Monday, February 1, 2010

आभार: जे पर भनिति सुनत हरषाहीं | ते बार पुरुष बहुत जग नाहीं ||

निज कबित्त केहि लाग न नीका | सरस होउ अथवा अति फीका ||
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं | ते बार पुरुष बहुत जग नाहीं ||
जग बहु नर सर सरि सम भाई | जे निज बाढी बढ़हिं जल पाई ||
सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई | देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई ||
तुलसीदास, रामचरित मानस बालकांड
रसीली हो या फीकी अपनी रचना (कविता) किसे अच्छी नहीं लगती. किन्तु दूसरे की रचना से प्रसन्न होने वाले लोग इस जग में अधिक नहीं है. बंधु, इस जग में ताल और नदियों के समान ही मनुष्य बहुत हैं जोकि  अपनी बाढ़ से बढ़ते हैं किन्तु सागर के समान चन्द्र की सुन्दरता (दूसरे की सुन्दरता) पर मोहित होकर बढ़ने वाले मनुष्य विरले ही होते हैं..


वैसे तो मैंने इस चिठ्ठे की शुरुआत अप्रैल २००९ में की थी किन्तु जब आज हिंदी चिठ्ठाकारिता में मैं एक वर्ष पूर्ण कर रहा हूँ तो सोचा कि यहाँ भी बीते एक वर्ष पर नज़र डाली जाए और उन सभी गुणी जनों का आभार व्यक्त किया जाएँ जिन्होंने मेरे इस शोध-अन्वेषण और खोज के पुनीत कार्य में प्रोत्साहन दिया, उन समीक्षकों का अभिनन्दन किया जाए जिन्होंने इस कार्य को पथ-भ्रष्ट होने से बचाए रखा. उन सहयोगियों का सम्मान किया जाए जिन्होंने समय-समय पर जानकारी के नए स्रोतों का ज्ञान दिया. जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा कि चन्द्र पर मोहित होकर खुशियों से बढ़ने वाले सागर विरले हो होते हैं किन्तु यहाँ आप सभी ने मुझे अपने स्नेह-वृष्टि से सदैव ही प्रेरित रखा.

अपने पिताजी से मिले पत्रों के खजाने, कुछ अपने शास्त्रों के कच्चे पक्के अध्ययन और चंद वंशावलियों को लेकर मैंने सोचा था जो भी हैं उसे लिखकर सबसे सार्वजानिक कर दूं और फिर प्रबुद्ध पाठक-गण मेरी त्रुटियों को सुधरेंगे और  सार्वजनिक ज्ञान से एक विस्तृत ज्ञान कोष निर्मित होगा. किन्तु मेरी हालात मेरी समझ के बढ़ने के साथ-साथ ऐसी होती आगयी की मानो एक दीप जला कर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देखने की कामना कर डाली हो...वो कहते हैं न कि  "The more I know, the more I know I don't know " वाली स्थिति मेरी हो गई. गत आगस्त में "इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था -भाग ३ (अन्तिम भाग)" का लेख लिखने के बाद ब्राहमणों के विकास क्रम पर लिखने की योजना थी किन्तु उस लेख के लिए जो शोध चल रहा था उससे कई और पुस्तकों का आधार मिला उन पुस्तकों से अन्य पुस्तकों का... जिज्ञासु मन वर्ण व्यवस्था को इतिहास की दृष्टि से देखना भूला ही नहीं पाया....ऐसा नहीं था कि मैं आगे नहीं लिख सकता था किन्तु ज्ञान का ऐसा खजाना हाथ लगा था कि उचित लगा कि कुछ दिन रुक कर अपनी नहीं दुनिया की भी द्रष्टि समझी जाए. आखिर सामूहिक ज्ञान का कोश बनाना ही तो हमारा ध्येय था और उसके के लिए अत्यंत आवश्यक था कि सभी का पक्षों का निष्पक्ष रूप से समावेश हो...आजकल जिन पुस्तकों में डूबा हुआ हूँ वो निम्न हैं...
  • Caste, Occupation And Politics On The Ganges: Passages Of Resistance  ( Series - Anthropology And Cultural History In Asia And The Indo-pacific )
  • From Vedic Altar to Village Shrine: Towards an Interface between Indology and. Anthropology. Edited by Yasuhiko Nagano and Yasuke Ikari
  • Caste, Culture And Hegemony: Social Dominance In Colonial Bengal by Sekhar Bandyopadhyay  
 इन पुस्तकों के अतिरिक्त भी कुछ पुस्तकों का पुस्तकालय से आने की प्रतीक्षा है. किन्तु इन सबसे एक तथ्य तो निकलकर आता ही है और वो हैं जल्द ही आपको वर्ण-व्यवस्था और इतिहास या पश्चिमी दृष्टिकोण जैसे विषय पर निबंध मिलने वाले हैं....

