Saturday, August 1, 2009

कर्ण और वर्ण व्यवस्था

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक,
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
-- रामधारी सिंह "दिनकर" (रश्मिरथी)


पिछली चर्चा "शास्त्रों के अनुसार वर्ण व्यवस्था - भाग ३ (अन्तिम भाग) " में वर्ण व्यवस्था के मानकों पर विदुर के सम्मान की वार्ता पर श्रधेय अनुराग शर्मा जी (स्मार्ट इंडियन) ने एक सहज प्रश्न किया था - कर्ण और वर्ण व्यवस्था पर उसकी उपेक्षा पर। कर्ण और भीष्म दोनों ही महाभारत के ऐसे पात्र हैं जिनकी पीड़ा और विवशता किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को द्रवित कर जाती हैं। भीष्म ने जहाँ अपना राजपाट, वंश परम्परा को पिता के लिए त्याग दिया और फ़िर उस निर्णय के कारण अपने वंश को नष्ट होते हुए देखा, अपनी इच्छा-मृत्यु के अभिशापित वर से जितना दुखी वे हुए होंगे उतना तो शायद हो कोई हुआ हो ।

इसी प्रकार कर्ण भी अपने जीवन में सैदव ही सत्य और निष्ठां के कसौटी पर कसा गया, प्रेम और ममत्व में छाला गया। कैसा लगता होगा जब आप के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण युद्घ से पहले आपकी माँ, जिसने आपको हमेशा के लिए त्याग दिया हो, आकर आपसे उन भाइयों की जीवन की भिक्षा मांगे जिन्होंने जीवन भर आपका विरोध किया हो। और साथ ही यह भी सम्भावना हो कि जिस युद्घ में आप उन्हें जीवन दान दे रहे हैं उसी में वो आपके प्राण हरने की घोर चेष्ठा करंगे । कैसा लगता होगा जब आपके द्वार पर स्वं इन्द्र आकर आपके शरीर का अंश कवच और कुंडल मांगे, कैसा लगता होगा जब जिस गुरु की निद्रा के लिए आप वृश्चिक-दंश सहें वो ही आपको शाप दे दे, अपनी मृत्यु वेदना भुला कर भी अपने दांतों का दान करना पड़े.....ऐसे मित्र-वत्सल, सत्य निष्ठ, महादानी और धनुरश्रेष्ठ महा पराक्रमी वीर से सहानभूति किसी को कैसे नहीं होगी।

वैसे तो विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद और कालांतर में पाण्डु की मृत्यु के बाद, कुरुवंश तो शुद्ध क्षत्रियों का रक्तविहीन हो गया था और उसे संकर वर्ण की ही संताने थी। उस काल में संकर वर्ण के इन प्रतिनिधियों का क्षत्रिय रूप में उभारना और मान्यता प्राप्त करना वर्ण व्यवस्था के कर्मगत स्वभाव को ही दर्शाता हैं। साथ ही महाराज शांतनु के मतस्यगंधा सत्यवती और गंगा (जिसके विषय में शांतनु को कुछ भी ज्ञात नहीं था) से विवाह से लेकर भीम और अर्जुन तक विवाह संबंधों में भी वर्ण व्यवस्था नगण्य प्रतीत होती हैं। ऐसे में उस काल में कर्ण की सूत-पुत्र के रूप में हुई तथाकथित उपेक्षा जातिगत कम और राजनैतिक अधिक प्रतीत होती हैं। कर्ण के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलु जिनमे उसकी जातिगत उपेक्षा प्रतीत होती हैं के विषय में मैं अपने विचार रख रहा हूँ...

