अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहंकारः समदु:खसुखः क्षमी॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः। माय्यर्पितमनो बुद्धिर्यो मद्भक्तः स में प्रियः॥
अर्थात् जो सभी जीवों (भूतों) के प्रति द्वेष भावः से विहीन हैं, जो सभी के लिए मित्रवत एवं दया (करुणा) भाव से परिपूर्ण हैं, किसी के प्रति ममत्व से रहित (निष्पक्ष) हैं , अंहकार से रहित हैं, सुख दुःख में सम और क्षमावान, संतुष्ट हैं, मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले ढृढ़-निश्चयी हैं और ईश्वर में मन और बुद्धि अर्पित किए हुए हैं वे (मुझे ) ईश्वर को प्रिय हैं। (गीता अध्याय १२, श्लोक १३-१४)
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः। माय्यर्पितमनो बुद्धिर्यो मद्भक्तः स में प्रियः॥
अर्थात् जो सभी जीवों (भूतों) के प्रति द्वेष भावः से विहीन हैं, जो सभी के लिए मित्रवत एवं दया (करुणा) भाव से परिपूर्ण हैं, किसी के प्रति ममत्व से रहित (निष्पक्ष) हैं , अंहकार से रहित हैं, सुख दुःख में सम और क्षमावान, संतुष्ट हैं, मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले ढृढ़-निश्चयी हैं और ईश्वर में मन और बुद्धि अर्पित किए हुए हैं वे (मुझे ) ईश्वर को प्रिय हैं। (गीता अध्याय १२, श्लोक १३-१४)
भारतीय दर्शन में सभी जीवों के उत्थान की कामना ही मूल मंत्र हैं - चाहे वो विश्व कल्याण का भावः हो या विश्व शान्ति की कामना। जहाँ नित्य पूजन "सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामय, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु , मा कश्चिद दुख्भाग भवेत्। ॐ शांति शांति शांति" के आवाहन के बिना पूर्णता नही पाता, ऐसे समाज में वर्ण व्यवस्था का उदय उसके उत्कृष्ट एवं जटिल स्वरुप और उसके नागरिकों के बौधिक स्तर को परिलक्षित करता हैं। जिस समाज में स्वं को छोड़कर सभी को मान देने की परम्परा हो ('सबहि मानप्रद आपु अमानी'), जहाँ दुष्टों को भी सज्जनों के साथ मानव होने के नाते आदर मिलता हो ("बहुरि बन्दि खल गन सभिताएं), जहाँ चराचर जीवों के स्थापित मापदंडों के से बाहर जड़वत तत्वों को भी ईश्वरीय रूपों में पूजा जाता हो (निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोधा) - ऐसे समाज में कोई व्यवस्था जन साधारण के तिरस्कार और विभाजन की रूपरेखा के साथ पनप सकती हैं इसकी सम्भावना अत्यन्त ही क्षीण हैं।
जिस समाज और दर्शन में (ईश्वर की प्राप्ति ) मोक्ष कामना ही जीवन का उद्देश हो और उसके प्राप्त करने के माध्यम विरक्ति, भक्ति और (मानव) आसक्ति हो उसमे ईश्वर वंदन के नाम पर समाज के किसी वर्ग का शोषण होगा सम्भव ही नहीं। विरक्ति का मार्ग जहाँ सभी मनुष्यों से दूर ले जाता हैं (संन्यास), वहीं भक्ति मार्ग सभी के बीच रहकर भी उनसे विमुख रखता हैं परन्तु मानव आसक्ति का मार्ग समाज में रहकर उसमे बसे सभी जीवो को सम्मान के साथ रहने की प्रेरणा देता हैं। मेरे विचार से मानव जीवन को चार आश्रमों में बाँट कर (छान्दोग्य उपनिषद) भी शायद ब्रह्मचर्य के बाद तीनो आश्रम संभवतः इन तीनो माध्यम से मोक्ष प्राप्ति की प्रेरणा देते रहे होंगे। (गृहस्थ -आसक्ति, वानप्रस्थ -भक्ति और संन्यास - विरक्ति)। हमारे मोक्ष लालायित समाज में फ़िर भी एक सामाजिक वर्गीकरण के लिए वर्ण-समाज का उदय हुआ। आईये देखें कि इस सन्दर्भ में हमारे शास्त्र क्या कहते और जानने का प्रयत्न करें कि इस वर्गीकरण के मापदंड क्या थे और उसकी विशिष्टताएं क्या थी?
