Sunday, August 16, 2009

इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था -भाग ३ (अन्तिम भाग)

"...This hasty survey of historical development of caste sufficiently disposes of the popular theory that caste is permanent institution, transmitted unchanged from dawn of Hindu history and myth"
विलियम क्रूक, "दा ट्राइब्स एंड कॉस्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविन्सस एंड अवध - प्रथम अध्याय।

पिछली चर्चा में हमने भारतीय मध्यम वर्ग के उदय एवं विदेशी यात्रियों के यात्रा -वृतांतों और शिलालेखों के आधार पर पाया कि वर्ण-व्यवस्था श्रम प्रबंधन के लिए एक सामाजिक-व्यवस्था का सामान्य विस्तार था । उसमे सभी को अपनी कार्य कुशलता के आधार पर उत्कर्ष के अवसर प्राप्त थे। कई शूद्र वंश के शासकों और अन्य अज्ञात कुलीय क्षत्रियों (जैसे चन्द्रगुप्त) के उत्थान से भी इस कथन की पुष्टि होती हैं।

इतिहास के पन्नों में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो कि अ-क्षत्रीय शासको का भी वर्णन करते हैं जैसे कि सिंध के ब्राह्मण वंश के अन्तिम हिंदू शासक या वर्त्तमान काशी नरेश भूमिहार ब्राह्मणों से सम्बन्ध रखते हैं। भूमिहार ब्राह्मणों के अतिरिक्त सुंग साम्राज्य, हिन्दू-शाही , त्यागी-ब्राह्मण और कोंकणास्थ-ब्राह्मण अन्य अ-क्षत्रीय -राजवंशों के उदाहरण हैं जिन्होंने कालांतर में क्षत्रिय रूप पा लिया था। यह परिवर्तन की परम्परा आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक चला आया हैं। विलियम क्रूक ने ब्रिटिश शासन-काल में ही मिर्जापुर में सिंगरौली के राजा के खारवार जाति से को वनवासी क्षत्रिय के रूप में परिवर्तन का जिक्र किया हैं। इसी प्रकार ब्रिटिश कर्नल स्लीमन ने अपने यात्रा संस्मरण "जर्नी थ्रू अवध (Journey through Oudh)" में भी एक पासी समुदाय के व्यक्ति द्वारा अपनी पुत्री के पुअर जाति में विवाह के बाद क्षत्रिय वंशी हो जाने की जानकारी दी हैं। विलियम क्रूक ने अवध में ही अन्य वर्ण परिवर्तन के विषय में भी वर्णन किया हैं । इन घटनाओ मे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सभी वर्णों में अन्य अवैदिक समुदायों और जनजातियों से आगमन होता रहा हैं। (पिछली चर्चा में हम जन-मान्यताओं में ब्राह्मण शासक के शूद्र परिवर्तन देख चुके हैं - ह्वेन त्सांग यात्रा के दौरान सिंध नरेश)। अवध की ही कुछ प्रमुख वर्ण परिवर्तन की घटनाओं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य -
  1. चंद्रवंशी और नागवंशी शासको में बघेल, अह्बन आदि समुदाय में अन्य शासक जातियाँ स्वीकृत हुई।
