Saturday, May 30, 2009

वर्ण व्यवस्था: दो शब्द

इस सप्ताह मैं ब्राह्मण/सरयूपारीण व्यवस्था का जन्म के विषय में वार्तालाप का प्रारम्भ करना चाह रहा था। सौभाग्य से मुझे विलियम क्रूक की "दा ट्राइब्स एंड कॉस्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविन्सस एंड अवध" एवं एम ऐ शेर्रिंग की "हिंदू ट्राइब्स एंड कॉस्ट एज रेप्रेजेंटेड इन बनारस" की पाण्डुलिपि भी गूगल बुक्स के माध्यम से प्राप्त हो गई हैं। अभी इन पुस्तकों का अध्धयन कर रहा हूँ। किंतु पिछली कुछ चर्चाओं में मेरे इस प्रयास को जातिवादी रूप में देखने के आभास मिले तो मन उदिग्न हो गया... जो लिखना चाह रहा था छोड़कर मूलतः "ब्राह्मण जातिवादी होगा और वैमनस्य बढ़ाने वाली व्यवस्था नहीं हैं" के विषय में सोचने लगा...

प्रसंगवश, मुझे गुलजार की एक कविता "छाँव-छाँव" याद आती हैं -
मैं छाँव-छाँव चला था अपना बदन बचाकर कि रुह को एक खूबसूरत-सा जिस्म दे दूँ
मगर तपी जब दोपहर दर्दों की, दर्द की धूप से जो गुज़रा
तो रुह को छाँव मिल गयी हैं
अजीब हैं दर्द और तस्कीं का साँझा रिश्ता मिलेगी छाँव तो बस कहीं धूप में मिलेगी


ठीक इसी प्रकार श्रम-विभाजन एवं सामाजिक स्थिरता के महती उद्देशों से प्रेरित आर्यवर्त में वर्ण व्यवस्था का अभिर्भाव हुआ होगा । कुछ समय तक इसके वास्तविक रूप का पालन भी हुआ होगा। साथ ही प्रारंभिक रूप और भावना को जीवंत रखने का भी प्रयास भी हुआ होगा किंतु समय के साथ इसमे व्यतिगत स्वार्थ, शक्ति लोलुपता, झूठे अहम् और अज्ञानता के कारणों से शोषण, द्वेष, वंशवाद जैसे अवसाद आ गए। किंतु आज इन्ही अवसादों के कारण उस मूल -आधारभूत कारकों को समझना आवश्यक हैं जिनके फलस्वरूप इस व्यवस्था जन्म हुआ। साथ अवसादों की धूप से ही उन कारको की छाँव का महत्व उजागर हो पायेगा।

वर्ण व्यवस्था मूलतः न तो जन्मगत हैं और न ही शोषणात्मक व्यवस्था। किसी भी समाज की स्थिरता के लिए उसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामूहिक निर्भरता दोनों ही सुनिश्चित करनी होती हैं (गाँधी जी, दा वर्ड्स ऑफ़ गाँधी)। वर्ण व्यवस्था का स्थायित्व उसकी इन्ही दोनों मापदंडों पर सफलता का द्योतक हैं।

यह व्यवस्था सहस्राब्दियों से चली आ रही हैं। यदि यह व्यवस्था प्रारम्भ से ही एक भी वर्ग के शोषण का कारक होती तो इसके विरूद्व सदियों पहले विद्रोह हो चुका होता। यदि समाज का एक विशालकाय भाग शोषित होता तो उसने इस व्यवस्था के विरूद्व विद्रोह किया होता। मनु के नियमो में यदि सभी वर्गों के उत्थान की भावना नहीं होती तो इनका विस्तार और अनुमोदन सम्पूर्ण आर्यावर्त में नहीं होता और यदि होता भी और यदि यह व्यवस्था शोषणात्मक और विद्वेषपूर्ण होती तो इसके विरोध में स्वर अवश्य हो प्रखर होते.... इस व्यवस्था का वर्त्तमान रूप अवश्य ही बाह्य समाज के मेलजोल से उत्पन्न हुआ होगा। समाज के कर्मगत रूप को देखते हुए ही १८ शताब्दी तक इन वर्णों में जनजातियों से लोग जुड़ते रहे साथ ही इस वर्ण के लोग दुसरे वर्ण में जाते रहे हैं।

