हैं। दिनकर जी के शब्दों में....
सहनशीलता को अपनाकर, ब्राह्मण कभी न जीता हैं।
किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान हलाहल पीता हैं॥


अतः आज के ब्राह्मण को भी अपनी इस परम्परा को कायम रखने के लिए एक संगठित, जागृत और तेजस्वी वर्ग के रूप में उभरकर श्रेष्ट राष्ट्र निर्माण एवं समन्यव मूलक राष्ट्र के लिए संकल्पबद्ध होना होगा यही मेरी कामना हैं। वैसे तो कल्पों, युगान्तरों से चली आ रही इस महती ब्राह्मण परम्परा के परिचय पूर्णता सहस्र ग्रंथों में भी नहीं समेटी जा सकती किंतु मैंने तीन अंकों के इस चिठ्ठे में अपने विचारो और स्वानुभूत आधार इसे कुछ अंशों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया हैं। अंत में, मैं राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त के आवाहन से इस चर्चा को समाप्त करना चाहूँगा -
हे ब्राह्मणों! फ़िर पूर्वजो के तुल्य तुम ज्ञानी बनो,
भूलो न अनुपम आतम-गौरव, धर्म के ध्यानी बनो ।
करदो चकित फ़िर विश्व को अपने पवित्र प्रकाश से ,
मिट जाए फ़िर सब तम तुम्हारे देश के आकाश से ॥
(भारत भारती)


सादर,


Sunday, May 10, 2009

ब्राह्मण: एक परिचय (भाग २)

गतांक से आगे ...

सर्वप्रथम मैं सभी प्रबुद्ध पाठकों का उत्साह वर्धन के लिए आभार प्रगट करना चाहूंगा। वैसे भी कहा गया हैं कि "दुर्लभम् त्रयमेवैतात् देवानुग्रह्हेतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः ॥" अर्थात् मनुष्य जीवन, मोक्ष कमाना और महापुरुषों का साथ दुर्लभता और देवकृपा से ही मिलता हैं। साथ ही आपने उन सहयोगियों को भी आश्वस्त करना चाहूँगा जिन्होंने हुसैनी ब्राह्मणों के विषय में अधिक जानकारी मांगी हैं, आगे इस विषय पर भविष्य में कुछ अवश्य ही प्रकाशित करूँगा। किंतु अभी पिछली चर्चा को आगे बढ़ते हुए - ब्राह्मण-परिचय

ब्राह्मण शब्द की उत्पति संस्कृत के ब्रह्म शब्द से हैं। इस सन्दर्भ में ब्रह्म का अर्थ हैं ज्ञान अतः ब्राह्मण उस ज्ञान को अर्जन करने रत व्यक्ति। ब्रिटैनिका में ब्राह्मण शब्द की परिभाषा दी हैं - "पोस्सेस्सर ऑफ़ ब्रह्म" (Possessor of Brahma)। तदुपरांत उसे सामाजिक व्य्स्वस्था के आधार पर परिभाषित किया गया हैं। इस दृष्टि से देखे तो भी ब्राह्मण या तो उस (ब्रह्म रुपी) परम सत्य और ज्ञान का रक्षक और वाहक हैं। और कोई भी व्यक्ति (जन्म व्यवस्था के बिना) भी ब्राह्मण हो सकता हैं।

आचार्य मुक्तिनाथ शास्त्री ने ब्राह्मणत्व को समझाते हुआ कहा हैं कि "यदि ब्राह्मण शब्द का लाक्षणिक अर्थ हैं "भू-देव" तो वह "जगद्-गुरुत्व" के "राष्ट्र देवो भावः" की शास्वत परिभाषा को मुखरित करता हैं क्योंकि जिस प्रकार द्विजराज चंद्रमा भूतल से लेकर अन्तरिक्ष तक सुधामयी किरणों को बिखेरते रहते हैं, उसी प्रकार यह द्विज (ब्राह्मण) भी ज्ञान, सदाचार, और संस्कार की शीतल किरणे सम्पूर्ण मानव जाति के हितार्थ बिखेरते रहते हैं।" ब्रह्म का अर्थ ज्ञान हैं तो ब्राह्मण को संकुचित क्षेत्र में बंद करना अन्यायपूर्ण होगा। क्योंकि ऐसा करने से "वसुधैव कुटुंबकम्", "सर्वेभवन्तु सुखिनः", "स्वदेशो भुवानात्रयम्", राष्ट्रे वयं जागृयामः", और संस्कार-संस्कृति की सुरक्षा दायित्वों की मर्यादा कायम रखने के उद्देश से ब्राह्मण विचलित हो जाएगा। संभवतः अपनी इसी वैश्विक दर्शन और सोच के कारण ही भागवत में ब्राह्मणों का आवाहन करते हुए कहा गया हैं "ब्राह्मणस्य हि देहोयम्। क्षुद्र -कामाय नेष्यते ॥" अर्थात् ब्राह्मण का शरीर (मानसिक एवं सामाजिक मापदंडो में) तुच्छ और हीन कार्य के लिए नहीं मिलता।

