Sunday, May 10, 2009

ब्राह्मण: एक परिचय (भाग २)

गतांक से आगे ...

सर्वप्रथम मैं सभी प्रबुद्ध पाठकों का उत्साह वर्धन के लिए आभार प्रगट करना चाहूंगा। वैसे भी कहा गया हैं कि "दुर्लभम् त्रयमेवैतात् देवानुग्रह्हेतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः ॥" अर्थात् मनुष्य जीवन, मोक्ष कमाना और महापुरुषों का साथ दुर्लभता और देवकृपा से ही मिलता हैं। साथ ही आपने उन सहयोगियों को भी आश्वस्त करना चाहूँगा जिन्होंने हुसैनी ब्राह्मणों के विषय में अधिक जानकारी मांगी हैं, आगे इस विषय पर भविष्य में कुछ अवश्य ही प्रकाशित करूँगा। किंतु अभी पिछली चर्चा को आगे बढ़ते हुए - ब्राह्मण-परिचय

ब्राह्मण शब्द की उत्पति संस्कृत के ब्रह्म शब्द से हैं। इस सन्दर्भ में ब्रह्म का अर्थ हैं ज्ञान अतः ब्राह्मण उस ज्ञान को अर्जन करने रत व्यक्ति। ब्रिटैनिका में ब्राह्मण शब्द की परिभाषा दी हैं - "पोस्सेस्सर ऑफ़ ब्रह्म" (Possessor of Brahma)। तदुपरांत उसे सामाजिक व्य्स्वस्था के आधार पर परिभाषित किया गया हैं। इस दृष्टि से देखे तो भी ब्राह्मण या तो उस (ब्रह्म रुपी) परम सत्य और ज्ञान का रक्षक और वाहक हैं। और कोई भी व्यक्ति (जन्म व्यवस्था के बिना) भी ब्राह्मण हो सकता हैं।

आचार्य मुक्तिनाथ शास्त्री ने ब्राह्मणत्व को समझाते हुआ कहा हैं कि "यदि ब्राह्मण शब्द का लाक्षणिक अर्थ हैं "भू-देव" तो वह "जगद्-गुरुत्व" के "राष्ट्र देवो भावः" की शास्वत परिभाषा को मुखरित करता हैं क्योंकि जिस प्रकार द्विजराज चंद्रमा भूतल से लेकर अन्तरिक्ष तक सुधामयी किरणों को बिखेरते रहते हैं, उसी प्रकार यह द्विज (ब्राह्मण) भी ज्ञान, सदाचार, और संस्कार की शीतल किरणे सम्पूर्ण मानव जाति के हितार्थ बिखेरते रहते हैं।" ब्रह्म का अर्थ ज्ञान हैं तो ब्राह्मण को संकुचित क्षेत्र में बंद करना अन्यायपूर्ण होगा। क्योंकि ऐसा करने से "वसुधैव कुटुंबकम्", "सर्वेभवन्तु सुखिनः", "स्वदेशो भुवानात्रयम्", राष्ट्रे वयं जागृयामः", और संस्कार-संस्कृति की सुरक्षा दायित्वों की मर्यादा कायम रखने के उद्देश से ब्राह्मण विचलित हो जाएगा। संभवतः अपनी इसी वैश्विक दर्शन और सोच के कारण ही भागवत में ब्राह्मणों का आवाहन करते हुए कहा गया हैं "ब्राह्मणस्य हि देहोयम्। क्षुद्र -कामाय नेष्यते ॥" अर्थात् ब्राह्मण का शरीर (मानसिक एवं सामाजिक मापदंडो में) तुच्छ और हीन कार्य के लिए नहीं मिलता।

आज सामाजिक न्याय और धरमनिर्पेक्षता के नाम पर हिंदू विचारधारा और विशेष रूप से ब्राह्मणों की उपेक्षा का दौर चला हैं वो विचारणीय हैं। हमारे नेता और उनकी तथाकथित आधुनिक सोच ने ब्राहमणों के साथ जन्मना आधार पर भेदभाव करके वर्षो से चली आ रही उनकी कर्मणा गरिमा को नकार दिया। इस स्थिति में मुझे किसी कवि की यह पंक्तिया याद आती हैं....