इतिहास साक्षी हैं कि कोई भी वर्ग विशेष या व्यवस्था जन समूह को दबाकर, शोषण करके अधिक समय तक नहीं चल पाई हैं ... चाहे वो फ्रांस की जनक्रांति हो, या रूस का ज़ार के विरूद्व विद्रोह या अमेरिका की स्वतंत्रता प्रेमी समुदाय। रंगभेद की नीति, गुलाम प्रथा इन सभी के विरूद्व एक जनादोलन हुआ। यहाँ तक कि साम्यवाद के शोषणात्मक पहलू के कारण उसकी सामूहिक उत्थान की भावना की अनदेखी करके भी जन साधारण ने उसका तिरस्कार कर दिया। अंग्रेज भी अपने अथक प्रयासों के बाद भी भारत पर २०० वर्ष से ज्यादा पाँव नही टिका पाए क्योकि उनके साम्राज्य में सभी को उत्थान के सामान अवसर नहीं प्राप्त थे। ऐसे में एक व्यवस्था कम से कम ५००० वषों से यदि स्वं को जीवित रखे हुए हैं तो अवश्य ही उसमे सभी वर्णों के लिए अग्रसारित होने के अवसर रहे होंगे। अतः यह वर्ण व्यवस्था के दीघ्रकालिक स्वरुप से ही सिद्ध हो जाता हैं कि इसमें सामाजिक वैमनस्य, विद्वेष अथवा शोषण का कोई स्थान नहीं रहा होगा।

इतना अवश्य हैं कि कई स्थानों पर इस व्यवस्था को अपनी (झूठी) श्रेष्टता सिद्ध करने के लिए (या अपने अज्ञान या स्वार्थ के कारण ) कई वर्गों ने ,जिनमे क्षत्रिय, ब्राह्मण सम्मिलित हैं, ग़लत रूप से प्रयोग किया। इस पर मुझे गाँधी जी का कथन याद आता हैं - "...आजकल सभी नैतिकता पर अपना अधिपत्य ज़माने लगें वो भी बिना किसी स्वध्धाय, आत्म अनुशासन के... शायद यही कारण हैं आज विश्व में फैली असत्यता (अराजकता ) का ...." । संभवतः वर्ण व्यवस्था के तथाकथित कुछ प्रतिनिधियों ने भी यह ही किया हो जिस कारण यह व्यवस्था अपने मूल उद्देशों से विमुख हो गयी हो ...पर ये भी सत्य हैं कि इस प्रकार के व्यवहार पिछले कुछ शताब्दियों में ही हुआ हैं। पर जो भी हो यह तो सभी प्रबुद्ध जन मानेगे कि किसी मनुष्य का शोषण करके कोई भी भद्र जीव गौरान्वित नहीं हो सकता। ब्राहण व्यवस्था के इसी ह्रास से द्रवित होकर मैथली शरण गुप्त ने कहा था -

प्रत्यक्ष था ब्राह्मत्व तुममें यदि उसे खोते नहीं -
तो आज यों सर्वज्ञ तुम लांछित कभी होते नहीं

आज यह और भी आवश्यक हो जाता हैं कि हम आत्म मंथन करें... कोशिश करे यह समझने की कि वे क्या कारण थे जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को स्थायित्व दिया। आज हम कहाँ भटक गए हैं... जहाँ तक विश्लेषण का प्रश्न हैं यह तो सभी को व्यक्तिगत रूप से करना होगा किंतु मैं वर्ण व्यवस्था का शास्त्रीय और एतिहासिक रूप अपने ज्ञान के अनुसार रखने का प्रयास करूँगा।

अब ब्राह्मण जन्म गाथा की चर्चा अगले माह (जून) ही शुरू करूँगा लेकिन उससे पहले "ब्राह्मण व्यवस्था (वर्ण व्यवस्था)" पर अपने विचार प्रस्तुत करना चाहूँगा। आशा हैं आप मेरे इस भटकाव को क्षमा करेंगे। साथ ही इस विषय पर अपने उर्जावान एवं विविध विचारो से चर्चा को सार्थकता प्रदान करेंगे। तुलसीदास जी के शब्दों में कहना चाहूँगा....
मति अति नीच ऊँचि रूचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरी ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥

उदिग्न हृदय किंतु विचारमग्न ....

आपका स्नेहाकांक्षी,
सुधीर

Saturday, May 23, 2009

दैनिक हिन्दुस्तान के रविश जी को एक खुला पत्र.

