Sunday, August 16, 2009

इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था -भाग ३ (अन्तिम भाग)

"...This hasty survey of historical development of caste sufficiently disposes of the popular theory that caste is permanent institution, transmitted unchanged from dawn of Hindu history and myth"
विलियम क्रूक, "दा ट्राइब्स एंड कॉस्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविन्सस एंड अवध - प्रथम अध्याय।

पिछली चर्चा में हमने भारतीय मध्यम वर्ग के उदय एवं विदेशी यात्रियों के यात्रा -वृतांतों और शिलालेखों के आधार पर पाया कि वर्ण-व्यवस्था श्रम प्रबंधन के लिए एक सामाजिक-व्यवस्था का सामान्य विस्तार था । उसमे सभी को अपनी कार्य कुशलता के आधार पर उत्कर्ष के अवसर प्राप्त थे। कई शूद्र वंश के शासकों और अन्य अज्ञात कुलीय क्षत्रियों (जैसे चन्द्रगुप्त) के उत्थान से भी इस कथन की पुष्टि होती हैं।

इतिहास के पन्नों में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो कि अ-क्षत्रीय शासको का भी वर्णन करते हैं जैसे कि सिंध के ब्राह्मण वंश के अन्तिम हिंदू शासक या वर्त्तमान काशी नरेश भूमिहार ब्राह्मणों से सम्बन्ध रखते हैं। भूमिहार ब्राह्मणों के अतिरिक्त सुंग साम्राज्य, हिन्दू-शाही , त्यागी-ब्राह्मण और कोंकणास्थ-ब्राह्मण अन्य अ-क्षत्रीय -राजवंशों के उदाहरण हैं जिन्होंने कालांतर में क्षत्रिय रूप पा लिया था। यह परिवर्तन की परम्परा आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक चला आया हैं। विलियम क्रूक ने ब्रिटिश शासन-काल में ही मिर्जापुर में सिंगरौली के राजा के खारवार जाति से को वनवासी क्षत्रिय के रूप में परिवर्तन का जिक्र किया हैं। इसी प्रकार ब्रिटिश कर्नल स्लीमन ने अपने यात्रा संस्मरण "जर्नी थ्रू अवध (Journey through Oudh)" में भी एक पासी समुदाय के व्यक्ति द्वारा अपनी पुत्री के पुअर जाति में विवाह के बाद क्षत्रिय वंशी हो जाने की जानकारी दी हैं। विलियम क्रूक ने अवध में ही अन्य वर्ण परिवर्तन के विषय में भी वर्णन किया हैं । इन घटनाओ मे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सभी वर्णों में अन्य अवैदिक समुदायों और जनजातियों से आगमन होता रहा हैं। (पिछली चर्चा में हम जन-मान्यताओं में ब्राह्मण शासक के शूद्र परिवर्तन देख चुके हैं - ह्वेन त्सांग यात्रा के दौरान सिंध नरेश)। अवध की ही कुछ प्रमुख वर्ण परिवर्तन की घटनाओं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य -
  1. चंद्रवंशी और नागवंशी शासको में बघेल, अह्बन आदि समुदाय में अन्य शासक जातियाँ स्वीकृत हुई।
  2. क्षत्रिय राजाओं में वंश-परम्परा की समाप्ति के भय पर दासी पुत्र अथवा अन्य अन्य जातियों से दत्तक पुत्र लेने की परम्परा रही हैं। (जोकि वर्ण के जन-स्वीकृत परिवर्तनीय रूप को ही दर्शाता हैं। जन्म से वंश में होना अनिवार्यता नहीं थी। )
  3. असोथर के राजा भगवंत राय द्वारा लगभग ढाई शताब्दियों पहले लुनिया समुदाय (नमक व्यवसायी) के एक व्यक्ति को मिश्रा ब्राह्मण बनाना।
  4. इसी प्रकार प्रतापगढ़ के तत्कालीन नरेश राजा मानिकचंद द्वारा सवा-लाख ब्राह्मणों की आवश्यकता के लिए कुंडा ब्राह्मणों का निर्माण।
  5. इस तरह के प्रकरण तिर्गुनैत ब्राह्मण, अंतर के पाठकों, हरदोई के पाण्डेय प्रवर, गोरखपुर और बस्ती के सवालाखिया ब्राह्मण के सम्बन्ध में भी मिलते हैं।
  6. इसी प्रकार वैश्य समुदाय में भी कई जातियों के मिलने का उल्ल्लेख किया हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ऐतिहासिक तौर पर भी वर्ण-व्यवस्था की दीवारें उतनी अभेद्य नहीं हैं। पुरातन काल से ही वर्ण की परिभाषा और उसकी परिधि का विस्तार समय की मांग के अनुसार बदलता रहा हैं। संभवतः यही वर्ण-व्यवस्था का वह रूप हैं जिसने इस प्रथा को युगों-युगों तक जीवित रखा हैं। सभी वर्गों के उत्थान की भावना और उन्हें अंगीकार करके उन्हें समान अवसर प्रदान करने के अपने इस स्वरुप के कारण ही यह काल के अनुसार स्वयं को ढाल पाई। अन्य प्रारंभिक सभ्यताएँ कर्म की आवश्यकता से शुरू अवश्य हुई थी किंतु भारतीय वर्ण-व्यवस्था की तरह सभी को समान अवसर न प्रदान कर पाने की वजह से उनका ह्रास हो गया (पुरोहितों और सम्राटों की प्रजा शोषण की नितियां और अन्य समुदायों को आत्मसात न कर पाना एक बड़ा कारक रहा)। अपने कर्म-बोधक स्वरुप के कारण ही यह व्यवस्था न केवल स्वयं को जीवित रख पाई बल्कि इसमें अन्य जनजातियों को कर्म के आधार पर सम्मलित होने देने से इसका विस्तार और विकास भी हुआ। जे सी नेसफिल्ड ने अपनी पुस्तक "ब्रीफ वियूस ऑफ़ दा कास्ट सिस्टम ऑफ़ दा नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध" में भी इस विषय पर विचार रखते हुए कहा हैं कि "जनजातीय कबीलों और परिवारों को जिस भावना ने जाति के रूप में बांधे रखा वह पंथ-सम्प्रदाय की भावना या सगोत्रीय (पारिवारिक) भावना से अधिक कर्मगत समानता ही थी। कर्मात्मक केवल कर्मात्मक समानता ही जाति व्यवस्था के निर्माण की अवधारणा थी। " यह बात अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं से भी सिद्ध होती हैं जैसे महर्षि वेदव्यास और विचित्रवीर्य व चित्रांगद के भ्राता होते हुए भी ब्राह्मण और क्षत्रिय रूप; इसी प्रकार गोरखनाथ मठ के क्षत्रिय उत्तराधिकारी को संत रूप नें मानना आदि।

