Saturday, July 25, 2009

इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था -भाग १

ब्राह्मण क्षत्रिय विशाम् शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:॥
(गीता १८/४१)
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र कर्म स्वभाव से ही
उत्पन्न गुणों के आधार पर ही विभाजित किए गए हैं।


अरविन्द शर्मा की "क्लास्सिकल हिंदू थोअट" में वर्ण व्यवस्था के सन्दर्भ में तीन मुख्य भ्रांतियां बताई गयी हैं -
१) वर्ण व्यवस्था को ऋग्वेद के पुरूष सूक्त ने अध्यात्मिक (दैवीय) मान्यता दी हैं।
२) वर्ण व्यवस्था ने हिंदू समाज को अभेद्य वर्गों में विभाजित कर दिया हैं।
३) हिन्दू समाज में सभी वर्गों की सामान उत्त्पति नहीं नहीं माने जाती हैं ।
यह भ्रांतिया सम्पूर्ण व्यवस्था को समझे बिना और शास्त्रों को उनके शाब्दिक आधार पर लेने से हैं। हमने पिछली चर्चाओंमें पाया था की शास्त्र-सम्मत आधार पर भी ये तीनो बातें आधारहीन प्रतीत होती हैं। ऋग्वेद जहाँ इस व्यवस्था को कर्मगत बताते हैं वहीं एक वर्ण के दुसरे के साथ सम्बन्ध और परिवर्तन भी सामान्य था। और जहाँ तक तीसरी भ्रान्ति का सम्बन्ध हैं वो भी यदि सभी वर्गों को मनु-पुत्र माने या पुरूषसूक्त के आधार पर इस समाज की संतान दोनों ही रूपों में वे सामान सामाजिक-उत्त्पति वाले प्रतीत होते हैं (हाँ पश्चिमी मान्यताओं के आधार पर वे आदम और इव की संतान नहीं हैं)। शास्त्र के आधार पर हम तथ्यपूर्ण रूप से पाते हैं कि वर्ण-व्यवस्था का वास्तविक रूप तो कर्मगत ही हैं। वेदों से लेकर रामायण और गीता तक, उपनिषद और ब्राह्मण व्याख्या से लेकर पौराणिक कथाओं तक प्रथम दृष्टया वर्ण-व्यवस्था कर्मणा ही मान्य हैं। गीता में स्वं श्री कृष्ण भी कहते हैं - "चातुर्वंर्यम् मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः"(गीता ४-१२) अर्थात् चारों वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा कर्म गुण के आधार पर विभागपूर्वक रचित हैं (वर्गीकृत हैं)।


इसी प्रकार इतिहास के पृष्ठ पलटने पर भी वर्ण-व्यवस्था का कर्मगत रूप ही उजागर होता हैं किंतु कालांतर में एक पीढी द्वारा दूसरी पीढी को अपने व्यवसाय के गुण पैत्रिक धरोहर के रूप में विरासत में देने से संभवतः यह व्यवस्था जन्मणा मान्य हो गई हो ... आइये एक दृष्टि अपनी पुरातन व्यवस्था पर डालें और भारतीय समाज और वर्ण-व्यवस्था के उस विकास क्रम को समझने के प्रयास करें जिसने इतनी शताब्दियों तक इस समाज को जीवंत बनाये रखा ।