आदरणीय रविश जी,

सहर्ष अभिनन्दन। सर्वप्रथम मैं आपका आभार व्यक्त करना चाहूँगा - मेरे इस प्रयास का संज्ञान लेने और इसके सम्बन्ध में अपने विचारों का प्रकाशन के लिए। आपके विचार, यूँ तो १३ मई २००९ के दैनिक हिन्दुस्तान संस्करण में प्रकाशित हुए किंतु उसके विषय में मुझे इस ही सप्ताहांत में पता चला। सौभाग्यवश मेरे एक शुभेक्छु ने ऑनलाइन प्रिंट संस्करण से उस विवेचन (कमेंट्री) की एक प्रति सुरक्षित रख ली थी (देखें)। उस लेख को पढ़कर लगा कि कई मसलों पर मुझे अपने विचार स्पष्ट करने चाहिए पर साथ ही यह सोचकर हर्षानुभूति भी हुई कि "बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा" ।

गाँधी जी ने कहा था कि (अपने धरोहर और परम्पराओं का) सच्चा ज्ञान नैतिक सामर्थ्य और स्थायीत्व प्रदान करता हैं। मैंने इस चिठ्ठे का प्रारम्भ इसी आस्था के साथ किया था। जहाँ तक इस चिठ्ठे की यदुकुल के पोर्टल से समानता हैं वो केवल वर्ग विशेष पर आधारित नाम के साथ समाप्त हो जाती हैं । यदुकुल जहाँ एक वर्ग विशेष के लिए सामाजिक मेलजोल बढाने के लिए समर्पित हैं (जिसका स्पष्टीकरण वे अपने मूल पृष्ट पे ही कर देते हैं) वहीं सरयूपारीण एक स्वान्वेषण का प्रयास हैं। इस प्रयास में मैं सभी बुद्धिजीवियों का सानिध्य चाहता हूँ। एक अपेक्षा हैं कि इस विश्लेषण की समीक्षा सभी वर्गों के प्रतिनिधियों के सहयोग से तैयार होगी। जहाँ तक मेरी खोज हैं वो तो संसाधनों की उपलब्धता से सीमित हैं किंतु पाठक जगत के विशालकाय ज्ञान सिन्धु और गंभीर चिंतन से एक सार्थक, सम्पूर्ण, सारगर्भित, विश्वसनीय और तथ्वात्मक लेख-कोष का निर्माण होगा - यही आशा हैं। साथ ही वंश परम्परा के अनुसरण का प्रयास भी, आजकल कि यायावर जीवन शैली में बिना सहयोग के किन्चित मात्र भी सम्पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकती। यह जड़ों के खोज का प्रयास प्रथम दृष्टया जातिवादी लग सकता हैं किंतु एक निष्पक्ष विश्लेषण प्राचीन ज्ञान व्यवस्था के वैज्ञानिक आधार के अन्वेषण की तृष्णा को अवश्य ही उजागर करेगा।

जहाँ तक मेरे चिठ्ठे पर ब्राह्मणों के टिपण्णी का प्रश्न हैं- मैं समझता हूँ की वंश परम्परा ढूँढने की सांझी -इच्छा और योगदान की चाहत और साथ में यह मार्ग-दर्शन की कामना और शुभेच्छा हो सकती हैं। वैसे हर वर्ग का आशीष चाहिए। जब मैं खादियापार (अपने पैतृक ग्राम) के विषय में लिखना प्रारम्भ करूंगा तो साथ ही मेरे पूर्वज और ग्राम संस्थापक स्वर्गीय श्री पलटन बाबा और एक उनके मित्र (जोकि तेली थे) की मित्रता की भी बात करूँगा। इस गाँव में आज भी ये दोनों समुदाय बिना किसी विद्वेष और वैमनस्य के रहते हैं।

आपके द्वारा साईबर ब्राह्मण की कामना .... हाँ! साईबर ब्राहमणों का आगमन तो हो ही चुका हैं। कर्मगत आधार पर भारत वर्ष के द्वारा जो परचम लहराए गएँ हैं वे सभी तो साईबर ब्राह्मण की ही तो देन हैं.... चाहे वो अजीम प्रेम जी हो या सब्बीर भाटिया... (जन्मगत आधार पर तो यह वर्ग प्रस्तावित नहीं हैं, जैसे जोशी जी से मिलकर आपको लगा)।