इस सम्बन्ध में सबसे सहज प्रश्न जो आता हैं कि वर्त्तमान में जगह-जगह दलित शोषण का जो विकृत रूप देखने को मिलता हैं; उसके कारण क्या हैं? मैक्स मूलर के विचार इस बारे में महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रदान करते हैं - उसके अनुसार बौध और जैन धर्म के कारण हुए ह्रास के बाद जब वैदिक धर्म का पुनर्जागरण हुआ तब हिंदू वैदिक (ब्राह्मण वादी व्यवस्था) ने कठोरता से अपने मत का अनुपालन करना शुरू किया। मेरे विचार से यह व्यवस्था और कट्टर अन्य गैर-भारतीय धर्मों के प्रभाव और उससे बचाव के कारण भी हुई होगी। हम मनु-स्मृति सम्बंधित अपनी चर्चा में भी इसी प्रकार के विचार पातें हैं - जब बौध धर्म के बढ़ते प्रभाव के कारण मनु-स्मृति के कई अंशो का विस्तार हुआ और साथ ही उनमे कई दंडात्मक नियमो का सृजन हुआ। इसी प्रभाव से कुछ स्थानों पर संभवतः आधुनिक दौर में वर्ण-व्यवस्था ने शोषणात्मक और क्रूर रूप ले लिया हो। किंतु सम्पूर्ण आर्यावर्त पर एक नज़र डालने पर और उसके सामाजिक ढांचे के तर्तिक मूल्यांकन से हमे यह व्यवस्था सर्व कल्याण -सर्व-उत्थान की अधिक प्रतीत होती हैं। हमारी जीवन-शैली, धार्मिक संस्कृति, वैचारिक प्रबुद्धता, सामाजिक दर्शन और वर्षो के निरंतर चले आ रहे रीति-रिवाजों का ताना-बाना हमारी वर्ण-व्यवस्था के इर्द-गिर्द ही बुना हैं और इनमे से कोई भी लेस मात्र भी मानवीय भेदभाव अथवा शोषण की अनुमति नहीं देता है । श्रीमद् भागवत में कहा हैं 'आद्योऽवतार: पुरूष: परस्य' अर्थात् यह संसार भगवान का पहला अवतार हैं । इस सम्पूर्ण जगत -मित्र या शत्रु , जड़ या चेतन, सभी को अपने प्रभु का अंश मानने वाला समुदाय "वसुधैव कुटुंबकम्" और "सर्वेभवन्तु सुखिनः" की भावना के अलावा मानव जाति के लिए कोई और भावः रख ही नहीं सकता।