मेरे वर्तमान शोध अभी उदगम से निकाली हुई उस पहाड़ी नदी की तरह है जिसे अपनी उर्जा और शक्ति पर आस्था हैं किन्तु सागर रुपी लक्ष्य को पाने के लिए कितनी दूरी तय करनी हैं पता नहीं...मुझे यह भी नहीं मालुम कि मेरे इस कार्य को कई बुद्धिजीवी कैसे देखेंगे (कई ईमेल और लेख तो मुझे यदा कदा मिलते ही रहते हैं) मैं उन सभी आलोचकों को यह विश्वास दिलाना चाहूँगा कि यह एक "खोज" हैं अपनी जड़ों को समझने की..एक प्यास हैं उस व्यवस्था के अध्ययन की जिसने युगों युगांतर तक एक संस्कृति को जीवित रखा...आप सभी आलोचकों से मैं तुलसी के ही शब्दों में कहूँगा -
 सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह |
ससि सोषक  पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह||

जिस प्रकार एक माह के दोनों पखवाड़े समान प्रकाश देने के बावजूद मनुष्य के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से प्रकाश पक्ष और शुकल पक्ष प्रतीत होते हैं. उसी प्रकार यदि आपको मेरे प्रयास में कोई त्रुटि दिखती है तो वह अपने अपने दृष्टिकोण के कारण हो सकता है. इस आशा के साथ कि हम जल्द ही कुछ और निबंधों के साथ मिलेंगे....

सादर,
सुधीर

Sunday, August 16, 2009

इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था -भाग ३ (अन्तिम भाग)

"...This hasty survey of historical development of caste sufficiently disposes of the popular theory that caste is permanent institution, transmitted unchanged from dawn of Hindu history and myth"
विलियम क्रूक, "दा ट्राइब्स एंड कॉस्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविन्सस एंड अवध - प्रथम अध्याय।

पिछली चर्चा में हमने भारतीय मध्यम वर्ग के उदय एवं विदेशी यात्रियों के यात्रा -वृतांतों और शिलालेखों के आधार पर पाया कि वर्ण-व्यवस्था श्रम प्रबंधन के लिए एक सामाजिक-व्यवस्था का सामान्य विस्तार था । उसमे सभी को अपनी कार्य कुशलता के आधार पर उत्कर्ष के अवसर प्राप्त थे। कई शूद्र वंश के शासकों और अन्य अज्ञात कुलीय क्षत्रियों (जैसे चन्द्रगुप्त) के उत्थान से भी इस कथन की पुष्टि होती हैं।