बोस्टन ब्राह्मण के विषय में कुछ तथ्य.... जिस प्रकार आप को, एक सामाजिक रूप से प्रबुद्ध वर्ग जो तत्कालीन विषयों पर अपने विचार (निष्पक्ष रूप से) निर्भय हो कर संगणक के माध्यम से सबसे कह सके , के लिए साईबर ब्राह्मण नामकरण करने की प्रेरणा हुई ठीक उसी प्रकार डॉ ऑलिवर वेन्डेल सीनियर को जब बोस्टन में प्रतिष्ठित संभ्रांत वर्ग को परिभाषित करने के लिए एक नाम की आवश्यकता हुई तो उन्होंने "बोस्टन ब्राह्मण" शब्द का इस्तेमाल किया। पिछले अमेरिकी चुनावों में सेनिटर जॉन कैरी के लिए इस शब्द का इस्तेमाल काफी खुल के हुआ। डॉ ऑलिवर वेन्डेल पेशे से एक चिकित्सक और लेखक थे। सर्वप्रथम इस शब्द का उपयोग १८६० में "अटलांटिक मंथली" नामक पत्रिका के जनवरी संस्करण में डॉ वेन्डेल ने अपने लेख 'दा प्रोफ़ेसरस स्टोरी' (The Professor's Story) में किया था। बाद में उन्होंने अपने नावेल "दा ब्राह्मण कास्ट ऑफ़ न्यू इंग्लैंड (The Brahmin Caste of New England)"में भी इस शब्द का प्रयोग बोस्टन और न्यू इंग्लैंड के संभ्रांत वर्ग के लिए किया। कालांतर में यह शब्द व्यापक सन्दर्भ में सारे न्यू इंग्लैंड के उच्च वर्गीय संभ्रांतों के लिए प्रयुक्त होने लगा। सामान्यतः यह वर्ग अति शिक्षित (मूलतः हारवर्ड के संस्थागत विद्यार्थी ),सामाजिक रूप से उदार और चिंतनशील लोगों का समुदाय था। यह लोग प्रभावशाली वर्ग कला, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान और तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्था के संरक्षक थे। यह समुदाय तो स्वमेव रूप से भारत की प्राचीन परम्परा से प्रभावित था।

रवीश जी, आज तो भारत में भी कोई ब्राह्मण कहलाना पसंद नहीं करता (देखें, स्पष्ट कर दूँ कि मैं इस विडियो विचारों से पुर्णतः सहमत नहीं हूँ) तो विदेशों में कहाँ से मेक्सिको या जार्जिया ब्राह्मण कहाँ से आयेंगे ? किंतु यदि हम ब्राह्मण व्यवस्था को सही रूप से समझे और उसका पालन करें तो कोई निश्चय ही हर घर में, हर गली में और हर हाट पर स्वं को सगर्व ब्राह्मण कहते हुए लोग मिल जायेंगे। आपका साईबर ब्राह्मण का स्वपन इतना विस्तृत हो जाएगा कि आप विज्ञान ब्राह्मण, अर्थशास्त्र ब्राह्मण, दर्शन ब्राह्मण न जाने कितने ब्राह्मणों से ख़ुद को घिरा हुआ पायेंगे ।

अंत में, इस आशा के साथ इस पत्र को समाप्त कर रहा हूँ कि मेरे सारे चिठ्ठों को (विशेष रूप से इस चिठ्ठे को) भविष्य में भी आपकी समीक्षा का लाभ और आशीष मुझे मिलता रहेगा।

सादर,

विशेषानुरोध : कृपया अगली समीक्षा के विषय में मुझे भी सूचित करेंगे तो हर्ष होगा।

Sunday, May 17, 2009

ब्राह्मण: एक परिचय (भाग ३) - वर्तमान परिवेश में ब्राह्मण

चर्चा प्रारम्भ करने के पूर्व कुछ विचार पिछली चर्चा से - मैंने कर्म श्रेष्टता के आधार पर नेतृत्व करने वाले ब्राह्मण वर्ग के विस्मरण एवं कालांतर में जन्म की व्यवस्था के आधार पर उनके वर्गीकरण और वर्तमान में उनके सामाजिक तिरस्कार की बात करनी चाही थी। संभवतः मेरे शब्दों ने विचारों का प्रतिबिम्ब अपेक्षित रूप से साकार नहीं किया। किंतु इष्ट देव सांकृत्यायन जी का मैं अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने मेरे शब्दों का उचित विश्लेषण प्रदान किया। साथ ही में उन सभी श्रद्धेय टिपण्णीकर्ताओं का धन्यवाद करना चाहूँगा जिन्होंने मेरे मार्गदर्शन हेतु अपना विरोध या अपना समर्थन देकर इस मंच को सार्थकता दी। गाँधी जी ने एक बार कहा था कि पूर्ण शान्ति सागर का नियम नहीं हैं। और यह नियम जीवन के सागर के लिए भी सत्य हैं" (दा वर्ड्स ऑफ़ गाँधी - रिचर्ड अटटेनबोरो १९८२)। मैं यही बात वैचारिक सागर के बारे में भी कहना चाहूँगा और आशा करता हूँ कि आप सभी भविष्य में भी अपनी वैचारिक लहरों से इस सागर को जीवंत रखेंगे। अपने अग्रज अरविन्द मिश्रा जी के श्रवण-आश्वासन और आगे बढ़ने के आदेश के अनुपालन हेतु अब आज की चर्चा....