  2. क्षत्रिय राजाओं में वंश-परम्परा की समाप्ति के भय पर दासी पुत्र अथवा अन्य अन्य जातियों से दत्तक पुत्र लेने की परम्परा रही हैं। (जोकि वर्ण के जन-स्वीकृत परिवर्तनीय रूप को ही दर्शाता हैं। जन्म से वंश में होना अनिवार्यता नहीं थी। )
  3. असोथर के राजा भगवंत राय द्वारा लगभग ढाई शताब्दियों पहले लुनिया समुदाय (नमक व्यवसायी) के एक व्यक्ति को मिश्रा ब्राह्मण बनाना।
  4. इसी प्रकार प्रतापगढ़ के तत्कालीन नरेश राजा मानिकचंद द्वारा सवा-लाख ब्राह्मणों की आवश्यकता के लिए कुंडा ब्राह्मणों का निर्माण।
  5. इस तरह के प्रकरण तिर्गुनैत ब्राह्मण, अंतर के पाठकों, हरदोई के पाण्डेय प्रवर, गोरखपुर और बस्ती के सवालाखिया ब्राह्मण के सम्बन्ध में भी मिलते हैं।
  6. इसी प्रकार वैश्य समुदाय में भी कई जातियों के मिलने का उल्ल्लेख किया हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ऐतिहासिक तौर पर भी वर्ण-व्यवस्था की दीवारें उतनी अभेद्य नहीं हैं। पुरातन काल से ही वर्ण की परिभाषा और उसकी परिधि का विस्तार समय की मांग के अनुसार बदलता रहा हैं। संभवतः यही वर्ण-व्यवस्था का वह रूप हैं जिसने इस प्रथा को युगों-युगों तक जीवित रखा हैं। सभी वर्गों के उत्थान की भावना और उन्हें अंगीकार करके उन्हें समान अवसर प्रदान करने के अपने इस स्वरुप के कारण ही यह काल के अनुसार स्वयं को ढाल पाई। अन्य प्रारंभिक सभ्यताएँ कर्म की आवश्यकता से शुरू अवश्य हुई थी किंतु भारतीय वर्ण-व्यवस्था की तरह सभी को समान अवसर न प्रदान कर पाने की वजह से उनका ह्रास हो गया (पुरोहितों और सम्राटों की प्रजा शोषण की नितियां और अन्य समुदायों को आत्मसात न कर पाना एक बड़ा कारक रहा)। अपने कर्म-बोधक स्वरुप के कारण ही यह व्यवस्था न केवल स्वयं को जीवित रख पाई बल्कि इसमें अन्य जनजातियों को कर्म के आधार पर सम्मलित होने देने से इसका विस्तार और विकास भी हुआ। जे सी नेसफिल्ड ने अपनी पुस्तक "ब्रीफ वियूस ऑफ़ दा कास्ट सिस्टम ऑफ़ दा नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध" में भी इस विषय पर विचार रखते हुए कहा हैं कि "जनजातीय कबीलों और परिवारों को जिस भावना ने जाति के रूप में बांधे रखा वह पंथ-सम्प्रदाय की भावना या सगोत्रीय (पारिवारिक) भावना से अधिक कर्मगत समानता ही थी। कर्मात्मक केवल कर्मात्मक समानता ही जाति व्यवस्था के निर्माण की अवधारणा थी। " यह बात अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं से भी सिद्ध होती हैं जैसे महर्षि वेदव्यास और विचित्रवीर्य व चित्रांगद के भ्राता होते हुए भी ब्राह्मण और क्षत्रिय रूप; इसी प्रकार गोरखनाथ मठ के क्षत्रिय उत्तराधिकारी को संत रूप नें मानना आदि।

