Sunday, April 26, 2009

प्राक्कथन

इस चिठ्ठे की उत्त्पति मेरे इस एहसास के साथ हुई कि हम किस प्रकार विदेशों में रहते हुए अपने आने वाली पीढियों को उनके पुरखों के बारे में बताएँगे? सहस्र युगों, कल्पों से चली आ रही इस परम्परा को किस प्रकार आर्यावत से बाहार जम्बू द्वीप से सप्त-सागरों की दूरी पर बसी इस धरती पर पलने -बढ़ने अपने वंशजों को समझा पाएंगे। कहीं यह धरोहर हम खो न दे। इसको संजोने और इसको अग्रसर करने कि महती जिम्मेदारी हम पर ही तो हैं।

आजकल जब लोग विभिन्न वेबसाइटओं, शास्त्रों (वाचनालयों ) और प्रवासन अभिलेखों में अपने पुरखों को ढूंढते हैं और उनका कोई भी सन्दर्भ मिलने पर गौरान्वित महसूस करते हैं। यह सन्दर्भ, चाहे वो अमेरिका, कैरेबियन में गुलामी के दलदल से हो या फिजी और अमेरिकी देशों में बंधुआ मजदूरों के हो या फिर ऑस्ट्रेलिया में अपराधी पूर्वजों के, अपनी वतमान पीढियों को अपनी जड़ें मिलने पर वैसे ही अपार सुख देते हैं जैसे कि कारू का खजाना मिलने पर किसी निर्धन को...क्या हम अपनी अल्पज्ञता से अपनी आनेवाली पीढियों को इस सुख से वंचित कर देंगे। वैसे भी हमारे अप्रवास के कारण हमारी संताने विदेशों में अलग ही पहचान के साथ पलेंगी -ऐसे में अपनी इतिहास का ज्ञान उन्हें अपने संस्कारों और संस्कृति से जोड़कर रखेगा। ऐसा करने से वे अपने वर्तमान परिवेश के साथ अपनी पुरातन संस्कृति और हमारे रीति-रिवाजों को बेहतर समझ पाएंगे। अन्यथा वे इन रीति रिवाजों को किसी आदिम प्रथा का दर्जा देकर नकार देंगे। वैसे भी वो ही पीढियां पनपती हैं जो वर्तमान का बोध रखकर, इतिहास को समझते हुए भविष्य का सपना संजोये।

मुझे स्वं अपनी इस अल्पज्ञता का आभास तब हुआ जब मेरे यज्ञोपवीत के समय मुझे अपनी सात पीढियों के नाम के लिए और फिर गोत्र, प्रवर और शाखा के लिए पिताजी से पूंछना पड़ा। मैंने तब ही से अपनी वंशावली को समझने का प्रयास शुरू कर दिया। मेरी यह हालत तो भारत में ही थी (और मुझे बहुत विश्वास हैं कि कतिपय अधिकांश भारतीय नवयुवकों को आज भी इस बातों का ज्ञान न हो)। कुछ समय तक इस विषय पर ज्ञानार्जन करने के पश्चात् मेरी अधजल गगरी खलकत जाए वाली स्थिति हो गई थी। मुझे अपने धरातल का एहसास हुआ अपनी शादी के दौरान - खिचडी की रस्म के दौरान, मेरी पत्नी के गाँव से आई एक दादी ने मुझसे हमारे पाण्डेय वंश की जानकारी मांगी - कि क्या हम चारपानी -भास्मा के पाण्डेय हैं...मेरे लिए तो यह दोनों नाम ही अपरिचित थे... भला हो मेरे फुफेरे भाई का जिसने उस प्रश्न का उत्तर दे दिया । (तथा मेरे भी ज्ञान का वर्धन किया)


मेरे पुत्र के जन्म के दौरान मैंने अपने पिताजी को अपनी इस चिंता से अवगत कराया। सदैव की तरह ही मेरे पिताजी ने तुंरत ही मेरी इस चिंता के समाधान के लिए काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने मेरे पुत्र को उसके जन्म के उपरांत कई खुले पत्रों की सौगात भेजी। इन पत्रों में ब्राह्मण, सरयूपारीण ब्राह्मणों उनकी वंशावली और फिर विशेष तौर पर हमारे वंश और गाँव के इतिहास के विषय में जानकारी हैं। मैंने इन सभी पत्रों को संजोकर रख लिया हैं और इन्हे अपने पुत्र को उसके १८वे जन्मदिन पर भेट करूंगा।

किंतु अभी हाल में अपनी पत्नी से हुए एक विचार-विमर्श में हमने तय किया कि इस ज्ञान को सबसे बांटा जाए। कुछ पारिवारिक अंशो को निकाल कर मैं इन पत्रों को आप सभी के साथ बाटना चाहूँगा। पिताजी से दूरभाष पर हुई वार्ता से पता चला कि यह वंशावलियां मूल रूप से दो स्रोतों से ली गयी हैं (इन दोनों ही वंशावलियों में कॉपीराईट का कोई उल्लेख नहीं हैं। ):

  • विप्रोदय - संकलनकर्ता आचार्य मुक्तिनाथ शास्त्री
  • सरयूपारीण ब्राह्मण वंशावली - श्रीधर शास्त्री

इसके अतिरिक्त अपने गाँव 'खादियापार' का इतिहास गाँव के बड़े बूढों के सहयोग से तैयार किया गया हैं। मैं अपनी सारी बातें और पत्र निम्न तीन वर्गीकरण का साथ पोस्ट करूंगा

  1. ब्राहण
  2. सरयूपारीण ब्राहण
  3. खादियापार पाण्डेय वंशावली

इस ज्ञान को सार्वजानिक करने में मेरा निहित स्वार्थ हैं कि यदि इनमे कोई कोई कमी हो, कोई त्रुटि हो तो उसे सभी ज्ञानवान पाठक सुधार सकते हैं। साथ ही अपने ग्रामीण इतिहास में कई टूटी हुई कड़ियों को भी आपके सहयोग से जोड़ा जा सकता हैं। इसके अतिरिक्त आप अपने अमूल्य योगदान से इस ज्ञानकोष और समृद्ध भी करेंगे ऐसा मेरा विश्वास हैं।

सादर,

सुधीर

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