वर्तमान परिवेश में, संभवतः, अपने ह्रास होते पुरातन ज्ञान से उपजे क्षोभ, अपने अनादर और उपेक्षा की पीड़ा और साथ ही बढ़ते भौतिकवादी समाज में अध्यात्मिक ज्योति को प्रज्वलित रखने की कशमकश ने ब्राह्मणों को अति रूढिवादी और कर्मकांडी बना दिया। अपने स्वाभिमान और ज्ञान की रक्षा करते-करते कब यह वर्ग मानववादी रूप को छोड़ करे जातिगत विद्वेष और घृणा का अनुगामी हो गया कहा नहीं जा सकता किंतु इतना तो अवश्य ही अनुमानित किया जा सकता हैं कि अवैदिक समाजो और सभ्यताओ के प्रभाव और उनके विरूद्व अपने संस्कारों और अपने अस्तित्व के संघर्ष ने ही इस परिवर्तन को जन्म दिया होगा। परमहंस योगानन्द जी ने भी (वर्तमान) सामाजिक वर्गीकरण के इस रूप को अवैदिक ही माना हैं (कोन्वेर्सशन्स विथ योगनान्दा, क्रिस्टल क्लारिटी पब्लिशर्स , २००३ )।

आधुनिक समाज में नित्य उभरते ज्ञान के तुषार कणों को अपने वैदिक ज्ञान के असीम क्षीर-सागर के मध्य ढूँढने के स्थान पर उनके विरोध ने ही मानवीय मूल्यों के उपासको को मानसिक श्रेष्टता से च्युत कर दिया। वेदों में भी कहा गया हैं - "अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः। दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढाः अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा: ॥" अर्थात् अज्ञानता के अन्धकार में और सर्व-ज्ञानी होने के दंभ के साथ मुर्ख (छद्म ज्ञानी) दूसरो को राह दिखाते हुए उस प्रकार दुष्चक्र में फंसते हैं जैसे एक नेत्रहीन दुसरे नेत्रहीन को मार्ग दिखाते हुए गर्त में जा गिरता हैं।

सत्य यह हैं कि प्राचीन काल में दासी तनय नारद और धीमर-सुत व्यास (यहाँ 'धीमर' शब्द कर्मगत आधार पर प्रयुक्त हैं) प्रभृति ऋषि कहलाये क्योंकि उन्हें सत्य धर्म का साक्षात्कार हो गया था (कृपया ध्यान दे जन्म व्यवस्था यहाँ नगण्य हैं)। किंतु आज का ब्राह्मण वर्ग (कर्मणा या जन्मणा -किसी भी मापदंड से) दिग्भ्रमित होकर यज्ञोपवीत धारण करने के महती संकल्प को भुलाकर अपने सामाजिक, नैतिक और अध्यात्मिक दायित्वों से विमुख हो गया हैं। वास्तव में गीता ने ब्राह्मण के कर्म की परिभाषा देते हुए कहा हैं कि "शमोदमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानं अस्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥ " अर्थात् ब्राह्मण को तो अंतःकरण का निग्रह, इन्द्रियों का दमन करते हुए (मानव) धर्म के लिए कष्ट सहते हुए, आंतरिक एवं बाह्य (मानसिक एवं सामाजिक) शुद्धता के साथ परदोषों को क्षमा करते हुए, मन इन्द्रियों और शरीर को सरल (व्यवहारगत सरलता) रखते हुए वेद, शास्त्र (ज्ञान) और ईश्वर में श्रद्धा करते हुए उनका अध्ययन -अध्यापन करना चाहिए। आज हर यथोचित क्षेत्र में समाज को नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता पुनः प्राप्त करने के लिए ब्राह्मण वर्ग को ऋषित्व (श्रेष्टतम मानवता संरक्षक) पाने का प्रयास करना होगा।

यह समय केवल हरिजनों के उत्थान का ही नहीं वरन ब्राह्मणों के भी जागरण का हैं। "उत्तिष्ट जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। " - स्वामी विवेकानंद के शब्दों में आज के ब्राह्मण वर्ग से कहना चाहूँगा - "उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रूको। अपने ज्ञान और कर्मगत गुणों से विमुख ब्राह्मण उसी प्रकार निस्तेज रहेंगे जैसे असंख्य जुगनुओ का समूह मिल कर भी दिन का प्रकाश नहीं कर सकता। कर्मकांडों में लिप्त तथा अपने धर्म और ज्ञान से दूर ब्राह्मण समाज की दशा चन्दन धोते हुए गर्धभ सी हो जायेगी जिसे अपनी पीठ पर लादे चंदन के मूल्य का आभास भी नहीं हैं (किंतु उसके बोझ से पीड़ित अवश्य हैं) - "यथा खरश्चंदनभारवाही भारस्य वेत्ता न तू चन्दनस्य।"