सहर्ष,
सुधीर

Saturday, August 8, 2009

इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था -भाग २

न वर्णा न वर्णाश्रमाचारधर्मा न मे धारणाध्यानयोगादयोपि।
अनात्माश्रयाहंममाध्यासहानात्‌ तदेकोऽवशिष्ट: शिवः केवलोऽहम्‌॥

जगतगुरु आदि शंकराचार्य द्वारा रचित "दशाश्लोकी" के यह श्लोक
७वी शताब्दी में वर्ण-व्यवस्था की धार्मिक मीमांसा और दर्शन में नगण्यता को दिखता है।

पिछली चर्चा (देखें) में हमने विश्व की सभी पुरातन सभ्यताओं के विकास क्रम में सहज रूप से कर्माधारित सामाजिक वर्गों या वर्णों का निर्माण होना पाया। आज भी विश्व की विभिन्न क्षेत्रो में इस प्रकार के सामाजिक वर्ग देखने को मिल जातें हैं - चाहे वह मेसो अमेरिकन क्षेत्रों में पाया जाने वाला वर्गीकरण हो (पेनिनसुलर, क्रिओल्लो , कास्तिजो , मेस्तिजो , चोलो , मूलतो, इन्डियो , जंबो मराकुचो इत्यादि) या अफ्रीकी महाद्वीप में पाई जाने वाली मंडे , जोनोव , वोलोफ, बोरना और उबुहके जातियाँ ; या हवाई की कहुना, अली'इ, मकाsइनना और कौवा जातियाँ; या इसी प्रकार जापान, चीन, या कोरिया के सामाजिक वर्ग...हर सामाजिक व्यवस्था में इन श्रम आधारित वर्गों का कोई न कोई रूप देखने को मिल ही जाता हैं। साथ ही इन सभी भौगालिक रूप से फ़ैली हुई सभ्यताओं का प्रथम दृष्टया अध्धयन सामान स्वरूप के वही तीन-चार वर्गों को दर्शाता हैं। ऐसे में भारतीय वर्ण-व्यवस्था को धार्मिक (वैदिक अथवा हिंदू) आधार पर स्वीकार करना अनुचित होगा। वस्तुतः यह वयवस्था सामाजिक विकास क्रम की ही स्वाभाविक परिणति हैं।

भारतीय संस्कृति में भी यह व्यवस्था श्रम-आधारित ही थी और इस प्रकार का वर्ग-विभाजन सामाजिक आवश्यकता के कारण ही उत्पन्न हुआ। इसे किसी भी रूप से धार्मिक और वैदिक नहीं माना जा सकता। इसी कारण भारतीय इस्लामिक और ईसाई पद्धतियों में भी जाति का स्वरुप बना रहा । (इसी कारण आज भी दलित ईसाई, मुस्लिम और सिखों की राजनीति भी हिंदू दलितों की तरह अपने परवान पर हैं।) इस विषय पर दक्षिण भारतीय विद्वान "के श्रीनिवासुलु" के विचार भी महत्वपूर्ण हैं - वे वर्ण व्यवस्था का आधार सिद्धान्तिक रूप से सामाजिक मानते हैं न की धार्मिक। "यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया , बर्कली " के "जोर्ज एल हार्ट" द्वारा किए तमिल संगम साहित्य और १००-७०० ईस्वी के बीच रचित अन्य दक्षिण भारतीय सहित्य अध्ययन के अनुसार भी वर्ण व्यवस्था वैदिक नहीं मानी जा सकती। अवैदिक समाज में भी एक प्रकार के वर्ग-विभाजन और पुजारी प्रधान समाज के रूप मिलते हैं (जोर्ज हार्ट के लेख "दक्षिण भारत में जाति के प्रारंभिक साक्ष्य" (Early Evidence for Caste in South India ) के अनुसार)। इस सम्बन्ध में विलियम क्रूक के सम्पूर्ण अवध (और मूल रूप से सारे भारतीय ) के वर्णों के बीच मानवीय संरचना के अध्ययन से (अन्थ्रोपोमेट्री स्टडी - anthropometry study) से निकला गया यह निष्कर्ष कि सभी भारतीय वर्ण एक ही मानव-प्रजाति के संतति हैं और उनमे कोई विजित और पराजित जातियों का मेल नहीं मिलता हैं - यह सिद्ध करता हैं की उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूर्व से लेकर पश्चिम तक वर्ण व्यवस्था का विकास सहज रूप से भारतीय उपमहादीप में हुआ। यहाँ पनपते समाज ने अपनी श्रम की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वर्ण-व्यवस्था का विकास किया। (शूद्र समाज कोई आर्यों से पराजित जाति नहीं हैं।)