इस सम्बन्ध में सबसे सहज प्रश्न जो आता हैं कि वर्त्तमान में जगह-जगह दलित शोषण का जो विकृत रूप देखने को मिलता हैं; उसके कारण क्या हैं? मैक्स मूलर के विचार इस बारे में महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रदान करते हैं - उसके अनुसार बौध और जैन धर्म के कारण हुए ह्रास के बाद जब वैदिक धर्म का पुनर्जागरण हुआ तब हिंदू वैदिक (ब्राह्मण वादी व्यवस्था) ने कठोरता से अपने मत का अनुपालन करना शुरू किया। मेरे विचार से यह व्यवस्था और कट्टर अन्य गैर-भारतीय धर्मों के प्रभाव और उससे बचाव के कारण भी हुई होगी। हम मनु-स्मृति सम्बंधित अपनी चर्चा में भी इसी प्रकार के विचार पातें हैं - जब बौध धर्म के बढ़ते प्रभाव के कारण मनु-स्मृति के कई अंशो का विस्तार हुआ और साथ ही उनमे कई दंडात्मक नियमो का सृजन हुआ। इसी प्रभाव से कुछ स्थानों पर संभवतः आधुनिक दौर में वर्ण-व्यवस्था ने शोषणात्मक और क्रूर रूप ले लिया हो। किंतु सम्पूर्ण आर्यावर्त पर एक नज़र डालने पर और उसके सामाजिक ढांचे के तर्तिक मूल्यांकन से हमे यह व्यवस्था सर्व कल्याण -सर्व-उत्थान की अधिक प्रतीत होती हैं। हमारी जीवन-शैली, धार्मिक संस्कृति, वैचारिक प्रबुद्धता, सामाजिक दर्शन और वर्षो के निरंतर चले आ रहे रीति-रिवाजों का ताना-बाना हमारी वर्ण-व्यवस्था के इर्द-गिर्द ही बुना हैं और इनमे से कोई भी लेस मात्र भी मानवीय भेदभाव अथवा शोषण की अनुमति नहीं देता है । श्रीमद् भागवत में कहा हैं 'आद्योऽवतार: पुरूष: परस्य' अर्थात् यह संसार भगवान का पहला अवतार हैं । इस सम्पूर्ण जगत -मित्र या शत्रु , जड़ या चेतन, सभी को अपने प्रभु का अंश मानने वाला समुदाय "वसुधैव कुटुंबकम्" और "सर्वेभवन्तु सुखिनः" की भावना के अलावा मानव जाति के लिए कोई और भावः रख ही नहीं सकता।


सहर्ष,
सुधीर

10 comments:

  1. अरे, अभी पिछले हफ्ते ही सिद्धार्थ से जिस ग्रंथ के बारे में मेरी चर्चा हुई थी, वह शायद यही था। अंग्रेज ने बहुत मेहनत किया। यह वालुमिनस ग्रंथ मेरे कॉलेज की लाइब्रेरी में धूल खा रहा है।
    सालों पहले मैंने अवध प्रांत वाले खण्ड पढ़ डाले थे।

    हिन्दी ब्लॉग जगत से इसे परिचित कराने के लिए धन्यवाद। इस तरह के लेखों से हिन्दी को समृद्ध कर आप ऐतिहासिक काम कर रहे हैं।

    ReplyDelete
  2. यह आपने एक महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा चलाई है।

    इस विषय पर डा. रामविलास शर्मा ने भी खूब लिखा है।

    उनका कहना ही भक्ति आंदोलन इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि वर्ण व्यवस्था या जाति व्यवस्था देश के सामाजिक विकास के साथ-साथ क्षीण पड़ने लगी थी। मुगल काल में लंबे समय तक आर्यावर्त में (आजकल के हिंदी प्रदेश में) शांति स्थापित हो गई थी, और व्यापार, उद्योग आदि खूब विकसित होने लगे थे। आगरा, दिल्ली आदि बड़े-बड़े उद्योग केंद्र के रूप में विकसित हो गए थे, जहां लाखों लोग, विभिन्न जातियों के, एक साथ काम करते थे। ऐसे में जाति का कोई महत्व नहीं रह गया था।

    पुराना ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था इस औद्योगिक विकास में बाधक थी, इसीलिए भक्ति आंदोलन फूट निकला जिसने मनुष्य की एकता और जाति विभाजन की निरर्थकता को रेखांकित किया।

    उसके बाद अंग्रेज आए और उन्होंने विधिवत भारत की औद्योगिक प्रगति को ध्वंस किया। इससे दिल्ली, आगरा, लखनऊ, आदि औद्योगिक केंद्र नष्ट हो गए और बंगल भूख से मरे बुनकरों की हड्डियों से सफेद पड़ गया।