मानव सभ्यता के गगन पर दैदीप्यमान सूर्य की तरह चमकने के किए सभी वर्णों के उत्थान की कामना के साथ ब्राह्मणों को भी अपने पुरातन कर्मोंमुख ज्ञान की साधना करनी होगी जिससे आर्यावर्त पुनः जगत श्रेष्टता प्राप्त कर सके। किसी ने सत्य ही कहा हैं - यदि ब्राम्हण जागेगा तो राष्ट्र जागेगा, विश्व जागेगा - क्योकि जन-जागरण सदैव से ही ब्राह्मणों का कर्तव्य रहा हैं। यदि अपने इस ज्ञान के आभाव में ब्राह्मण निस्तेज हुआ तो राष्ट्र निष्प्राण हो जाएगा अतः ब्राह्मणों को न केवल अपने रूढिवादी अज्ञान की केचुल को उतार कर सर्व-समाज के साथ समरसता की किरण जागते हुए नवोदय करना होगा बल्कि (राष्ट्र निर्माण और मानव उत्थान के लिए) अपने पितामह ब्रह्मा की तरह सृजनात्मकता धर्म का पालन करना होगा।

इतिहास साक्षी हैं कि समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए ब्राह्मण ने त्रेता में वशिष्ठ बनकर राम को, द्वापर में संदीपनी बनकर कृष्ण को, कलयुग में चाणक्य बनकर चन्द्रगुप्त को निखारा हैं। आवश्यकता पड़ने पर "अश्वस्थामा" का बलिदान करके "अर्जुन" को संवारा हैं तो दूसरी ओर परशुराम कर सहस्रबाहु जैसे आतातायी का विनाश भी किया हैं। दिनकर जी के शब्दों में....
सहनशीलता को अपनाकर, ब्राह्मण कभी न जीता हैं।
किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान हलाहल पीता हैं॥


अतः आज के ब्राह्मण को भी अपनी इस परम्परा को कायम रखने के लिए एक संगठित, जागृत और तेजस्वी वर्ग के रूप में उभरकर श्रेष्ट राष्ट्र निर्माण एवं समन्यव मूलक राष्ट्र के लिए संकल्पबद्ध होना होगा यही मेरी कामना हैं। वैसे तो कल्पों, युगान्तरों से चली आ रही इस महती ब्राह्मण परम्परा के परिचय पूर्णता सहस्र ग्रंथों में भी नहीं समेटी जा सकती किंतु मैंने तीन अंकों के इस चिठ्ठे में अपने विचारो और स्वानुभूत आधार इसे कुछ अंशों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया हैं। अंत में, मैं राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त के आवाहन से इस चर्चा को समाप्त करना चाहूँगा -
हे ब्राह्मणों! फ़िर पूर्वजो के तुल्य तुम ज्ञानी बनो,
भूलो न अनुपम आतम-गौरव, धर्म के ध्यानी बनो ।
करदो चकित फ़िर विश्व को अपने पवित्र प्रकाश से ,
मिट जाए फ़िर सब तम तुम्हारे देश के आकाश से ॥
(भारत भारती)


सादर,


Sunday, May 10, 2009

ब्राह्मण: एक परिचय (भाग २)

गतांक से आगे ...

सर्वप्रथम मैं सभी प्रबुद्ध पाठकों का उत्साह वर्धन के लिए आभार प्रगट करना चाहूंगा। वैसे भी कहा गया हैं कि "दुर्लभम् त्रयमेवैतात् देवानुग्रह्हेतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः ॥" अर्थात् मनुष्य जीवन, मोक्ष कमाना और महापुरुषों का साथ दुर्लभता और देवकृपा से ही मिलता हैं। साथ ही आपने उन सहयोगियों को भी आश्वस्त करना चाहूँगा जिन्होंने हुसैनी ब्राह्मणों के विषय में अधिक जानकारी मांगी हैं, आगे इस विषय पर भविष्य में कुछ अवश्य ही प्रकाशित करूँगा। किंतु अभी पिछली चर्चा को आगे बढ़ते हुए - ब्राह्मण-परिचय

ब्राह्मण शब्द की उत्पति संस्कृत के ब्रह्म शब्द से हैं। इस सन्दर्भ में ब्रह्म का अर्थ हैं ज्ञान अतः ब्राह्मण उस ज्ञान को अर्जन करने रत व्यक्ति। ब्रिटैनिका में ब्राह्मण शब्द की परिभाषा दी हैं - "पोस्सेस्सर ऑफ़ ब्रह्म" (Possessor of Brahma)। तदुपरांत उसे सामाजिक व्य्स्वस्था के आधार पर परिभाषित किया गया हैं। इस दृष्टि से देखे तो भी ब्राह्मण या तो उस (ब्रह्म रुपी) परम सत्य और ज्ञान का रक्षक और वाहक हैं। और कोई भी व्यक्ति (जन्म व्यवस्था के बिना) भी ब्राह्मण हो सकता हैं।