आज सामाजिक न्याय और धरमनिर्पेक्षता के नाम पर हिंदू विचारधारा और विशेष रूप से ब्राह्मणों की उपेक्षा का दौर चला हैं वो विचारणीय हैं। हमारे नेता और उनकी तथाकथित आधुनिक सोच ने ब्राहमणों के साथ जन्मना आधार पर भेदभाव करके वर्षो से चली आ रही उनकी कर्मणा गरिमा को नकार दिया। इस स्थिति में मुझे किसी कवि की यह पंक्तिया याद आती हैं....

धेनु द्विज ऋषि मुनि सशंकित,
अवतरण हो परसुधर का।
शस्त्र-शास्त्रों से सजे
फ़िर शौर्य भारत वर्ष का ॥
दमन अत्यचार पर
फिर गिराएँ गाज ऐसी ।
गगन कांपे धरा दहले,
दामिनी दमके प्रलय सी॥
अपने प्राणों से देश बड़ा होता,
हम मिटते हैं तो राष्ट्र खड़ा होता हैं।
नित्य पूजित ब्राह्मण न हुए तो,
ज्ञान बीज कहाँ से आएगा ?
धरती को माँ कहकर ,
"वसुधैव कुटुम्बकं" का घोष कौन दोहराएगा ?

सामाजिक न्याय के नाम पर सामाजिक समरसता की जिस प्रकार अनदेखी की गयी उससे समाज में ब्राह्मण का अस्तित्व भी खतरे में दिखता हैं। शायद इसी कारण श्री रामकृष्ण हेगडे ने "ब्राह्मणों को भी अल्प संख्यक" कहा था (साप्ताहिक हिन्दुस्तान, जनवरी ११, १९८७)। स्वामी विवेकानंद ने भी आदर्श राष्ट्र की परिकल्पना करते हुए कहा था कि आदर्श राष्ट्र के लिए पुरोहित का ज्ञान, योद्धा की संस्कृति, व्यापारिक वितरणशीलता और अंतिम वर्ण को समता अत्यन्त अवश्यक हैं। इसके लिए सभी वर्णों को अपने पूर्वाग्रहों का परित्याग करके एक राष्ट्र की कमाना से एक दुसरे का आलिंगन करना होगा क्योंकि

"खुबसूरत हैं हर फूल मगर उसका, कब मोल चुका पाया हैं सब मधुबन?
जब प्रेम समर्पण कर देता हैं अपना, सौंदर्य तभी कर पाता निज दर्शन।"
(गोपालदास नीरज, "नीरज की पाती")

...शेष चर्चा, वर्तमान परिवेश में ब्राह्मण, अगले सप्ताह

Saturday, May 2, 2009

ब्राह्मण: एक परिचय (भाग १)

सरयूपारीण ब्राह्मणों की व्यवस्था समझने से पहले ब्राह्मण शब्द और उसके व्यापक सन्दर्भ को समझना अत्यन्त आवश्यक हैं। सामाजिक रूढियों और उससे जन्मे विद्वेष से आज ब्राह्मणत्व और उसके आदर की बात जातिवादी दंभ से जोड़ दी जाती हैं। किंतु मूल रूपेण ब्राह्मण कौन हैं? क्या मंदिरों और मठो में बैठकर कर्मकांडों के बल पर जीवनोपर्जन करे वाले या काल, राष्ट्र और मानवता के उत्थान में सर्वथा कर्मशील युगपुरुष...जीवन की क्षण-भंगुरता के मर्म को समझकर घर घर में जाकर भिक्षां देहि की पुकार लगाने वाले जन या "ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत" के संदेश से उसी क्षण-भंगुरता का परिहास उडाते प्रबुद्ध चिंतनशील जीव ....जीवन के हर रूप को समझने के लिए ज्ञान के सागर ने डूबने के लिए दुबारा जन्म लेने तत्पर द्विज....

