Sunday, May 17, 2009

ब्राह्मण: एक परिचय (भाग ३) - वर्तमान परिवेश में ब्राह्मण

चर्चा प्रारम्भ करने के पूर्व कुछ विचार पिछली चर्चा से - मैंने कर्म श्रेष्टता के आधार पर नेतृत्व करने वाले ब्राह्मण वर्ग के विस्मरण एवं कालांतर में जन्म की व्यवस्था के आधार पर उनके वर्गीकरण और वर्तमान में उनके सामाजिक तिरस्कार की बात करनी चाही थी। संभवतः मेरे शब्दों ने विचारों का प्रतिबिम्ब अपेक्षित रूप से साकार नहीं किया। किंतु इष्ट देव सांकृत्यायन जी का मैं अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने मेरे शब्दों का उचित विश्लेषण प्रदान किया। साथ ही में उन सभी श्रद्धेय टिपण्णीकर्ताओं का धन्यवाद करना चाहूँगा जिन्होंने मेरे मार्गदर्शन हेतु अपना विरोध या अपना समर्थन देकर इस मंच को सार्थकता दी। गाँधी जी ने एक बार कहा था कि पूर्ण शान्ति सागर का नियम नहीं हैं। और यह नियम जीवन के सागर के लिए भी सत्य हैं" (दा वर्ड्स ऑफ़ गाँधी - रिचर्ड अटटेनबोरो १९८२)। मैं यही बात वैचारिक सागर के बारे में भी कहना चाहूँगा और आशा करता हूँ कि आप सभी भविष्य में भी अपनी वैचारिक लहरों से इस सागर को जीवंत रखेंगे। अपने अग्रज अरविन्द मिश्रा जी के श्रवण-आश्वासन और आगे बढ़ने के आदेश के अनुपालन हेतु अब आज की चर्चा....

वर्तमान परिवेश में, संभवतः, अपने ह्रास होते पुरातन ज्ञान से उपजे क्षोभ, अपने अनादर और उपेक्षा की पीड़ा और साथ ही बढ़ते भौतिकवादी समाज में अध्यात्मिक ज्योति को प्रज्वलित रखने की कशमकश ने ब्राह्मणों को अति रूढिवादी और कर्मकांडी बना दिया। अपने स्वाभिमान और ज्ञान की रक्षा करते-करते कब यह वर्ग मानववादी रूप को छोड़ करे जातिगत विद्वेष और घृणा का अनुगामी हो गया कहा नहीं जा सकता किंतु इतना तो अवश्य ही अनुमानित किया जा सकता हैं कि अवैदिक समाजो और सभ्यताओ के प्रभाव और उनके विरूद्व अपने संस्कारों और अपने अस्तित्व के संघर्ष ने ही इस परिवर्तन को जन्म दिया होगा। परमहंस योगानन्द जी ने भी (वर्तमान) सामाजिक वर्गीकरण के इस रूप को अवैदिक ही माना हैं (कोन्वेर्सशन्स विथ योगनान्दा, क्रिस्टल क्लारिटी पब्लिशर्स , २००३ )।

आधुनिक समाज में नित्य उभरते ज्ञान के तुषार कणों को अपने वैदिक ज्ञान के असीम क्षीर-सागर के मध्य ढूँढने के स्थान पर उनके विरोध ने ही मानवीय मूल्यों के उपासको को मानसिक श्रेष्टता से च्युत कर दिया। वेदों में भी कहा गया हैं - "अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः। दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढाः अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा: ॥" अर्थात् अज्ञानता के अन्धकार में और सर्व-ज्ञानी होने के दंभ के साथ मुर्ख (छद्म ज्ञानी) दूसरो को राह दिखाते हुए उस प्रकार दुष्चक्र में फंसते हैं जैसे एक नेत्रहीन दुसरे नेत्रहीन को मार्ग दिखाते हुए गर्त में जा गिरता हैं।

सत्य यह हैं कि प्राचीन काल में दासी तनय नारद और धीमर-सुत व्यास (यहाँ 'धीमर' शब्द कर्मगत आधार पर प्रयुक्त हैं) प्रभृति ऋषि कहलाये क्योंकि उन्हें सत्य धर्म का साक्षात्कार हो गया था (कृपया ध्यान दे जन्म व्यवस्था यहाँ नगण्य हैं)। किंतु आज का ब्राह्मण वर्ग (कर्मणा या जन्मणा -किसी भी मापदंड से) दिग्भ्रमित होकर यज्ञोपवीत धारण करने के महती संकल्प को भुलाकर अपने सामाजिक, नैतिक और अध्यात्मिक दायित्वों से विमुख हो गया हैं। वास्तव में गीता ने ब्राह्मण के कर्म की परिभाषा देते हुए कहा हैं कि "शमोदमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानं अस्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥ " अर्थात् ब्राह्मण को तो अंतःकरण का निग्रह, इन्द्रियों का दमन करते हुए (मानव) धर्म के लिए कष्ट सहते हुए, आंतरिक एवं बाह्य (मानसिक एवं सामाजिक) शुद्धता के साथ परदोषों को क्षमा करते हुए, मन इन्द्रियों और शरीर को सरल (व्यवहारगत सरलता) रखते हुए वेद, शास्त्र (ज्ञान) और ईश्वर में श्रद्धा करते हुए उनका अध्ययन -अध्यापन करना चाहिए। आज हर यथोचित क्षेत्र में समाज को नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता पुनः प्राप्त करने के लिए ब्राह्मण वर्ग को ऋषित्व (श्रेष्टतम मानवता संरक्षक) पाने का प्रयास करना होगा।