वैसे तो वर्ण व्यवस्था का ताना बाना हमारी सभ्यता में इंतना रचा बसा सभी कि इसका वर्णन हमारे सभी धर्म ग्रंथो में मिलता हैं - इसमे सभी वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, संघितायें, भाष्य, पुराण, इतिहास (गीता एवं रामायण), उनकी समीक्षाएँ सम्मलित हैं। किंतु जिन ग्रंथो का नाम सर्वप्रथम मानस पटल पर उभरता हैं वे हैं ऋग्वेद, मनु स्मृति और वज्रसूचिका उपनिषद। ऋग्वेद में जहाँ वर्ण व्यवस्था के उदय का वर्णन हैं वहीं मनु स्मृति में उसकी व्यवस्था और वज्रसूचिका उपनिषद में उसकी व्याख्या का वर्णन हैं। इसके अतिरिक्त भी अन्य ग्रंथो और पुरातन साहित्य में भी इस व्यवस्था का वर्णन मिलता हैं।
सबसे प्राचीन ऋग्वेद के जिस श्लोक में सर्वप्रथम वर्ण व्यवस्था के जन्म का उल्लेख मिलता हैं वो "पुरुष सूक्त" (१०।९०।१२) में कुछ इस प्रकार से वर्णित हैं - "बराह्मणो अस्य मुखमासीद बाहू राजन्यः कर्तः ऊरूतदस्य यद वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत " उस ब्रह्म (पुरूष) के मुख से ब्राह्मण, बाँहों से राज कार्य करने वाले, पेट से वैश्य और पांवो के शूद्र का जन्म हुआ। कई विद्वजन इस श्लोक को सामाजिक श्रेष्ठता और गरिमा स्थापित करने का प्रयास मानते हैं। किंतु इस सम्बन्ध में मैं मैक्स मूलर के विचारों को रखना चाहूँगा जिसमे उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया हैं कि शुद्र और राजन्य जैसे शब्दों का प्रयोग इस श्लोक के अतिरिक्त ऋग्वेद में कहीं नहीं मिलता हैं (चिप्स फ्रॉम अ जर्मन वर्कशॉप ई, ३१२)। ऐसी ही मान्यता विलियम क्रूक ने अपनी पुस्तक "दा ट्राइब्स एंड कॉस्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविन्सस एंड अवध" में और अरविन्द शर्मा ने "क्लास्सिकल हिंदू थॉट" में भी मानी हैं। अतः यह श्लोक या तो बाद में ऋग्वेद से जुडा या इसका तात्पर्य वर्ण व्यवस्था के नामों से नहीं हैं। मेरे विचार से यह श्लोक ही वर्ण वयवस्था के कर्मगत रूप को उजागर करता हैं। क्षत्रिय शब्द के स्थान पर राजन्य शब्द का चयन स्पष्ट रूप से कर्म बोधक ही हैं। यहाँ पुरूष शब्द भी वैदिक समाज के लिए प्रयुक्त हैं। इसका आधार ऋग्वेद के इस श्लोक के पूर्व के श्लोकों में मिलता हैं। पुरूष की परिभाषा देते हुए ऋग्वेद कहते हैं - "सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात"(१०.९०।१) अर्थात उसके सहस्र सर, पैर और नेत्र हैं। यह उद्बोधन सहस्र व्यक्तियों के समूह का ही वर्णन करता हैं। तदुपरांत श्लोक १०.९०.११ में फ़िर प्रश्न होता हैं - "यत पुरुषं वयदधुः कतिधा वयकल्पयन मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते " जब पुरूष (समाज) को बाटा गया तो उसके कितने भाग हुए - उसका मुख , बांह उदर और पैर का क्या हुआ? हमारे चिंतनशील मनीषियों ने फ़िर उस प्रश्न के उत्तर में वर्ण वयवस्था का विवरण दिया हैं। समाज को ज्ञान देकर वाणी देने वाले कर्म-समूह ब्राह्मण कहलाए (मुख), समाज की सारी प्रणाली को सुचारू रूप से (अपने राजकाज से) व्यवस्थित करने राजन्य (बाहें), अपने वाणिज्य कर्म द्वारा समाज के पेट का पोषण करने वाले वैश्य (उदर) और अपने अत्यन्त आवश्यक श्रम-श्रेष्ठ कर्मो से समाज को गति देने वाले शुद्र (पैर) कहलाए। इससे ये स्पष्ट होता हों की व्यवस्था कर्मगत ही थी। इस आशय में ऋग्वेद का ही श्लोक याद आता हैं - "कुविन मा गोपां करसे जनस्य कुविद राजानं मघवन्न्र्जीषिन कुविन म रषिं पपिवांसं सुतस्य कुविन मे वस्वो अम्र्तस्य शिक्षाः (३.४३.५) - ( हे इन्द्र ) आप मुझे क्या बनायेंगे लोगों कि रक्षा करने वाला प्रजापति (राजा), (ज्ञान के) सोम का पान करने वाला साधू? याचक के इस इस संशय से यह तो पता चलता हैं कि उसके पास दोनों विकल्प थे और उन्हें प्राप्त करने के अवसर भी .... ऋग्वेद में यत्र-तत्र ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ वर्ण व्यवस्था कर्मगत ही हैं।
इसी प्रकार यजुर्वेद (वाजसनेयी संहिता) की १४ वी पुस्तक में भी शुद्र और आर्यों का जन्म के साथ ही होना बताया गया हैं - "न॑वद॒शभिरस्तुवत शूद्रा॒र्याव॑सृज्येतामहोरात्रे अधि॑पत्नी आस्ताम्"। इसी प्रकार का विवरण तैत्तिरीय संहिता में भी मिलता हैं। यदि जन्म साथ लिया हैं तो फ़िर उनमे ऊँच-नीच कैसी ? जिस प्रकार हमारी मान्यता हैं कि सभी मनुष्यों का जन्म मनु से ही हुआ हैं, उस आधार पर भी सभी वर्ण एक ही पिता की संतान होने से सामान ही माने जायेंगे। (शुक्ल) यजुर्वेद से जुड़े 'शतपथ ब्राह्मण' में भी वर्ण व्यवस्था के उदय के विषय में बताते हुए कहा गया हैं प्रजापति ने ब्रह्माण्ड में व्याप्त भूः से पृथ्वी, भुवः से व्योम और स्वः से स्वर्ग की उत्पत्ति की (कांड २.१.४.११)। फ़िर इन्ही तीन तत्वों से क्रमश: जन साधारण (वैश्य), क्षत्रिय और ब्राह्मण का निर्माण किया। इस व्यवस्था में शूद्रों का कोई उल्लेख नहीं हैं। जिसका तात्पर्य यह हुआ कि या तो उस समाज में वे थे ही नहीं या फ़िर वे वैश्य वर्ग के साथ जन साधारण के भाग थे। इस विषय पर अरविन्द शर्मा अपनी पुस्तक में "क्लास्सिकल हिंदू थॉट" में रोचक विचार प्रस्तुत किए हैं - उनके अनुसार ऋग्वेद के पुरूष-सूक्त में पृथ्वी का सम्बन्ध पुरूष के चरणों से हैं जहाँ से शूद्रों की उत्पत्ति भी घोषित हुयी हैं अतः वैश्य और शुद्र सभी एक वर्ग के भाग थे और भूमि से जुड़े कार्यों में लिप्त थे। किंतु मेरे अनुसन्धान के अनुसार इस सम्बन्ध मे यजुर्वेद के तैत्तिर्य ब्राह्मण में शूद्रों के सम्बन्ध में दो उद्धरण मिलते हैं - शूद्रों का जन्म असुरों से हुआ और ब्राह्मणों का देवों से (१.२.४.७) - जिसका आशय समाज के आसुरी और देव प्रवृतियों से होगा। समाज का एक वर्ग अपनी आसुरी प्रवृतियों से शुद्र हो गया वहीं दूसरा अपने देव-तुल्य आचरण से ब्राह्मण कहलाया। यही शास्त्र अन्यत्र शूद्रों के जन्म के विषय मे कहता हैं कि वे असतो से जन्मे हैं (३.२.३.९) जिससे यह सिद्ध होता हैं कि तीन वर्गों के बाद अपने आचरण से गिरने के बाद असत्यता धारण करने से वे शुद्र मे परिवर्तित हुए.
