प्रसंगवश, मुझे गुलजार की एक कविता "छाँव-छाँव" याद आती हैं -
मैं छाँव-छाँव चला था अपना बदन बचाकर कि रुह को एक खूबसूरत-सा जिस्म दे दूँ
मगर तपी जब दोपहर दर्दों की, दर्द की धूप से जो गुज़रा तो रुह को छाँव मिल गयी हैं
अजीब हैं दर्द और तस्कीं का साँझा रिश्ता मिलेगी छाँव तो बस कहीं धूप में मिलेगी
ठीक इसी प्रकार श्रम-विभाजन एवं सामाजिक स्थिरता के महती उद्देशों से प्रेरित आर्यवर्त में वर्ण व्यवस्था का अभिर्भाव हुआ होगा । कुछ समय तक इसके वास्तविक रूप का पालन भी हुआ होगा। साथ ही प्रारंभिक रूप और भावना को जीवंत रखने का भी प्रयास भी हुआ होगा किंतु समय के साथ इसमे व्यतिगत स्वार्थ, शक्ति लोलुपता, झूठे अहम् और अज्ञानता के कारणों से शोषण, द्वेष, वंशवाद जैसे अवसाद आ गए। किंतु आज इन्ही अवसादों के कारण उस मूल -आधारभूत कारकों को समझना आवश्यक हैं जिनके फलस्वरूप इस व्यवस्था जन्म हुआ। साथ अवसादों की धूप से ही उन कारको की छाँव का महत्व उजागर हो पायेगा।
वर्ण व्यवस्था मूलतः न तो जन्मगत हैं और न ही शोषणात्मक व्यवस्था। किसी भी समाज की स्थिरता के लिए उसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामूहिक निर्भरता दोनों ही सुनिश्चित करनी होती हैं (गाँधी जी, दा वर्ड्स ऑफ़ गाँधी)। वर्ण व्यवस्था का स्थायित्व उसकी इन्ही दोनों मापदंडों पर सफलता का द्योतक हैं।
यह व्यवस्था सहस्राब्दियों से चली आ रही हैं। यदि यह व्यवस्था प्रारम्भ से ही एक भी वर्ग के शोषण का कारक होती तो इसके विरूद्व सदियों पहले विद्रोह हो चुका होता। यदि समाज का एक विशालकाय भाग शोषित होता तो उसने इस व्यवस्था के विरूद्व विद्रोह किया होता। मनु के नियमो में यदि सभी वर्गों के उत्थान की भावना नहीं होती तो इनका विस्तार और अनुमोदन सम्पूर्ण आर्यावर्त में नहीं होता और यदि होता भी और यदि यह व्यवस्था शोषणात्मक और विद्वेषपूर्ण होती तो इसके विरोध में स्वर अवश्य हो प्रखर होते.... इस व्यवस्था का वर्त्तमान रूप अवश्य ही बाह्य समाज के मेलजोल से उत्पन्न हुआ होगा। समाज के कर्मगत रूप को देखते हुए ही १८ शताब्दी तक इन वर्णों में जनजातियों से लोग जुड़ते रहे साथ ही इस वर्ण के लोग दुसरे वर्ण में जाते रहे हैं।
इतिहास साक्षी हैं कि कोई भी वर्ग विशेष या व्यवस्था जन समूह को दबाकर, शोषण करके अधिक समय तक नहीं चल पाई हैं ... चाहे वो फ्रांस की जनक्रांति हो, या रूस का ज़ार के विरूद्व विद्रोह या अमेरिका की स्वतंत्रता प्रेमी समुदाय। रंगभेद की नीति, गुलाम प्रथा इन सभी के विरूद्व एक जनादोलन हुआ। यहाँ तक कि साम्यवाद के शोषणात्मक पहलू के कारण उसकी सामूहिक उत्थान की भावना की अनदेखी करके भी जन साधारण ने उसका तिरस्कार कर दिया। अंग्रेज भी अपने अथक प्रयासों के बाद भी भारत पर २०० वर्ष से ज्यादा पाँव नही टिका पाए क्योकि उनके साम्राज्य में सभी को उत्थान के सामान अवसर नहीं प्राप्त थे। ऐसे में एक व्यवस्था कम से कम ५००० वषों से यदि स्वं को जीवित रखे हुए हैं तो अवश्य ही उसमे सभी वर्णों के लिए अग्रसारित होने के अवसर रहे होंगे। अतः यह वर्ण व्यवस्था के दीघ्रकालिक स्वरुप से ही सिद्ध हो जाता हैं कि इसमें सामाजिक वैमनस्य, विद्वेष अथवा शोषण का कोई स्थान नहीं रहा होगा।
इतना अवश्य हैं कि कई स्थानों पर इस व्यवस्था को अपनी (झूठी) श्रेष्टता सिद्ध करने के लिए (या अपने अज्ञान या स्वार्थ के कारण ) कई वर्गों ने ,जिनमे क्षत्रिय, ब्राह्मण सम्मिलित हैं, ग़लत रूप से प्रयोग किया। इस पर मुझे गाँधी जी का कथन याद आता हैं - "...आजकल सभी नैतिकता पर अपना अधिपत्य ज़माने लगें वो भी बिना किसी स्वध्धाय, आत्म अनुशासन के... शायद यही कारण हैं आज विश्व में फैली असत्यता (अराजकता ) का ...." । संभवतः वर्ण व्यवस्था के तथाकथित कुछ प्रतिनिधियों ने भी यह ही किया हो जिस कारण यह व्यवस्था अपने मूल उद्देशों से विमुख हो गयी हो ...पर ये भी सत्य हैं कि इस प्रकार के व्यवहार पिछले कुछ शताब्दियों में ही हुआ हैं। पर जो भी हो यह तो सभी प्रबुद्ध जन मानेगे कि किसी मनुष्य का शोषण करके कोई भी भद्र जीव गौरान्वित नहीं हो सकता। ब्राहण व्यवस्था के इसी ह्रास से द्रवित होकर मैथली शरण गुप्त ने कहा था -
आज यह और भी आवश्यक हो जाता हैं कि हम आत्म मंथन करें... कोशिश करे यह समझने की कि वे क्या कारण थे जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को स्थायित्व दिया। आज हम कहाँ भटक गए हैं... जहाँ तक विश्लेषण का प्रश्न हैं यह तो सभी को व्यक्तिगत रूप से करना होगा किंतु मैं वर्ण व्यवस्था का शास्त्रीय और एतिहासिक रूप अपने ज्ञान के अनुसार रखने का प्रयास करूँगा।
अब ब्राह्मण जन्म गाथा की चर्चा अगले माह (जून) ही शुरू करूँगा लेकिन उससे पहले "ब्राह्मण व्यवस्था (वर्ण व्यवस्था)" पर अपने विचार प्रस्तुत करना चाहूँगा। आशा हैं आप मेरे इस भटकाव को क्षमा करेंगे। साथ ही इस विषय पर अपने उर्जावान एवं विविध विचारो से चर्चा को सार्थकता प्रदान करेंगे। तुलसीदास जी के शब्दों में कहना चाहूँगा....
मति अति नीच ऊँचि रूचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरी ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥
उदिग्न हृदय किंतु विचारमग्न ....
आपका स्नेहाकांक्षी,
सुधीर