ब्राह्मणों की पौराणिक उत्पत्ति की गाथा की चर्चा हम आने वाले चिठ्ठों में करेंगे किंतु आज ब्राह्मणों से संबंधित कुछ विचार...ब्राह्मण शब्द को सोचते ही सर्वप्रथम हिन्दुत्व की रूढिवादी जातिप्रथा उभरकर आती हैं। किंतु भारत में जन्मी जातिप्रथा और विश्व में कई स्थानों जैसे मिस्र, यूनान में दास प्रथा, सभी मानव के विकास-क्रम श्रम की महती आवश्यकता के कारण उपजी (नेहरू , भारत एक खोज )। श्रम अधारित यह व्यवस्थाएं कब जन्माधारित हो गयीं पता नहीं। पर यह तो तय हैं कि आर्यों के सामाजिक विकास में सभी वर्णों का बराबर का योगदान रहा हैं, जिस प्रकार कोई भी चारपाई तीन पैरों के बल पर किसी काम की नहीं होती वैसे ही हमारी सामाजिक स्थिरता की चारपाई भी अपनी साफलता हेतु सभी वर्णों पर बराबर निर्भर हैं। सभी जीवों में पूर्ण ब्रह्म रूप देखने वाले "पूर्णमदः पूर्णमिदं" के प्रणेता वैदिक ब्राह्मण कब कालांतर में कर्मकांडी होकर मनुस्मृति के आधार शीशे घोलने लगे पता नहीं। (वैसे मैंने मनु-स्मृति नहीं पढ़ी हैं किंतु मन कभी यह मानने के लिए तैयार नहीं की कोई भी भद्र जीव दुसरे जीव के प्रति इतना असहिष्णु होगा)। "वसुधैव कुटुम्बकं" का प्रथम उद्घोषक ब्राह्मण मुख्य रूप से सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने वाली व्यवस्था में विश्वास नहीं रख सकता हैं। दलाई लामा ने अपनी पुस्तक "दा आर्ट ऑफ़ हैप्पीनेस" में कहा हैं कि कोई भी धर्म सामाजिक विघटन का समाधान हैं न कि उसके विघटन का आधार। अतः इस मानव वादी धर्म के रक्षक के रूप में डटे ब्राह्मण कदापि भी विघटनकारी व्यवस्था के समर्थक नही बने रह सकते।

यह ब्राह्मणों का निष्कपट, निर्पंथ, निर्मल, शांत प्रिय, आत्म-संयामी, सत्य-अन्वेषी एवं ज्ञान पिपासु स्वभाव ही रहा होगा जिसने डॉ. ऑलिवर वेन्डेल होल्म्स सीनियर को अपने समाज के संभ्रांत सदस्यों के लिए "बोस्टन ब्राह्मण" जैसे शब्दों के चयन को मजबूर किया होगा। ब्राह्मण सदैव ही सत्य एवं ज्ञान की रक्षा के लिए तत्पर रहें हैं - चाहे वो वैदिक मीमांसा हो, या रावण रचित गणित सूत्र या फिर चाणक्य द्वारा राष्ट्र निर्माण ...यहाँ तक कि ब्राह्मणों ने हिदुत्व के बहार निकलकर बौध , जैन , सिख और इस्लाम (हुसैनी ब्राह्मण के रूप में ) सत्य की रक्षा की हैं।

(.....शेष अगले चिठ्ठे में )

Sunday, April 26, 2009

प्राक्कथन

इस चिठ्ठे की उत्त्पति मेरे इस एहसास के साथ हुई कि हम किस प्रकार विदेशों में रहते हुए अपने आने वाली पीढियों को उनके पुरखों के बारे में बताएँगे? सहस्र युगों, कल्पों से चली आ रही इस परम्परा को किस प्रकार आर्यावत से बाहार जम्बू द्वीप से सप्त-सागरों की दूरी पर बसी इस धरती पर पलने -बढ़ने अपने वंशजों को समझा पाएंगे। कहीं यह धरोहर हम खो न दे। इसको संजोने और इसको अग्रसर करने कि महती जिम्मेदारी हम पर ही तो हैं।

आजकल जब लोग विभिन्न वेबसाइटओं, शास्त्रों (वाचनालयों ) और प्रवासन अभिलेखों में अपने पुरखों को ढूंढते हैं और उनका कोई भी सन्दर्भ मिलने पर गौरान्वित महसूस करते हैं। यह सन्दर्भ, चाहे वो अमेरिका, कैरेबियन में गुलामी के दलदल से हो या फिजी और अमेरिकी देशों में बंधुआ मजदूरों के हो या फिर ऑस्ट्रेलिया में अपराधी पूर्वजों के, अपनी वतमान पीढियों को अपनी जड़ें मिलने पर वैसे ही अपार सुख देते हैं जैसे कि कारू का खजाना मिलने पर किसी निर्धन को...क्या हम अपनी अल्पज्ञता से अपनी आनेवाली पीढियों को इस सुख से वंचित कर देंगे। वैसे भी हमारे अप्रवास के कारण हमारी संताने विदेशों में अलग ही पहचान के साथ पलेंगी -ऐसे में अपनी इतिहास का ज्ञान उन्हें अपने संस्कारों और संस्कृति से जोड़कर रखेगा। ऐसा करने से वे अपने वर्तमान परिवेश के साथ अपनी पुरातन संस्कृति और हमारे रीति-रिवाजों को बेहतर समझ पाएंगे। अन्यथा वे इन रीति रिवाजों को किसी आदिम प्रथा का दर्जा देकर नकार देंगे। वैसे भी वो ही पीढियां पनपती हैं जो वर्तमान का बोध रखकर, इतिहास को समझते हुए भविष्य का सपना संजोये।