जैसाकि हम प्रारंभिक चर्चाओं के आधार पर जानते हैं कि वर्ण व्यवस्था का जन्म कर्मगत आधार पर समाज के श्रम विभाजन के कारण हुआ था। इस विभाजन के पीछे समाज के स्थायित्व और उसके सुचारू संचालन की कामना अवश्य ही थी। आर्यावर्त में वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त विश्व की अन्य सभ्यताओं,जैसे कि ईरान और मिस्र , में भी वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ । यह सभी व्यवस्थाएं कर्मगत ही थी। जान अवेस्ता (जोराष्ट्रियन धार्मिक ग्रन्थ) में प्रारंभिक ईरानी समाज को तीन श्रेणियों -शिकारियों, पशुपालकों और कृषकों, में बांटा गया हैं (विलियम क्रूक - दा ट्राइब एंड कास्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध)। यह सभी श्रेणियां कर्मगत हैं। कालांतर में जब ईरानी सामाजिक व्यवस्था उन्नत हुई तो चार वर्णों में विभक्त हुई। यह वर्ण थे - अथोर्नन (पुजारी), अर्थेश्तर (योद्धा), वास्तारिउश (व्यापारी) और हुतुख्श (सेवक)। कर्मगत आधार पर पनपे इन चारों वर्णों की वैदिक भारत से समानता विस्मयकरी हैं। अन्य जोराष्ट्रियन ग्रन्थ डेनकार्ड (जो कालांतर में लिखा गया ) में चार वर्णों के जन्म का उल्लेख हैं भी आश्चर्यजनक रूप से वैदिक पुरुषसूक्त का अनुवाद ही प्रतीत होता हैं (पुस्तक ४ -ऋचा १०४ )। किंतु इससे यह अवश्य सिद्ध होता हैं कि स्वतंत्र रूप से विकसित हुए इन दो सभ्यताओं में सामाजिक संरचना का रूप अवश्य ही कर्मगत था। यह भी सम्भावना हैं कि सिन्धु घटी सभ्यता काल में ही इस प्रकार की व्यवस्था का जन्म हुआ हो और वो अपने सहज रूप के कारण ईरान में भी अपनाई गयी हो। आर्यों के भारत आगमन के सिद्धांत में विश्वास करने वाले यदि ये तर्क रखते हैं कि ऐसा एक ही शाखा से जन्मे होने के कारण इन सभ्यताओं में समानता के कारण हैं तो मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि इस सिद्धांत के अनुसार ही वेदों की रचना आर्यों के भारत आने के बाद हुई हैं। उस समय के तत्कालीन जोराष्ट्रियन ग्रन्थ जान अवेस्ता में तीन ही श्रेणियों का वर्णन हैं । डेनकार्ड की रचना नवी शताब्दी के आसपास की हैं।

इसी काल के आसपास मिस्र में भी कर्म आधारित वर्ग का जन्म हुआ जिसमे दरबारी, सैनिक, संगीतज्ञ, रसोइये आदि कर्माधारित वर्गों का जन्म हुआ। मिस्र के शासक राम्सेस तृतीय के अनुसार मिस्र का समाज भूपतियों, सैनिकों, राजशाही, सेवक, इत्यादी में विभक्त था (हर्रिस अभिलेख (Harris papyrus ) जेम्स हेनरी ब्रासटेड - ऐन्सीएंट रेकॉर्ड्स ऑफ़ ईजिप्ट पार्ट ४)। इसी काल में यूनानी पर्यटक हेरोडोटस (Herodotus) के वर्णन के अनुसार मिस्र में सात वर्ण थे - पुजारी, योद्धा, गो पालक, वराह पालक, व्यापारी, दुभाषिया और नाविक। इनके अतिरि़क उसने दास का भी वर्णन किया हैं (उसके अनुसार दास बोलने वाले यन्त्र/औजार थे जोकि दास के अमानवीय जीवन को दर्शाता हैं)। इसके अतिरिक्त एक अन्य यूनानी पर्यटक स्त्रबो (Strabo) के वर्णन के अनुसार शासक के अतिरिक्त समाज में तीन भाग थे - पुजारी, व्यापारी और सैनिक। (यूनान की प्रचिलित दास व्यवस्था के कारण स्त्रबो ने भी दासों का उल्लेख आवश्यक नहीं समझा होगा)। मिस्र की सामाजिक व्यवस्था में मुख्यतः लोग अपने पैत्रिक कामों को वंशानुगत रूप से अपनाते रहे। इस प्रकार ये व्यवस्था कर्मगत होते हुए भी जन्मणा प्रतीत होती हैं। संभवतः ऐसा ही कुछ भारतीय वर्ण व्यवस्था के साथ भी हुआ होगा।