आचार्य मुक्तिनाथ शास्त्री ने ब्राह्मणत्व को समझाते हुआ कहा हैं कि "यदि ब्राह्मण शब्द का लाक्षणिक अर्थ हैं "भू-देव" तो वह "जगद्-गुरुत्व" के "राष्ट्र देवो भावः" की शास्वत परिभाषा को मुखरित करता हैं क्योंकि जिस प्रकार द्विजराज चंद्रमा भूतल से लेकर अन्तरिक्ष तक सुधामयी किरणों को बिखेरते रहते हैं, उसी प्रकार यह द्विज (ब्राह्मण) भी ज्ञान, सदाचार, और संस्कार की शीतल किरणे सम्पूर्ण मानव जाति के हितार्थ बिखेरते रहते हैं।" ब्रह्म का अर्थ ज्ञान हैं तो ब्राह्मण को संकुचित क्षेत्र में बंद करना अन्यायपूर्ण होगा। क्योंकि ऐसा करने से "वसुधैव कुटुंबकम्", "सर्वेभवन्तु सुखिनः", "स्वदेशो भुवानात्रयम्", राष्ट्रे वयं जागृयामः", और संस्कार-संस्कृति की सुरक्षा दायित्वों की मर्यादा कायम रखने के उद्देश से ब्राह्मण विचलित हो जाएगा। संभवतः अपनी इसी वैश्विक दर्शन और सोच के कारण ही भागवत में ब्राह्मणों का आवाहन करते हुए कहा गया हैं "ब्राह्मणस्य हि देहोयम्। क्षुद्र -कामाय नेष्यते ॥" अर्थात् ब्राह्मण का शरीर (मानसिक एवं सामाजिक मापदंडो में) तुच्छ और हीन कार्य के लिए नहीं मिलता।

आज सामाजिक न्याय और धरमनिर्पेक्षता के नाम पर हिंदू विचारधारा और विशेष रूप से ब्राह्मणों की उपेक्षा का दौर चला हैं वो विचारणीय हैं। हमारे नेता और उनकी तथाकथित आधुनिक सोच ने ब्राहमणों के साथ जन्मना आधार पर भेदभाव करके वर्षो से चली आ रही उनकी कर्मणा गरिमा को नकार दिया। इस स्थिति में मुझे किसी कवि की यह पंक्तिया याद आती हैं....

धेनु द्विज ऋषि मुनि सशंकित,
अवतरण हो परसुधर का।
शस्त्र-शास्त्रों से सजे
फ़िर शौर्य भारत वर्ष का ॥
दमन अत्यचार पर
फिर गिराएँ गाज ऐसी ।
गगन कांपे धरा दहले,
दामिनी दमके प्रलय सी॥
अपने प्राणों से देश बड़ा होता,
हम मिटते हैं तो राष्ट्र खड़ा होता हैं।
नित्य पूजित ब्राह्मण न हुए तो,
ज्ञान बीज कहाँ से आएगा ?
धरती को माँ कहकर ,
"वसुधैव कुटुम्बकं" का घोष कौन दोहराएगा ?

सामाजिक न्याय के नाम पर सामाजिक समरसता की जिस प्रकार अनदेखी की गयी उससे समाज में ब्राह्मण का अस्तित्व भी खतरे में दिखता हैं। शायद इसी कारण श्री रामकृष्ण हेगडे ने "ब्राह्मणों को भी अल्प संख्यक" कहा था (साप्ताहिक हिन्दुस्तान, जनवरी ११, १९८७)। स्वामी विवेकानंद ने भी आदर्श राष्ट्र की परिकल्पना करते हुए कहा था कि आदर्श राष्ट्र के लिए पुरोहित का ज्ञान, योद्धा की संस्कृति, व्यापारिक वितरणशीलता और अंतिम वर्ण को समता अत्यन्त अवश्यक हैं। इसके लिए सभी वर्णों को अपने पूर्वाग्रहों का परित्याग करके एक राष्ट्र की कमाना से एक दुसरे का आलिंगन करना होगा क्योंकि

"खुबसूरत हैं हर फूल मगर उसका, कब मोल चुका पाया हैं सब मधुबन?
जब प्रेम समर्पण कर देता हैं अपना, सौंदर्य तभी कर पाता निज दर्शन।"
(गोपालदास नीरज, "नीरज की पाती")