भारतीय समाज में कालांतर में उत्त्पन्न हुए मध्यम वर्ग (जैसेकि कायस्त ) भी वर्ण व्यवस्था के कर्मगत रूप को उजागर करता हैं। सामाजिक विकास के साथ जब कृषि और पशु-पालन जैसे प्राथमिक व्यवसायों को छोड़ कर शिल्प, कला और निर्माण जैसे व्यवसायों के विकास हुआ उनके साथ ही वाणिज्य, कर, राजस्व जैसे जटिल प्रक्रियाओं का भी उदय हुआ। इन जटिल सामाजिक विकास क्रम में समाज को एक नए मध्यम वर्ग की आवश्यकता हुई तो लेखाकारों, मुनिमो, महाजनों, धनिकों के नए समुदायों का जन्म हुआ। यह समुदाय चार वर्णों की परिभाषा पर पूर्ण रूपेण खरे नहीं उतरते किंतु यह समाज की आवश्यकता ही थी जिसने इन वर्गों को भी न केवल धार्मिक मान्यता ही दी किंतु साथ ही उन्हें उनके गुणों के आधार पर संकर वर्णों में भी जगह दी। उदाहरणार्थ - कायस्थों को ब्राह्मण और क्षत्रिय का मिला जुला रूप माना गया हैं नाकि मनु-स्मृति के अनुसार उन्हें सूत माना गया । ( स्पष्ट करना चहुँगा कि प्रचलित किम्वदंती के अनुसार - चित्रगुप्त के ब्रह्मा जी के काया से उत्पन्न होने वाले १७ वे पुत्र के नाते कई जगह कायस्थों को ब्राह्मण का ही रूप माना जाता हैं किंतु इस चर्चा में हम मानव इतिहास के आधार पर इस व्यवस्था को परख रहें हैं)।

भारतीय इतिहास के रूप को समझने के लिए प्राचीन काल के विदेशी यात्रियों के विवरण से उपयुक्त स्रोत क्या होगा। विदेशी पर्यटक बिना किसी सामाजिक प्रभाव के एक निष्पक्ष टिपण्णी प्रदान करते हैं। ३०६-२९८ ईसा पुर्व में मेगस्थनीज मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्यूकस का राजदूत बनकर रहा था। उसने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में पाटलिपुत्र नगर की विस्तृत चर्चा की है। इसमे उसने चार वर्णों के स्थान पर सात वर्णों का उल्लेख किया हैं - दार्शनिक, कृषक, चरवाहे (पशु-पालक), शिल्पकार, योद्धा , निरीक्षक (अधिकारी) और मंत्री। इसके अतिरिक्त सम्राट तो प्रमुख होता ही था। इस प्रकार हम उस समाज में चार वर्णों का स्पष्ट रूप नहीं पाते हैं। जो इस बात को उजागर करता हैं कि या तो उस समय इन वर्णों का उदय नहीं हुआ था या फ़िर वे इतनी महत्ता नहीं रखते थे कि वे समाज में स्पष्ट रूप से दिखें। अन्य साक्ष्यों के आधार पर चाणक्य ब्राह्मण था यह बात सर्व-विदित हैं अतः प्रथम सिद्धांत कि उस काल में वर्ण व्यवस्था नहीं थी सत्य नहीं प्रतीत होती हैं। सो उस काल में वर्ण-व्यवस्था के बंधन और नियम उतने कठोरता से नहीं पालन किए जाते थे और उनका कोई भी महत्व नहीं था। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को साधारण सैनिक से सम्राट बनाया किंतु उस समय भी जाति आड़े नहीं आयी। यहाँ तक कि चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी जाति के विभाजान को कहीं भी आधार नहीं बनाया गया हैं।

३९८ ईसवीं में चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन में आने वाले चीनी यात्री फाह्यान ने नालन्दा, पटना, वैशाली आदि स्थानों का भ्रमण किया। उसने भी अपने यात्रा वृतांतों में वर्ण व्यवस्था अथवा जाति प्रथा या समाज के किसी वर्ग के शोषण का उल्लेख नहीं किया हैं। इसी प्रकार ७वीं सदी में (६७३-६९२ ई.) भारत आगमन पर आए चीनी यात्री इत्सिंग के भी यात्रा-वृतांतों में जाति का उल्लेख नहीं मिलता।