पुरातन काल की सभी स्वतंत्र रूप से विकसित सभ्यताओं में, हम पाते हैं कि समाज का कर्मगत वर्गीकरण स्वाभाविक रूप से हुआ। कालांतर में यह सभ्यताएं अवश्य ही वाणिज्य और राष्ट्र विस्तार के लिए एक दुसरे के संपर्क में आई और इन सभ्यताओं ने अवश्य ही एक दुसरे के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित किया होगा किंतु इनके पुरातन विकास को देखकर यह कयास तो लगाया जा सकता हैं कि वर्ण निर्माण की भावना में सर्वत्र एक ही रही होगी। अतः यदि अन्य तत्कालीन सभ्यताओं में वर्ण व्यवस्था समाज के बढती जटिलताओं के समाधान के रूप में श्रम विभाजन के आधार पर उत्त्पन्न हुई तो वही विकासक्रम वैदिक व्यवस्था में भी रहा हुआ होगा। जेम्स फ्रांसिस हेविट ने अपने निबंध संग्रह "दा रूलिंग रेसस ऑफ़ प्रिहिस्टोरिक टाईम्स इन इंडिया, साउथ वेस्टर्न एशिया एंड साउथर्न यूरोप में भी पुरानी लोककथाओं, शास्त्रों और साक्ष्यों के आधार पर इन सभ्यताओं के विकासक्रम में ऐसी ही समानता स्थापित करने का प्रयास किया हैं। अगली कड़ी में हम भारतीय इतिहास के कुछ पृष्ठों में वर्ण-व्यवस्था का विकास क्रम देखेंगे....

सादर,
सुधीर

विशेष - पिछली टिप्पणियों में कर्ण की वर्ण व्यवस्था पर उपेक्षा की बात चली हैं। मैं अवश्य ही अगले कुछ दिनों में अपने विचार आपके समक्ष रखूँगा ।

6 comments:

  1. वर्ण, वर्ग और जाति की खिचड़ी इस देश में ऐसी पक चुकी है कि कोई कितना भी प्रयास करे चावल, दाल, हल्दी, नमक को अलग अलग नहीं किया जा सकता।

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  2. गिरिजेश राव जी,
    इस बात में कोई दो राय नहीं हैं कि वर्ग, वर्ण और जाति की खिचडी पक चुकी हैं। हमे इसमें से चावल दाल, नमक हल्दी अलग करने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए। पर इतना जरूर हैं कि यदि हम जानते समझते हैं कि इस खिचडी में चावल क्या हैं और नमक क्या हैं तो संभवतः एक स्वादिस्ट भोजन तैयार कर सकें जिससे सम्पूर्ण मानव जाति ही उसका यथोचित आनंद ले सकें। यह प्रयास भी ऐसी ही शुभेच्छा से प्रेरित हैं।
    सादर
    सुधीर

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  3. महत्वपूर्ण सुन्दर ज्ञानवर्धक आलेख. आभार.

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  4. यह महत्वपूर्ण विश्लेषण है। मैं सहमत हूं कि सभी संस्कृतियों में क्षत्रिय, पुजारी, व्यापरी और किसान, ये चार वर्ग स्वतः ही उनके सामजिक विकास के एक स्तर पर पहुंचने पर बन जाते हैं।

    पहले मानव समाज कबीलाई समाज था। एक कबीले के सभी लोग रक्त-संबंधों से परस्पर जुड़े थे, यानी सब एक-दूसरे के रिश्तेदार थे। जैसे-जैसे आबादी बढ़ी और समाज अधिक जटिल होता गया, रक्त-संबंधों वाला समाज सामंती व्यवस्था की ओर बढ़ने लगा। सामंती व्यवस्था ऊंच-नीच की अवधारणा पर टिका हुआ होता है, यानी विशेषाधिकार वाले लोग और अधिकारहीन लोग होते हैं उसमें। विशेषाधिकार-संपन्न लोगों में क्षत्रिय (राजा, जमींदार आदि) और उनके पक्ष में तर्क करनेवाले पुजारी आते हैं, और अधिकारहीनों में बाकी सब जन। जब व्यापार बढ़ता है, तो इनके साथ एक और वर्ग बन जाता है, व्यापारियों का। आगे चलकर ये व्यापारी ही पूंजीपति बनते हैं और पूंजीवाद को जन्म देते हैं। पूंजीवाद भी अनेक स्तरों से गुजरता है। पहले व्यापारिक पूंजीवाद का दौर आता है। भारत में उपनिवेश बनाने के लिए आए पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी, अंग्रेज आदि व्यापारिक पूंजीवाद के स्तर के थे। उपनिवेशों की लूट से जब इन देशों में खूब सारी पूंजी इकट्ठी हो गई, तो इस पूंजी को बड़े-बड़े उद्योगों और कारखानों में लगाया गया, और औद्योगिक पूंजीवाद का दौर शुरू हुआ। अनेक देशों में पूंजीवाद अभी इसी स्तर पर है। इसके बादवाला स्तर महाजनी पूंजीवाद का होता है, जिसमें आया का मुख्य स्रोत उद्योग नहीं बल्कि पूंजी पर प्राप्त ब्याज होता है। अमरीका, जापान और यूरोप के अनेक देश पूंजीवाद के इस चरम स्तर पर पहुंच चुके हैं। वह उद्योगों का महत्व कम हो गया है, और ब्याज से ही वे अधिकांश आमदनी कमाते हैं। वर्ल्डबैंक, आईएमएफ, आदि इनकी प्रतिनिधि संस्थाएं होती हैं।