...शेष चर्चा, वर्तमान परिवेश में ब्राह्मण, अगले सप्ताह

Saturday, May 2, 2009

ब्राह्मण: एक परिचय (भाग १)

सरयूपारीण ब्राह्मणों की व्यवस्था समझने से पहले ब्राह्मण शब्द और उसके व्यापक सन्दर्भ को समझना अत्यन्त आवश्यक हैं। सामाजिक रूढियों और उससे जन्मे विद्वेष से आज ब्राह्मणत्व और उसके आदर की बात जातिवादी दंभ से जोड़ दी जाती हैं। किंतु मूल रूपेण ब्राह्मण कौन हैं? क्या मंदिरों और मठो में बैठकर कर्मकांडों के बल पर जीवनोपर्जन करे वाले या काल, राष्ट्र और मानवता के उत्थान में सर्वथा कर्मशील युगपुरुष...जीवन की क्षण-भंगुरता के मर्म को समझकर घर घर में जाकर भिक्षां देहि की पुकार लगाने वाले जन या "ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत" के संदेश से उसी क्षण-भंगुरता का परिहास उडाते प्रबुद्ध चिंतनशील जीव ....जीवन के हर रूप को समझने के लिए ज्ञान के सागर ने डूबने के लिए दुबारा जन्म लेने तत्पर द्विज....

ब्राह्मणों की पौराणिक उत्पत्ति की गाथा की चर्चा हम आने वाले चिठ्ठों में करेंगे किंतु आज ब्राह्मणों से संबंधित कुछ विचार...ब्राह्मण शब्द को सोचते ही सर्वप्रथम हिन्दुत्व की रूढिवादी जातिप्रथा उभरकर आती हैं। किंतु भारत में जन्मी जातिप्रथा और विश्व में कई स्थानों जैसे मिस्र, यूनान में दास प्रथा, सभी मानव के विकास-क्रम श्रम की महती आवश्यकता के कारण उपजी (नेहरू , भारत एक खोज )। श्रम अधारित यह व्यवस्थाएं कब जन्माधारित हो गयीं पता नहीं। पर यह तो तय हैं कि आर्यों के सामाजिक विकास में सभी वर्णों का बराबर का योगदान रहा हैं, जिस प्रकार कोई भी चारपाई तीन पैरों के बल पर किसी काम की नहीं होती वैसे ही हमारी सामाजिक स्थिरता की चारपाई भी अपनी साफलता हेतु सभी वर्णों पर बराबर निर्भर हैं। सभी जीवों में पूर्ण ब्रह्म रूप देखने वाले "पूर्णमदः पूर्णमिदं" के प्रणेता वैदिक ब्राह्मण कब कालांतर में कर्मकांडी होकर मनुस्मृति के आधार शीशे घोलने लगे पता नहीं। (वैसे मैंने मनु-स्मृति नहीं पढ़ी हैं किंतु मन कभी यह मानने के लिए तैयार नहीं की कोई भी भद्र जीव दुसरे जीव के प्रति इतना असहिष्णु होगा)। "वसुधैव कुटुम्बकं" का प्रथम उद्घोषक ब्राह्मण मुख्य रूप से सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने वाली व्यवस्था में विश्वास नहीं रख सकता हैं। दलाई लामा ने अपनी पुस्तक "दा आर्ट ऑफ़ हैप्पीनेस" में कहा हैं कि कोई भी धर्म सामाजिक विघटन का समाधान हैं न कि उसके विघटन का आधार। अतः इस मानव वादी धर्म के रक्षक के रूप में डटे ब्राह्मण कदापि भी विघटनकारी व्यवस्था के समर्थक नही बने रह सकते।

यह ब्राह्मणों का निष्कपट, निर्पंथ, निर्मल, शांत प्रिय, आत्म-संयामी, सत्य-अन्वेषी एवं ज्ञान पिपासु स्वभाव ही रहा होगा जिसने डॉ. ऑलिवर वेन्डेल होल्म्स सीनियर को अपने समाज के संभ्रांत सदस्यों के लिए "बोस्टन ब्राह्मण" जैसे शब्दों के चयन को मजबूर किया होगा। ब्राह्मण सदैव ही सत्य एवं ज्ञान की रक्षा के लिए तत्पर रहें हैं - चाहे वो वैदिक मीमांसा हो, या रावण रचित गणित सूत्र या फिर चाणक्य द्वारा राष्ट्र निर्माण ...यहाँ तक कि ब्राह्मणों ने हिदुत्व के बहार निकलकर बौध , जैन , सिख और इस्लाम (हुसैनी ब्राह्मण के रूप में ) सत्य की रक्षा की हैं।

(.....शेष अगले चिठ्ठे में )
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