हर्षवर्धन के शासनकाल (६४१ ई.) में भारत आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (ह्वेनसांग) ने अपने यात्रा-वृतान्त सी-यू-की में सिन्ध प्रदेश में शूद्र शासक क वर्णन किया हैं। अन्य साक्ष्यों के आधार पर उस समय सिंध में अन्तिम हिंदू शासक राजा दाहिर का शासन था -वे ब्राह्मण वंशज थे (और संभवतः अपनी सौतेली बहन से विवाह के कारण शूद्र माने जाने लगे हों।) । यह तो स्पष्ट नहीं हैं कि ह्वेन त्सांग ने उस शासन को शूद्र की उपाधि क्यों दी किंतु इस वर्णन से यह तो सिद्ध होता ही हैं कि राजकीय कार्य क्षत्रियों तक ही सिमित नहीं थे। उन्हें ब्राह्मण या शूद्र कोई भी कर सकता था।

आंध्र-प्रदेश के शूद्र वंशीय शासकों ने तो स्वयं अपनी शूद्रता पर गर्व करते हुए शिलालेख लगवाये (सिन्गामा-नायक, १३६८)। इनमें तीनो वर्णों से शूद्र वर्ण को शुद्धता के आधार पर श्रेष्ठ माना गया हैं। इसमें लिखा हैं कि जिस प्रकार प्रभु के चरणों से निकल कर गंगा पवित्र हैं वैसे ही ईश्वर के चरणों से उत्पन्न शूद्र भी पवित्र हैं। (के राम शास्त्री, एपिग्रफिया इंडिका संस्करण १३)। इसी प्रकार एक अन्य दक्षिण भारतीय शासक प्रोलाया भी शूद्र वंश में पैदा हुए थे। उन्होंने भी ईश्वर के चरणों से उत्पत्ति को भाग्यशाली मानते हुए कहा कि "पुंसः पुरानास्य पदादुदिर्नाम वर्णं यामाहु कलिकलावार्यम" (कुनाल)

इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल शास्त्रों के आधार पर बल्कि भारत के प्रारंभिक और मध्यकालीन इतिहास तक वर्ण व्यवस्था कोई भी जन्मगत आधार पर अवरोध नहीं उत्पन्न करती हैं। यह एक पूर्ण रूपेण सामाजिक व्यवस्था है जिसको धार्मिक ग्रंथों में कर्मगत आधार पर मान्यता तो मिली हैं किंतु उसके अनुपालन में कोई बाध्यता नहीं हैं। सभी वर्णों को सामान अवसर प्राप्त हैं। अपनी आगे की चर्चा में वर्ण व्यवस्था के परिवर्तनीय रूप को देखेंगे।

सादर,
सुधीर

Saturday, August 1, 2009

कर्ण और वर्ण व्यवस्था

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक,
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
-- रामधारी सिंह "दिनकर" (रश्मिरथी)


पिछली चर्चा "शास्त्रों के अनुसार वर्ण व्यवस्था - भाग ३ (अन्तिम भाग) " में वर्ण व्यवस्था के मानकों पर विदुर के सम्मान की वार्ता पर श्रधेय अनुराग शर्मा जी (स्मार्ट इंडियन) ने एक सहज प्रश्न किया था - कर्ण और वर्ण व्यवस्था पर उसकी उपेक्षा पर। कर्ण और भीष्म दोनों ही महाभारत के ऐसे पात्र हैं जिनकी पीड़ा और विवशता किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को द्रवित कर जाती हैं। भीष्म ने जहाँ अपना राजपाट, वंश परम्परा को पिता के लिए त्याग दिया और फ़िर उस निर्णय के कारण अपने वंश को नष्ट होते हुए देखा, अपनी इच्छा-मृत्यु के अभिशापित वर से जितना दुखी वे हुए होंगे उतना तो शायद हो कोई हुआ हो ।