इतिहास के पन्नों में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो कि अ-क्षत्रीय शासको का भी वर्णन करते हैं जैसे कि सिंध के ब्राह्मण वंश के अन्तिम हिंदू शासक या वर्त्तमान काशी नरेश भूमिहार ब्राह्मणों से सम्बन्ध रखते हैं। भूमिहार ब्राह्मणों के अतिरिक्त सुंग साम्राज्य, हिन्दू-शाही , त्यागी-ब्राह्मण और कोंकणास्थ-ब्राह्मण अन्य अ-क्षत्रीय -राजवंशों के उदाहरण हैं जिन्होंने कालांतर में क्षत्रिय रूप पा लिया था। यह परिवर्तन की परम्परा आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक चला आया हैं। विलियम क्रूक ने ब्रिटिश शासन-काल में ही मिर्जापुर में सिंगरौली के राजा के खारवार जाति से को वनवासी क्षत्रिय के रूप में परिवर्तन का जिक्र किया हैं। इसी प्रकार ब्रिटिश कर्नल स्लीमन ने अपने यात्रा संस्मरण "जर्नी थ्रू अवध (Journey through Oudh)" में भी एक पासी समुदाय के व्यक्ति द्वारा अपनी पुत्री के पुअर जाति में विवाह के बाद क्षत्रिय वंशी हो जाने की जानकारी दी हैं। विलियम क्रूक ने अवध में ही अन्य वर्ण परिवर्तन के विषय में भी वर्णन किया हैं । इन घटनाओ मे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सभी वर्णों में अन्य अवैदिक समुदायों और जनजातियों से आगमन होता रहा हैं। (पिछली चर्चा में हम जन-मान्यताओं में ब्राह्मण शासक के शूद्र परिवर्तन देख चुके हैं - ह्वेन त्सांग यात्रा के दौरान सिंध नरेश)। अवध की ही कुछ प्रमुख वर्ण परिवर्तन की घटनाओं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य -
  1. चंद्रवंशी और नागवंशी शासको में बघेल, अह्बन आदि समुदाय में अन्य शासक जातियाँ स्वीकृत हुई।
  2. क्षत्रिय राजाओं में वंश-परम्परा की समाप्ति के भय पर दासी पुत्र अथवा अन्य अन्य जातियों से दत्तक पुत्र लेने की परम्परा रही हैं। (जोकि वर्ण के जन-स्वीकृत परिवर्तनीय रूप को ही दर्शाता हैं। जन्म से वंश में होना अनिवार्यता नहीं थी। )
  3. असोथर के राजा भगवंत राय द्वारा लगभग ढाई शताब्दियों पहले लुनिया समुदाय (नमक व्यवसायी) के एक व्यक्ति को मिश्रा ब्राह्मण बनाना।
  4. इसी प्रकार प्रतापगढ़ के तत्कालीन नरेश राजा मानिकचंद द्वारा सवा-लाख ब्राह्मणों की आवश्यकता के लिए कुंडा ब्राह्मणों का निर्माण।
  5. इस तरह के प्रकरण तिर्गुनैत ब्राह्मण, अंतर के पाठकों, हरदोई के पाण्डेय प्रवर, गोरखपुर और बस्ती के सवालाखिया ब्राह्मण के सम्बन्ध में भी मिलते हैं।
  6. इसी प्रकार वैश्य समुदाय में भी कई जातियों के मिलने का उल्ल्लेख किया हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ऐतिहासिक तौर पर भी वर्ण-व्यवस्था की दीवारें उतनी अभेद्य नहीं हैं। पुरातन काल से ही वर्ण की परिभाषा और उसकी परिधि का विस्तार समय की मांग के अनुसार बदलता रहा हैं। संभवतः यही वर्ण-व्यवस्था का वह रूप हैं जिसने इस प्रथा को युगों-युगों तक जीवित रखा हैं। सभी वर्गों के उत्थान की भावना और उन्हें अंगीकार करके उन्हें समान अवसर प्रदान करने के अपने इस स्वरुप के कारण ही यह काल के अनुसार स्वयं को ढाल पाई। अन्य प्रारंभिक सभ्यताएँ कर्म की आवश्यकता से शुरू अवश्य हुई थी किंतु भारतीय वर्ण-व्यवस्था की तरह सभी को समान अवसर न प्रदान कर पाने की वजह से उनका ह्रास हो गया (पुरोहितों और सम्राटों की प्रजा शोषण की नितियां और अन्य समुदायों को आत्मसात न कर पाना एक बड़ा कारक रहा)। अपने कर्म-बोधक स्वरुप के कारण ही यह व्यवस्था न केवल स्वयं को जीवित रख पाई बल्कि इसमें अन्य जनजातियों को कर्म के आधार पर सम्मलित होने देने से इसका विस्तार और विकास भी हुआ। जे सी नेसफिल्ड ने अपनी पुस्तक "ब्रीफ वियूस ऑफ़ दा कास्ट सिस्टम ऑफ़ दा नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध" में भी इस विषय पर विचार रखते हुए कहा हैं कि "जनजातीय कबीलों और परिवारों को जिस भावना ने जाति के रूप में बांधे रखा वह पंथ-सम्प्रदाय की भावना या सगोत्रीय (पारिवारिक) भावना से अधिक कर्मगत समानता ही थी। कर्मात्मक केवल कर्मात्मक समानता ही जाति व्यवस्था के निर्माण की अवधारणा थी। " यह बात अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं से भी सिद्ध होती हैं जैसे महर्षि वेदव्यास और विचित्रवीर्य व चित्रांगद के भ्राता होते हुए भी ब्राह्मण और क्षत्रिय रूप; इसी प्रकार गोरखनाथ मठ के क्षत्रिय उत्तराधिकारी को संत रूप नें मानना आदि।