    सामंतवाद का प्रारंभिक रूप प्रगतिशील होता है, क्योंकि वह अनेक कबीलों को जोड़कर एक राष्ट्र का रूप देता है। सामंत युग में ही हमारे धर्मों, भाषाओं, कलाओं आदि का विकास होता है।

    धर्म और वर्ण व्यवस्था का सामंत युग से गहरा संबंध है।

    पूंजीवाद के लिए सामंतवाद और धर्म अवरोधात्मक होते हैं, इसलिए पूंजीवाद को धर्म और सामंतवाद के साथ घोर संघर्ष करके उन्हें मिटाना होता है। यह हर पूंजीवादी देश में हुआ है।

    चूंकि भारत उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का अखाड़ा रहा है, सामंतवाद को पूंजीवाद पूरी तरह मिटा नहीं पाया है। इसीलिए यहां धर्म और जाति को लेकर इतना पचड़ा है। ये दोनों सामंतवाद की निशानियां हैं। हमारी भावी तरक्की इन दोनों के पूर्ण लोप के बाद पूंजीवाद की पूर्ण स्थापना में है।

    आपने उल्लेख किया है कि ऋग्वेद में वर्ण व्यवस्था का जिक्र आया है। पर डा. रामविलास शर्मा इससे सहमत नहीं है। उनका मानना है कि ऋग्वेद सामंतवाद के पहले की चीज है, यानी कबीलाई समाज की निर्मिति है। उसमें ब्राह्मण, शूद्र, छुआछूत आदि का कहीं जिक्र नहीं है। किसान भी ऋचाएं रचते हैं, स्त्रियां भी, लुहार भी, राजा भी। सभी बराबरी की ही हैसियत रखते हैं।

    इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए डा. शर्मा की पुस्तक इतिहास-दर्शन (प्रथम अध्याय) पढ़ें। इस पुस्तक के प्रकाशक हैं, राजकमल प्रकाशन दिल्ली।

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  5. पंडितजी... वर्णव्यवस्था पर मेरी एक संशोधनात्मक पुस्तका प्रकाशित हुई हैं । कई श्रृतियोंका निष्कर्ष एवं ब्रह्मसूत्र व दर्शन संग्रहोसे कुछ उसमें चयन किया हैं । या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता सप्तशतिमें जाति को एक शक्ति का रूप माना हैं । वैचित्रता एक नैसर्गिक शक्ति हैं । ब्रह्माण्ड का कोई भी भाग हो या काल का कोई भी क्षण हो, यह सदैव दृष्टिगोचर होती ही है। कहीं धनी गरीब का भेद - कहीं गोरे काले का - कहीं बुद्धिजीवी मूर्ख - कहीं ऊंचे नीचे का - जाति भेद कभी भी मिटाया नहीं जा सकता वह प्राकृतिक महाशक्ति हैं । हमारे ऋषियोने इस सत्यको स्वीकारते हुए वर्णव्यवस्था का गठन वेदकाल में ही किया हैं । जो चीज नित्यरूप से विद्यमान है, उसे सुनियोजित क्यों न करें । पूर्वजन्मस्य संस्कारा के हिसाबसे योनि प्राप्त होती हैं और जन्म से ही जाति गणना की यथार्थता बनती हैं । गीता के चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः का लोग स्वल्पबुद्धि से गुणकर्म को छोडकर अर्थघटन करते हैं । यद्यपि कपूय चरणा कपूय योनिं प्राप्नुयात् जैसी कई श्रुतियों को तार्किक एवं दर्शनात्मक अभिगम से भी स्वीकृत करनी ही पडेगी । विशेष कृपया संपर्क करें । ईमेल - panditpp@gmail.com ppp.siddhpur@gmail.com Blog http://gudhharth.blogspot.com/

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