कर्ण का जन्म के समय कुंती ने स्वाभाविक रूप से वहीं किया जो कोई भी अविवाहिता लड़की लोक-लाज के भय से करती। अपने कवच और कुंडल की वजह से संभवतः कुंती ने कर्ण को अपने प्रथम साक्षात्कार में ही पहचान लिया हो किंतु राज-माता होते हुए शायद वे अपनी गरिमा को खोना नहीं चाहती हो । वैसे भी कर्ण के लालन-पोषण में उसकी जातिगत उपेक्षा नहीं मिलती हैं। अधिरथ और राधा ने संभवतः कर्ण कभी उसके अज्ञात कुल-वंश की वजह से तिरस्कृत नहीं किया - मेरे ज्ञान में तो ऐसा कोई भी सन्दर्भ नहीं हैं। कर्ण के सूत-पुत्र होने का पहला स्मरण उसकी शिक्षा के साथ आता हैं - जब वह द्रोणाचार्य के पास शिक्षा पाने गया। और द्रोणाचार्य ने यह कहकर उसको मन कर दिया कि वे केवल राज-पुत्रों को शिक्षा दे सकते हैं। इस घटना में कहीं भी वर्ण-व्यवस्था के कारण उसे शिक्षा से वंचित नहीं किया गया। राजकीय सुरक्षा के कारण यह एक सोचा समझा कदम रहा होगा। द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वस्थामा के अतिरिक्त शायद किसी और को शिक्षा न प्रदान करने के लिए बाध्य थे। जबतक द्रोणाचार्य कुरु राजपुत्रों को शिक्षा देने में रत थे तबतक उनके आश्रम से किसी और महाबली को ज्ञान मिला हो इसका वर्णन भी नहीं मिलता हैं। वैसे भी द्रोणाचार्य द्रुपद से प्रतिशोध में इतने संलग्न थे कि वे कुरुकुमारों की शिक्षा जल्द से जल्द पूरी करके अपने अपमान का बदला लेना चाहते थे। ऐसे में कर्ण को विद्यार्थी के रूप में बीच में लेने से उनकी योजनाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता था। कर्ण के द्रोणाचार्य के पास जाकर विद्याथी के रूप में लेने के अनुरोध से ही यह सिद्ध होता हैं कि उस काल में कोई भी योग्य मनुष्य किसी भी गुरु से शिक्षा ले सकता था - सभी को ऐसे सामान अवसर प्राप्त थे और जाति व्यवस्था शिक्षा के क्षेत्र में मान्यता नहीं रखती रही होगी ।

कर्ण के जीवन में जाति का दूसरा प्रकरण तब आता हैं जब परशुराम ने उन्हें झूठी जाति बताने पर शापित किया था। इस घटना के विवेचन पर यहाँ भी कर्ण को निम्न जाति का होने से शाप नहीं मिला था। कर्ण ने परशुराम को जाकर अपनी जाति ब्राह्मण बताई। परशुराम का ब्राह्मण-प्रेम उस युग में भी सर्व-विदित था और कर्ण ने ऐसे में अपने को ब्राह्मण बता कर उनसे दीक्षा ली। यहाँ ये प्रश्न स्वाभाविक हैं कि कर्ण ने अपना अधिकांश शैशव क्षत्रिय के बीच ही बिताया था - ऐसे में उसने स्वं को क्षत्रिय (या वैश्य) क्यों नहीं बताया? परशुराम क्षत्रियों को भी शिक्षा देते थे जैसेकि भीष्म। ऐसे में कर्ण का असत्य अपना वर्ण छिपाने से अधिक अपनी स्वीकृति के अवसर बढ़ाने के अधिक प्रतीत होता हैं। पशुराम का शाप भी कर्ण को उसके झूठ के कारण मिला। परशुराम जब उसे उसके गुणों के आधार पर क्षत्रिय मान रहे थे तब भी कर्ण स्वं ब्राह्मण और तदुपरांत सूत पुत्र कह रहा था। ऐसे में परशुराम को कर्ण की अपने कुल की अनभिज्ञता छल अधिक प्रतीत हुई और उन्होंने कर्ण को शाप दे दिया। यहाँ ध्यान देने योग्य दो बातें हैं - प्रथम, परशुराम द्वारा गुणों के आधार पर जाति का निर्धारण और दूसरी परशुराम का क्षत्रिय विरोधी स्वभाव। जिस प्रकार परशुराम ने अनेको बार क्षत्रिय विरोधी अभियान चलाये उससे उन्हें संभवतः क्षत्रियों से विशेष सावधान रहना पड़ता हो -ऐसे में जब उन्होंने एक छदम-भेषी क्षत्रिय को अपने शिष्य के रूप में पाया तो उनका क्रोध और कठोर दंड स्वाभाविक ही था। परशुराम दंड देते समय भी कर्ण को क्षत्रिय ही मान रहे थे (न कि सूत-पुत्र ) क्योंकि उनका शाप कर्ण को युद्घ में आवश्यकता पड़ने पर विद्या भूल जाने का दंड था। अब यदि सूत-पुत्र के रूप में कर्ण को दंड मिलता तो उसके युद्धरत होने की सम्भावना अत्यन्त क्षीण थी। (उस समय तक तो कर्ण के लिए अंग-राज होने का स्वप्न भी दृष्टव्य नहीं था।) इस प्रकार यहाँ भी जाति व्यवस्था के स्थान पर गुरु-शिष्य व्यवस्था में विश्वास का हनन ही शाप का मूल कारण हैं।