इस सम्बन्ध में सबसे सहज प्रश्न जो आता हैं कि वर्त्तमान में जगह-जगह दलित शोषण का जो विकृत रूप देखने को मिलता हैं; उसके कारण क्या हैं? मैक्स मूलर के विचार इस बारे में महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रदान करते हैं - उसके अनुसार बौध और जैन धर्म के कारण हुए ह्रास के बाद जब वैदिक धर्म का पुनर्जागरण हुआ तब हिंदू वैदिक (ब्राह्मण वादी व्यवस्था) ने कठोरता से अपने मत का अनुपालन करना शुरू किया। मेरे विचार से यह व्यवस्था और कट्टर अन्य गैर-भारतीय धर्मों के प्रभाव और उससे बचाव के कारण भी हुई होगी। हम मनु-स्मृति सम्बंधित अपनी चर्चा में भी इसी प्रकार के विचार पातें हैं - जब बौध धर्म के बढ़ते प्रभाव के कारण मनु-स्मृति के कई अंशो का विस्तार हुआ और साथ ही उनमे कई दंडात्मक नियमो का सृजन हुआ। इसी प्रभाव से कुछ स्थानों पर संभवतः आधुनिक दौर में वर्ण-व्यवस्था ने शोषणात्मक और क्रूर रूप ले लिया हो। किंतु सम्पूर्ण आर्यावर्त पर एक नज़र डालने पर और उसके सामाजिक ढांचे के तर्तिक मूल्यांकन से हमे यह व्यवस्था सर्व कल्याण -सर्व-उत्थान की अधिक प्रतीत होती हैं। हमारी जीवन-शैली, धार्मिक संस्कृति, वैचारिक प्रबुद्धता, सामाजिक दर्शन और वर्षो के निरंतर चले आ रहे रीति-रिवाजों का ताना-बाना हमारी वर्ण-व्यवस्था के इर्द-गिर्द ही बुना हैं और इनमे से कोई भी लेस मात्र भी मानवीय भेदभाव अथवा शोषण की अनुमति नहीं देता है । श्रीमद् भागवत में कहा हैं 'आद्योऽवतार: पुरूष: परस्य' अर्थात् यह संसार भगवान का पहला अवतार हैं । इस सम्पूर्ण जगत -मित्र या शत्रु , जड़ या चेतन, सभी को अपने प्रभु का अंश मानने वाला समुदाय "वसुधैव कुटुंबकम्" और "सर्वेभवन्तु सुखिनः" की भावना के अलावा मानव जाति के लिए कोई और भावः रख ही नहीं सकता।


सहर्ष,
सुधीर

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