धेनु द्विज ऋषि मुनि सशंकित,
अवतरण हो परसुधर का।
शस्त्र-शास्त्रों से सजे
फ़िर शौर्य भारत वर्ष का ॥
दमन अत्यचार पर
फिर गिराएँ गाज ऐसी ।
गगन कांपे धरा दहले,
दामिनी दमके प्रलय सी॥
अपने प्राणों से देश बड़ा होता,
हम मिटते हैं तो राष्ट्र खड़ा होता हैं।
नित्य पूजित ब्राह्मण न हुए तो,
ज्ञान बीज कहाँ से आएगा ?
धरती को माँ कहकर ,
"वसुधैव कुटुम्बकं" का घोष कौन दोहराएगा ?

सामाजिक न्याय के नाम पर सामाजिक समरसता की जिस प्रकार अनदेखी की गयी उससे समाज में ब्राह्मण का अस्तित्व भी खतरे में दिखता हैं। शायद इसी कारण श्री रामकृष्ण हेगडे ने "ब्राह्मणों को भी अल्प संख्यक" कहा था (साप्ताहिक हिन्दुस्तान, जनवरी ११, १९८७)। स्वामी विवेकानंद ने भी आदर्श राष्ट्र की परिकल्पना करते हुए कहा था कि आदर्श राष्ट्र के लिए पुरोहित का ज्ञान, योद्धा की संस्कृति, व्यापारिक वितरणशीलता और अंतिम वर्ण को समता अत्यन्त अवश्यक हैं। इसके लिए सभी वर्णों को अपने पूर्वाग्रहों का परित्याग करके एक राष्ट्र की कमाना से एक दुसरे का आलिंगन करना होगा क्योंकि

"खुबसूरत हैं हर फूल मगर उसका, कब मोल चुका पाया हैं सब मधुबन?
जब प्रेम समर्पण कर देता हैं अपना, सौंदर्य तभी कर पाता निज दर्शन।"
(गोपालदास नीरज, "नीरज की पाती")

...शेष चर्चा, वर्तमान परिवेश में ब्राह्मण, अगले सप्ताह

11 comments:

  1. सुधीर जी मै भी सरयुपरिन ब्राह्मण हूँ.
    और आपका लेख पढ़कर काफी प्रसन्नता हुई. और आपके सामाजिक सुझाव को यदि अपनाया जे तो वास्तव मे यह राष्ट्र फिर अपने वैभव पर खडा होगा.

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  2. आपने शुरूआत अच्छी की है किन्तु बाद में भटक गये हैं।
    पहले आप ब्राह्मण को 'ब्रह्म का ज्ञाता' या 'ब्रह्म की जिज्ञासा' करने वाला से आरम्भ किया है और बाद में 'ब्राह्मण जाति' पर आ गये हैं। यह तर्क की विधि का उलंघन है। शास्त्रों में 'ब्राह्मण' को जो भी महत्व और रियायते दीं गयीं हैं वे उनके बौद्धिक/आध्यात्मिक/नैतिक स्तर के कारण दी गयीं हैं जो कि जरूरी थीं/हैं। वे महत्व और रियायतें 'ब्राह्मण जाति' के लिये नहीं हैं।

    सनातन धर्म की वर्ण-व्यवस्था यदि कर्म के आधार पर थी और कोई भी वर्ण अर्जित करने योग्य था तब तो वह वन्दनीय और आदरणीय है क्योंकि वह 'श्रम विभाजन' का तत्कालीन रूप था जो कि आधुनिक विकास और अर्थशास्त्र का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। किन्तु 'जन्मना-जाति' का कोई महत्व नहीं है न ही कोई जाति ऊंची और कोई नीची है।

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  3. अनुनाद सिंह की टिप्पणी से पूर्ण सहमति है। वास्तविकता है कि जाति से ब्राह्मणों ने अपने गुण त्याग दिए हैं, इस लिए उन्हें ब्राह्मण कहना उचित नहीं। हाँ आज भी जो गुणों से ब्राह्मण हैं उन का सम्मान होना ही चाहिए।

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  4. लेख बहुत ज्ञानप्रद है,

    आभार

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  5. अनुनाद और दिनेश जी से सहमत .
    जो यग्य अनुष्ठानों को सम्पन्न करता था -वही ब्राह्मण था !
    ब्राहमण की एक परिभाषा तुलसी ने बहुत खूबसूरती से किया है -
    बन्दहु प्रथम महीसुर चरना मोहजनित संशय सब हरना
    अर्थात ब्राहमण वह है जो मोह से उपन्न्न सभी संशयों को दूर कर दे !
    चलिए आगे बढिए हम सुन रहे हैं !