इसी प्रकार कर्ण भी अपने जीवन में सैदव ही सत्य और निष्ठां के कसौटी पर कसा गया, प्रेम और ममत्व में छाला गया। कैसा लगता होगा जब आप के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण युद्घ से पहले आपकी माँ, जिसने आपको हमेशा के लिए त्याग दिया हो, आकर आपसे उन भाइयों की जीवन की भिक्षा मांगे जिन्होंने जीवन भर आपका विरोध किया हो। और साथ ही यह भी सम्भावना हो कि जिस युद्घ में आप उन्हें जीवन दान दे रहे हैं उसी में वो आपके प्राण हरने की घोर चेष्ठा करंगे । कैसा लगता होगा जब आपके द्वार पर स्वं इन्द्र आकर आपके शरीर का अंश कवच और कुंडल मांगे, कैसा लगता होगा जब जिस गुरु की निद्रा के लिए आप वृश्चिक-दंश सहें वो ही आपको शाप दे दे, अपनी मृत्यु वेदना भुला कर भी अपने दांतों का दान करना पड़े.....ऐसे मित्र-वत्सल, सत्य निष्ठ, महादानी और धनुरश्रेष्ठ महा पराक्रमी वीर से सहानभूति किसी को कैसे नहीं होगी।

वैसे तो विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद और कालांतर में पाण्डु की मृत्यु के बाद, कुरुवंश तो शुद्ध क्षत्रियों का रक्तविहीन हो गया था और उसे संकर वर्ण की ही संताने थी। उस काल में संकर वर्ण के इन प्रतिनिधियों का क्षत्रिय रूप में उभारना और मान्यता प्राप्त करना वर्ण व्यवस्था के कर्मगत स्वभाव को ही दर्शाता हैं। साथ ही महाराज शांतनु के मतस्यगंधा सत्यवती और गंगा (जिसके विषय में शांतनु को कुछ भी ज्ञात नहीं था) से विवाह से लेकर भीम और अर्जुन तक विवाह संबंधों में भी वर्ण व्यवस्था नगण्य प्रतीत होती हैं। ऐसे में उस काल में कर्ण की सूत-पुत्र के रूप में हुई तथाकथित उपेक्षा जातिगत कम और राजनैतिक अधिक प्रतीत होती हैं। कर्ण के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलु जिनमे उसकी जातिगत उपेक्षा प्रतीत होती हैं के विषय में मैं अपने विचार रख रहा हूँ...

कर्ण का जन्म के समय कुंती ने स्वाभाविक रूप से वहीं किया जो कोई भी अविवाहिता लड़की लोक-लाज के भय से करती। अपने कवच और कुंडल की वजह से संभवतः कुंती ने कर्ण को अपने प्रथम साक्षात्कार में ही पहचान लिया हो किंतु राज-माता होते हुए शायद वे अपनी गरिमा को खोना नहीं चाहती हो । वैसे भी कर्ण के लालन-पोषण में उसकी जातिगत उपेक्षा नहीं मिलती हैं। अधिरथ और राधा ने संभवतः कर्ण कभी उसके अज्ञात कुल-वंश की वजह से तिरस्कृत नहीं किया - मेरे ज्ञान में तो ऐसा कोई भी सन्दर्भ नहीं हैं। कर्ण के सूत-पुत्र होने का पहला स्मरण उसकी शिक्षा के साथ आता हैं - जब वह द्रोणाचार्य के पास शिक्षा पाने गया। और द्रोणाचार्य ने यह कहकर उसको मन कर दिया कि वे केवल राज-पुत्रों को शिक्षा दे सकते हैं। इस घटना में कहीं भी वर्ण-व्यवस्था के कारण उसे शिक्षा से वंचित नहीं किया गया। राजकीय सुरक्षा के कारण यह एक सोचा समझा कदम रहा होगा। द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वस्थामा के अतिरिक्त शायद किसी और को शिक्षा न प्रदान करने के लिए बाध्य थे। जबतक द्रोणाचार्य कुरु राजपुत्रों को शिक्षा देने में रत थे तबतक उनके आश्रम से किसी और महाबली को ज्ञान मिला हो इसका वर्णन भी नहीं मिलता हैं। वैसे भी द्रोणाचार्य द्रुपद से प्रतिशोध में इतने संलग्न थे कि वे कुरुकुमारों की शिक्षा जल्द से जल्द पूरी करके अपने अपमान का बदला लेना चाहते थे। ऐसे में कर्ण को विद्यार्थी के रूप में बीच में लेने से उनकी योजनाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता था। कर्ण के द्रोणाचार्य के पास जाकर विद्याथी के रूप में लेने के अनुरोध से ही यह सिद्ध होता हैं कि उस काल में कोई भी योग्य मनुष्य किसी भी गुरु से शिक्षा ले सकता था - सभी को ऐसे सामान अवसर प्राप्त थे और जाति व्यवस्था शिक्षा के क्षेत्र में मान्यता नहीं रखती रही होगी ।