वेदों मे वर्ण-व्यवस्था की चर्चा अत्यन्त ही व्यापक हैं...इस पर कई दिनों तक व्याख्या की जा सकती हैं किंतु अभी के लिए इतना ही .... अगले सप्ताह अन्य ग्रंथों पर भी एक दृष्टि डालकर वर्ण-व्यवस्था की चर्चा जारी रखने का प्रयास करूँगा।
सादर,
सुधीर
विशेष: गत सप्ताह स्वास्थ एवं पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण चर्चा आगे न बढ़ा पाने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
अच्छी व्याख्या ,उत्सुकता बनी रहेगी .
ReplyDeleteसमाज को ज्ञान देकर वाणी देने वाले कर्म-समूह ब्राह्मण कहलाए (मुख), समाज की सारी प्रणाली को सुचारू रूप से (अपने राजकाज से) व्यवस्थित करने राजन्य (बाहें), अपने वाणिज्य कर्म द्वारा समाज के पेट का पोषण करने वाले वैश्य (उदर) और अपने अत्यन्त आवश्यक श्रम-श्रेष्ठ कर्मो से समाज को गति देने वाले शुद्र (पैर) कहलाए।
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दरअसल कर्म के आधार पर ही धर्म और वर्ण टिके हैं। हमारी भाषाओं में अनेक बातें व्यंजना विद्या में कहने की प्रवृत्ति है और उसके आलोचक इसे नहीं जानते और इसलिये श्लोक या दोहे का शब्दिक या लाक्षणिक अर्थ लेकर अपनी व्याख्या करते हैं। किसी प्राचीन ग्रंथ में यह नहीं लिखा हुआ कि जो प्रारंभ में वर्ण व्यवस्था बनी उसे जन्म के आधार पर ही हमेशा जारी रखा जाये। आपका यह लेखक बहुत अच्छा और ज्ञानवर्द्धक लगा।
दीपक भारतदीप
Please tell me about belwar the sub-division of sanadhya brahmin because this community has no info about its origin
ReplyDeleteपंडितजी वर्णव्यवस्था पर मेरी एक संशोधनात्मक पुस्तका प्रकाशित हुई हैं । कई श्रृतियोंका निष्कर्ष एवं ब्रह्मसूत्र व दर्शन संग्रहोसे कुठ चयन किया हैं । सप्तशतिमें जाति को एक शक्ति का रूप माना हैं । वैचित्रता एक नैसर्गिक शक्ति हैं । ब्रह्माण्ड का कोई भी भाग हो या काल का कोई भी क्षण हो, यह सदैव दृष्टिगोचर होगी ही । कहीं धनी गरीब का भेद - कहीं गोरे काले का - कहीं बुद्धिजीवी मूर्ख - कहीं ऊंचे नीचे का - जाति भेद कभी भी मिटाया नहीं जा सकता वह प्राकृतिक महाशक्ति हैं । हमारे ऋषियोनं इस सत्यको स्वीकारते हुए वर्णव्यवस्था का गठन वेदकाल में ही किया हैं । जो चीज नित्यरूप से है उसे सुनियोजित क्यों न करें । पूर्वजन्मस्य संस्कारा के हिसाबसे योनि प्राप्त होती हैं और जन्म से ही जाति गणना की यथार्थता बनती हैं । गीता के चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः का लोग स्वल्पबुद्धि से गुणकर्म को छोडकर अर्थघटन करते हैं । यद्यपि कपूय चरणा कपूय योनिं प्राप्नुयात् जैसी कई श्रुतियों को तार्किक एवं दर्शनात्मक अभिगम से भी स्वीकृत करनी पडेगी । विशेष कृपया संपर्क करें । ईमेल - panditpp@gmail.com ppp.siddhpur@gmail.com Blog http://gudhharth.blogspot.com/
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