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  6. जन्म से नहीं कर्म से परिचय था।
    (ब्राह्मण विशेष ग्रंथों को भी कहा गया है जैसे -शथपथ ब्राह्मण, एतरेय ब्राह्मण इत्यादि।)

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  7. वाह जी... अनुनाद जी (एवं अन्य)

    यदि आप कहते हैं की जाती कोई ऊँची नहीं और कोई नीची नहीं (जिससे मैं भी सहमत हूँ..)
    तो फिर आरक्षण क्यों?
    तो फिर जाति के कार्ड्स क्यों खेले जाते हैं??
    माना की कुछ ब्रह्मण सिर्फ नाम के ही हैं... किन्तु इसका अर्थ यह नहीं की सारे ब्राहमणों के खिलाफ ही
    बातें लिखी जाएँ??

    ~जयंत

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  8. भाई अनुनाद जी, दिनेश जी और अरविन्द जी
    !

    इस मामले में सुधीर पर भटकने का आरोप मुझे ग़लत लगता है. क्योंकि लेखक बात कर्मणा आधार पर ही कर रहा है. जहां जन्मना आधार की बात है, वह समाज और राजनीति के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में और उनसे उपजी स्थितियों के सन्दर्भ में है. लेखक का आग्रह मुझे नहीं लगता कि अभी भी कहीं जन्मना आधार पर ब्राह्मण होने के किसी दावेदार को कोई सुविधा देने का है. पर जिन आधारों पर जो कुछ हो रहा है, क्या आपको नहीं लगता कि आज की राजनीति कुछ ज़्यादती कर रही है! आख़िर उसके पास कौन सा पैमाना है जिस आधार पर वह यह जांचे कि कौन कर्मणा ब्रह्मण या शूद्र है और कौन नहीं? जन्मना आधारों पर ऐसी व्यवस्थाएं देना क्या फिरसे उसी सामंतवादी व्यवस्था की प्रतिष्ठा करने जैसी बात नहीं है, जिससे आज की हर सभ्यता मुक्त होने की ज़रूरत महसूस कर रही है. क्या उन्हीं रास्तों पर चलते हुए उससे मुक्त होना संभव है? बहरहाल, अभी सुधीर अनुशीलन सरयूपारीण परम्परा का कर रहे हैं. इसे ऐसी बहस में उलझाना उन्हें उनके मुख्य मुद्दे से भटकाने जैसा भी होगा. बेहतर होगा इसे हम स्वस्थ अर्थों में लें और मामूली टिप्पणियों पर तूफ़ान खड़े करने से बचें.

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  9. kya acha hota ki agar aap sare brahmin samaj ki charcha karte jisse our gyan milta

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  10. मुझे लगता है कि अगर सुधीर जी भटक भी गये होंगे तो उनके पास समय रहेगा कि वे वापस रास्ते पर आयेंगे. विषय इतना बड़ा और महत्वपूर्ण है कि ऐसा हो ही सकता है. हमें यह बात याद रखनी होगी कि सुधीर जी कोई लेखक नहीं हैं.

    बहुत दिनों बाद इस लेख को पढ़ा. आगे के लेखों को पढने की कामना है.

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  11. जो ज्ञान बांटे ज्ञानी हो वह ब्राहमण जैसे अध्यापक
    जो वीर हो युद्ध कला जानता वह क्षत्रिय जैसे सैनिक
    जो व्यापार कला में माहिर हो वैश्य जैसे व्यापारी
    जो सेवक हो वह सूद्र जैसे किशान
    ब्रजेन्द्र दीक्षित

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