कर्ण के जीवन में जाति का दूसरा प्रकरण तब आता हैं जब परशुराम ने उन्हें झूठी जाति बताने पर शापित किया था। इस घटना के विवेचन पर यहाँ भी कर्ण को निम्न जाति का होने से शाप नहीं मिला था। कर्ण ने परशुराम को जाकर अपनी जाति ब्राह्मण बताई। परशुराम का ब्राह्मण-प्रेम उस युग में भी सर्व-विदित था और कर्ण ने ऐसे में अपने को ब्राह्मण बता कर उनसे दीक्षा ली। यहाँ ये प्रश्न स्वाभाविक हैं कि कर्ण ने अपना अधिकांश शैशव क्षत्रिय के बीच ही बिताया था - ऐसे में उसने स्वं को क्षत्रिय (या वैश्य) क्यों नहीं बताया? परशुराम क्षत्रियों को भी शिक्षा देते थे जैसेकि भीष्म। ऐसे में कर्ण का असत्य अपना वर्ण छिपाने से अधिक अपनी स्वीकृति के अवसर बढ़ाने के अधिक प्रतीत होता हैं। पशुराम का शाप भी कर्ण को उसके झूठ के कारण मिला। परशुराम जब उसे उसके गुणों के आधार पर क्षत्रिय मान रहे थे तब भी कर्ण स्वं ब्राह्मण और तदुपरांत सूत पुत्र कह रहा था। ऐसे में परशुराम को कर्ण की अपने कुल की अनभिज्ञता छल अधिक प्रतीत हुई और उन्होंने कर्ण को शाप दे दिया। यहाँ ध्यान देने योग्य दो बातें हैं - प्रथम, परशुराम द्वारा गुणों के आधार पर जाति का निर्धारण और दूसरी परशुराम का क्षत्रिय विरोधी स्वभाव। जिस प्रकार परशुराम ने अनेको बार क्षत्रिय विरोधी अभियान चलाये उससे उन्हें संभवतः क्षत्रियों से विशेष सावधान रहना पड़ता हो -ऐसे में जब उन्होंने एक छदम-भेषी क्षत्रिय को अपने शिष्य के रूप में पाया तो उनका क्रोध और कठोर दंड स्वाभाविक ही था। परशुराम दंड देते समय भी कर्ण को क्षत्रिय ही मान रहे थे (न कि सूत-पुत्र ) क्योंकि उनका शाप कर्ण को युद्घ में आवश्यकता पड़ने पर विद्या भूल जाने का दंड था। अब यदि सूत-पुत्र के रूप में कर्ण को दंड मिलता तो उसके युद्धरत होने की सम्भावना अत्यन्त क्षीण थी। (उस समय तक तो कर्ण के लिए अंग-राज होने का स्वप्न भी दृष्टव्य नहीं था।) इस प्रकार यहाँ भी जाति व्यवस्था के स्थान पर गुरु-शिष्य व्यवस्था में विश्वास का हनन ही शाप का मूल कारण हैं।

एक अन्य घटना जिसने कर्ण को अंगाधिपति बना दिया भी कर्ण और वर्ण-व्यवस्था की चर्चा के लिए महत्वपूर्ण हैं। जब सारे कुरु-कुमार अपने युद्घ कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे ऐसे में कर्ण ने आकर अर्जुन को द्वंद के लिए ललकारा और कृपाचार्य ने कर्ण के राज-पुरूष न होने के कारण उसे अस्वीकार कर दिया। यहाँ भी कर्ण निम्न वर्ण के होने के वजह से अस्वीकृत नहीं हुए। इसी समय दुर्योधन द्वारा उन्हें अंग का राज दे दिया जाता हैं - सूत-पुत्र होना कर्ण के शासक बनने में आड़े नहीं आता हैं। पूरी सभा में उपस्थित कोई भी विद्वजन (यहाँ तक कि कृपाचार्य और द्रोणाचार्य भी) कर्ण के इस उत्कर्ष पर आपत्ति नहीं करते हैं। विदुर, धृतराष्ट्र, भीष्म या प्रजा कोई भी इस आशय में कोई आपत्ति नहीं रखते हैं। इससे यह तो सिद्ध होता ही हैं कि शासन का अधिकार जन्मगत या कुल/वंश आधारित तो नहीं था।