यह समय केवल हरिजनों के उत्थान का ही नहीं वरन ब्राह्मणों के भी जागरण का हैं। "उत्तिष्ट जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। " - स्वामी विवेकानंद के शब्दों में आज के ब्राह्मण वर्ग से कहना चाहूँगा - "उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रूको। अपने ज्ञान और कर्मगत गुणों से विमुख ब्राह्मण उसी प्रकार निस्तेज रहेंगे जैसे असंख्य जुगनुओ का समूह मिल कर भी दिन का प्रकाश नहीं कर सकता। कर्मकांडों में लिप्त तथा अपने धर्म और ज्ञान से दूर ब्राह्मण समाज की दशा चन्दन धोते हुए गर्धभ सी हो जायेगी जिसे अपनी पीठ पर लादे चंदन के मूल्य का आभास भी नहीं हैं (किंतु उसके बोझ से पीड़ित अवश्य हैं) - "यथा खरश्चंदनभारवाही भारस्य वेत्ता न तू चन्दनस्य।"

मानव सभ्यता के गगन पर दैदीप्यमान सूर्य की तरह चमकने के किए सभी वर्णों के उत्थान की कामना के साथ ब्राह्मणों को भी अपने पुरातन कर्मोंमुख ज्ञान की साधना करनी होगी जिससे आर्यावर्त पुनः जगत श्रेष्टता प्राप्त कर सके। किसी ने सत्य ही कहा हैं - यदि ब्राम्हण जागेगा तो राष्ट्र जागेगा, विश्व जागेगा - क्योकि जन-जागरण सदैव से ही ब्राह्मणों का कर्तव्य रहा हैं। यदि अपने इस ज्ञान के आभाव में ब्राह्मण निस्तेज हुआ तो राष्ट्र निष्प्राण हो जाएगा अतः ब्राह्मणों को न केवल अपने रूढिवादी अज्ञान की केचुल को उतार कर सर्व-समाज के साथ समरसता की किरण जागते हुए नवोदय करना होगा बल्कि (राष्ट्र निर्माण और मानव उत्थान के लिए) अपने पितामह ब्रह्मा की तरह सृजनात्मकता धर्म का पालन करना होगा।

इतिहास साक्षी हैं कि समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए ब्राह्मण ने त्रेता में वशिष्ठ बनकर राम को, द्वापर में संदीपनी बनकर कृष्ण को, कलयुग में चाणक्य बनकर चन्द्रगुप्त को निखारा हैं। आवश्यकता पड़ने पर "अश्वस्थामा" का बलिदान करके "अर्जुन" को संवारा हैं तो दूसरी ओर परशुराम कर सहस्रबाहु जैसे आतातायी का विनाश भी किया हैं। दिनकर जी के शब्दों में....
सहनशीलता को अपनाकर, ब्राह्मण कभी न जीता हैं।
किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान हलाहल पीता हैं॥


अतः आज के ब्राह्मण को भी अपनी इस परम्परा को कायम रखने के लिए एक संगठित, जागृत और तेजस्वी वर्ग के रूप में उभरकर श्रेष्ट राष्ट्र निर्माण एवं समन्यव मूलक राष्ट्र के लिए संकल्पबद्ध होना होगा यही मेरी कामना हैं। वैसे तो कल्पों, युगान्तरों से चली आ रही इस महती ब्राह्मण परम्परा के परिचय पूर्णता सहस्र ग्रंथों में भी नहीं समेटी जा सकती किंतु मैंने तीन अंकों के इस चिठ्ठे में अपने विचारो और स्वानुभूत आधार इसे कुछ अंशों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया हैं। अंत में, मैं राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त के आवाहन से इस चर्चा को समाप्त करना चाहूँगा -
हे ब्राह्मणों! फ़िर पूर्वजो के तुल्य तुम ज्ञानी बनो,
भूलो न अनुपम आतम-गौरव, धर्म के ध्यानी बनो ।
करदो चकित फ़िर विश्व को अपने पवित्र प्रकाश से ,
मिट जाए फ़िर सब तम तुम्हारे देश के आकाश से ॥
(भारत भारती)


सादर,


2 comments:

  1. अच्छा विश्लेषण , सार्थक चिंतन
    आप अच्छा लिखते हैं ,आपको पढ़कर खुशी हुई


    यूँ ही लिखते रही हमें भी उर्जा मिलेगी ,

    धन्यवाद
    मयूर
    अपनी अपनी डगर

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  2. बढ़िया. आपका आह्वान फलित हो.

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