    डा. शर्मा का कहना है कि इससे भारत का औद्योगिकीरण तो पीछे धकेला गया ही, बड़े शहरों के उजड़ने से आबादी का ग्रामीणीकरण भी हो गया, अर्थात शहरों में रोजगार नष्ट हो जाने के कारण शहरी आबादी को जबरन गांव में चला जाना पड़ा।

    आज हम हमारे ग्रामीण इलाकों में जो अतिरिक्त आबादी देखते हैं, वह भी अंग्रेजों के द्वारा हमारे उद्योगों और शहरों के नष्ट किए जाने के कारण है।

    औद्योगिकीकरण पीछे धकेल दिए जाने और भारत एक बार फिर ग्रमीण देश बना दिए जाने पर, भक्ति आंदोलन ने जो ऊंच-नीच को निरस्त करनेवाली बयार चलाई थी, वह भी धीमी पड़ गई और जाति-पांति का टंटा एक बार भी मजबूत हो गया। इसे मजबूत करने में अंग्रेजों की बांटो और राज करो वाली राजनीति ने भी सक्रिय भूमिका निभाई।

    यह डा. शर्मा द्वारा प्रस्तुत तर्कों का अत्यंत सरलीकृत व्याख्या है। पूरी जानकारी के लिए उन्हीं किताबों में पढ़ें।

    ReplyDelete
  3. बहुत महत्वपूर्ण आलेख. जहां इस तरह के शोधपरक आलेख जातियों की पौराणिक उत्पत्ति सम्बन्धी मिथ को तोड़ते है, आज अधिकाँश जातियाँ झूठे दंभ का पोषण कर एक पूर्व-पुरुष की खोज में लगी है.
    आपने महत्वपूर्ण बात की तरफ इशारा किया कि ब्राहमणों की उत्पत्ति स्थानीय है और स्थानीय ज़रूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से दीक्षित हुई है. मैदानी उत्तर भारत में ब्राहमणों की हजारों उपजातियां इसका प्रमाण है जो परस्पर विवाह नहीं करती.

    ReplyDelete
  4. आपकी यह आलेख श्रृंखला महत्वपूर्ण है । पढ़ नहीं पाया था अनुपस्थिति के कारण । पूरा पढ़ लूँ पहले ।

    ReplyDelete
  5. पूरी श्रंखला पढी. बहुत अच्छी जानकारी मिली. मन में बरसों से बैठे हुए कुछ और प्रश्न हैं शायद आप ही उनका उत्तर दे सकें. समय आने पर पूछता हूँ.
    धन्यवाद!

    ReplyDelete
  6. बहुतघत्वपूर्ण जानकारी है मुझे अभी पिछले आलेख भी पढने हैं धन्यवाद्

    ReplyDelete
  7. बेहतरीन प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
    मैनें अपने सभी ब्लागों जैसे ‘मेरी ग़ज़ल’,‘मेरे गीत’ और ‘रोमांटिक रचनाएं’ को एक ही ब्लाग "मेरी ग़ज़लें,मेरे गीत/प्रसन्नवदन चतुर्वेदी"में पिरो दिया है।
    आप का स्वागत है...

    ReplyDelete
  8. सोचिये महान क्रुक जैसे व्यक्तियों ने हमारी जातियों के बारे में न लिखा होता तो...........खैर कुछ मौजूदा हालातो पर भी लिखिये न कि नकल और अनुवाद, आप बड़ी मेहनत कर रहे है किन्तु इन अंग्रेजों के जाने की बाद का ६० वर्ष का इतिहास कौन लिखेगा यदि हम पुराने का ट्रान्सलएशन ही करते रहे

    ReplyDelete
  9. राबर्ट वेन रसेल के बारे में क्या खयाल है करी रहे है तो उनका भी कर डालिये,वैसे कुछ आज़ की दशा पर अपना शोध प्रस्तुत करे तो कम से कम ६० सालों का गैप भर जाये.....

    ReplyDelete

Blog Widget by LinkWithin