कर्ण के जीवन में जाति के आधार पर प्रथम और एकमात्र तिरस्कार द्रौपदी के स्वयंवर में मिलता हैं। किंतु इस प्रकरण का भी विश्लेषण इसे राजनैतिक अधिक और जातिगत कम ही उजागर करता हैं। कर्ण जब द्रौपदी के स्वयंवर में मत्स्य भेदन के लिए खड़े होते हैं तब श्री कृष्ण के इशारे पर द्रौपदी कर्ण को सूत-पुत्र कहकर विवाह से मना कर देती हैं। इस घटना के अनेक पहलु हैं किंतु इस बात का उज्जवल पक्ष हैं - उस समय में नारी की विवाह के सम्बन्ध में स्वतंत्रता । कर्ण अन्य शासकों के साथ वहां विवाह के लिए आमंत्रित थे अतः विवाह के लिए जाति सामाजिक रूप से कोई अवरोध नही प्रतीत होती हैं। अब प्रश्न अवश्य ही यह उठता हैं कि द्रौपदी ने विवाह के लिए मना क्यों किया (या कृष्ण ने उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित क्यों किया)। द्रुपद और द्रोणाचार्य की शत्रुता किसी से भी छिपी नहीं थी। साथ ही पांडवों द्वारा द्रुपद विजय के बाद कौरवों में गुरु के लिए कुछ करने के उत्कंठा अवश्य ही रही होगी। श्री कृष्ण तो कौरवों के अमर्यादित, उच्छृंखल और उदंड स्वभाव को जानते ही थे, ऐसे में, यदि द्रुपदी कौरवों या उनके किसी समर्थक के साथ विवाहित होती तो द्रौपदी के अहित की संभावना बनी रहती। कर्ण जो मित्रता के नाते अधर्म का न चाहते हुए भी समर्थन करता रहा (युयुत्सु सा सामर्थ्य सभी में नही होता), किस प्रकार पत्नी रूप में द्रौपदी का अहित रोक पता यह विषय विचारणीय हैं। दूसरी ओर पांडवों के सदैव ही नियंत्रित व्यवहार में ऐसी सम्भावानी क्षीण थी। इस घटना का दूसरा पक्ष यह भी रहा होगा द्रौपदी स्वयं भी इस शत्रुता के चलते कुरु वंश जिसने उनके पिता का अपमान किया हो में न जाना चाहती हों । अर्जुन ने जब द्रौपदी का वरण किया तब द्रौपदी को उनके कुरु वंशज होने का भेद नहीं पता था। वर्ण इतर घरानों में होने वाले कुरु विवाह (शांतनु से लेकर पांडवों तक) और स्वयंवर में कर्ण के निमंत्रण से इस प्रकरण में वर्णाधारित भेदभाव नगण्य प्रतीत होता हैं। द्रौपदी द्वारा कर्ण को मना करना एक सुरक्षात्मक निर्णय था जिसका क्रियान्वयन जाति व्यवस्था की ओट में हुआ परन्तु उस निर्णय में जाति गत विद्वेष नहीं था ।

युद्घ की घड़ी में कर्ण के जाति-गत विरोध के रूप में कुछ प्रबुद्ध जन भीष्म के उस निर्णय को भी लेते हैं जिसमे अपने नेतृत्व में कर्ण को लेने से मना कर दिया था। इस घटना को जाति-गत रूप से देखना भी अनुचित होगा। भीष्म कर्ण के गुरु-भाई भी थे और गुरु के दिए शाप को भी जानते थे संभवतः इसी कारण कर्ण को युद्घ में लाकर क्षति नहीं पहुँचाना चाहते थे। उनको स्वयं इच्छा मृत्यु का वर था और वे चाहते तो सारे पांडवों का विनाश भी कर सकते थे। किंतु वे ह्रदय से पांडवों की विजय चाहते थे। ऐसे में एक और पराक्रमी योद्धा को रण में लाने से पांडवों को भी हानि होती। दोनों ही परिस्थितियों में इस निर्णय को भी जाति-गत नहीं माना जा सकता।

कर्ण का चरित्र आदर्शों से भरा होकर भी अधर्म का मूक समर्थक रहा। और संभवतः यही उसके पतन का कारण भी बना । यश पाकर भी यशस्वी न हो सका। यह जानकर भी कि वह पांडवों और कौरवों में अग्रज होकर भी युद्घ को रोक सकता - मित्र के मान-सम्मान के लिए लड़ता अपनी मृत्यु-शय्या तक दान देता रहा। ऐसे व्यक्तित्व अपने आप में वर्ण वर्गीकरण से कहीं ऊंचा उठ जातें हैं। कर्ण के लिए गुलाल फ़िल्म से कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं -

जीत की हवस नहीं, किसी पर कोई वश नहीं
क्या जिंदगी है ठोकरों पे मार दो ,
मौत अंत है नही तो मौत से भी क्यों डरे?
यह जाके आसमान में दहाड़ दो ।
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