मुझे स्वं अपनी इस अल्पज्ञता का आभास तब हुआ जब मेरे यज्ञोपवीत के समय मुझे अपनी सात पीढियों के नाम के लिए और फिर गोत्र, प्रवर और शाखा के लिए पिताजी से पूंछना पड़ा। मैंने तब ही से अपनी वंशावली को समझने का प्रयास शुरू कर दिया। मेरी यह हालत तो भारत में ही थी (और मुझे बहुत विश्वास हैं कि कतिपय अधिकांश भारतीय नवयुवकों को आज भी इस बातों का ज्ञान न हो)। कुछ समय तक इस विषय पर ज्ञानार्जन करने के पश्चात् मेरी अधजल गगरी खलकत जाए वाली स्थिति हो गई थी। मुझे अपने धरातल का एहसास हुआ अपनी शादी के दौरान - खिचडी की रस्म के दौरान, मेरी पत्नी के गाँव से आई एक दादी ने मुझसे हमारे पाण्डेय वंश की जानकारी मांगी - कि क्या हम चारपानी -भास्मा के पाण्डेय हैं...मेरे लिए तो यह दोनों नाम ही अपरिचित थे... भला हो मेरे फुफेरे भाई का जिसने उस प्रश्न का उत्तर दे दिया । (तथा मेरे भी ज्ञान का वर्धन किया)


मेरे पुत्र के जन्म के दौरान मैंने अपने पिताजी को अपनी इस चिंता से अवगत कराया। सदैव की तरह ही मेरे पिताजी ने तुंरत ही मेरी इस चिंता के समाधान के लिए काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने मेरे पुत्र को उसके जन्म के उपरांत कई खुले पत्रों की सौगात भेजी। इन पत्रों में ब्राह्मण, सरयूपारीण ब्राह्मणों उनकी वंशावली और फिर विशेष तौर पर हमारे वंश और गाँव के इतिहास के विषय में जानकारी हैं। मैंने इन सभी पत्रों को संजोकर रख लिया हैं और इन्हे अपने पुत्र को उसके १८वे जन्मदिन पर भेट करूंगा।

किंतु अभी हाल में अपनी पत्नी से हुए एक विचार-विमर्श में हमने तय किया कि इस ज्ञान को सबसे बांटा जाए। कुछ पारिवारिक अंशो को निकाल कर मैं इन पत्रों को आप सभी के साथ बाटना चाहूँगा। पिताजी से दूरभाष पर हुई वार्ता से पता चला कि यह वंशावलियां मूल रूप से दो स्रोतों से ली गयी हैं (इन दोनों ही वंशावलियों में कॉपीराईट का कोई उल्लेख नहीं हैं। ):

  • विप्रोदय - संकलनकर्ता आचार्य मुक्तिनाथ शास्त्री
  • सरयूपारीण ब्राह्मण वंशावली - श्रीधर शास्त्री

इसके अतिरिक्त अपने गाँव 'खादियापार' का इतिहास गाँव के बड़े बूढों के सहयोग से तैयार किया गया हैं। मैं अपनी सारी बातें और पत्र निम्न तीन वर्गीकरण का साथ पोस्ट करूंगा

  1. ब्राहण
  2. सरयूपारीण ब्राहण
  3. खादियापार पाण्डेय वंशावली

इस ज्ञान को सार्वजानिक करने में मेरा निहित स्वार्थ हैं कि यदि इनमे कोई कोई कमी हो, कोई त्रुटि हो तो उसे सभी ज्ञानवान पाठक सुधार सकते हैं। साथ ही अपने ग्रामीण इतिहास में कई टूटी हुई कड़ियों को भी आपके सहयोग से जोड़ा जा सकता हैं। इसके अतिरिक्त आप अपने अमूल्य योगदान से इस ज्ञानकोष और समृद्ध भी करेंगे ऐसा मेरा विश्वास हैं।

सादर,

सुधीर

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