एक अन्य घटना जिसने कर्ण को अंगाधिपति बना दिया भी कर्ण और वर्ण-व्यवस्था की चर्चा के लिए महत्वपूर्ण हैं। जब सारे कुरु-कुमार अपने युद्घ कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे ऐसे में कर्ण ने आकर अर्जुन को द्वंद के लिए ललकारा और कृपाचार्य ने कर्ण के राज-पुरूष न होने के कारण उसे अस्वीकार कर दिया। यहाँ भी कर्ण निम्न वर्ण के होने के वजह से अस्वीकृत नहीं हुए। इसी समय दुर्योधन द्वारा उन्हें अंग का राज दे दिया जाता हैं - सूत-पुत्र होना कर्ण के शासक बनने में आड़े नहीं आता हैं। पूरी सभा में उपस्थित कोई भी विद्वजन (यहाँ तक कि कृपाचार्य और द्रोणाचार्य भी) कर्ण के इस उत्कर्ष पर आपत्ति नहीं करते हैं। विदुर, धृतराष्ट्र, भीष्म या प्रजा कोई भी इस आशय में कोई आपत्ति नहीं रखते हैं। इससे यह तो सिद्ध होता ही हैं कि शासन का अधिकार जन्मगत या कुल/वंश आधारित तो नहीं था।

कर्ण के जीवन में जाति के आधार पर प्रथम और एकमात्र तिरस्कार द्रौपदी के स्वयंवर में मिलता हैं। किंतु इस प्रकरण का भी विश्लेषण इसे राजनैतिक अधिक और जातिगत कम ही उजागर करता हैं। कर्ण जब द्रौपदी के स्वयंवर में मत्स्य भेदन के लिए खड़े होते हैं तब श्री कृष्ण के इशारे पर द्रौपदी कर्ण को सूत-पुत्र कहकर विवाह से मना कर देती हैं। इस घटना के अनेक पहलु हैं किंतु इस बात का उज्जवल पक्ष हैं - उस समय में नारी की विवाह के सम्बन्ध में स्वतंत्रता । कर्ण अन्य शासकों के साथ वहां विवाह के लिए आमंत्रित थे अतः विवाह के लिए जाति सामाजिक रूप से कोई अवरोध नही प्रतीत होती हैं। अब प्रश्न अवश्य ही यह उठता हैं कि द्रौपदी ने विवाह के लिए मना क्यों किया (या कृष्ण ने उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित क्यों किया)। द्रुपद और द्रोणाचार्य की शत्रुता किसी से भी छिपी नहीं थी। साथ ही पांडवों द्वारा द्रुपद विजय के बाद कौरवों में गुरु के लिए कुछ करने के उत्कंठा अवश्य ही रही होगी। श्री कृष्ण तो कौरवों के अमर्यादित, उच्छृंखल और उदंड स्वभाव को जानते ही थे, ऐसे में, यदि द्रुपदी कौरवों या उनके किसी समर्थक के साथ विवाहित होती तो द्रौपदी के अहित की संभावना बनी रहती। कर्ण जो मित्रता के नाते अधर्म का न चाहते हुए भी समर्थन करता रहा (युयुत्सु सा सामर्थ्य सभी में नही होता), किस प्रकार पत्नी रूप में द्रौपदी का अहित रोक पता यह विषय विचारणीय हैं। दूसरी ओर पांडवों के सदैव ही नियंत्रित व्यवहार में ऐसी सम्भावानी क्षीण थी। इस घटना का दूसरा पक्ष यह भी रहा होगा द्रौपदी स्वयं भी इस शत्रुता के चलते कुरु वंश जिसने उनके पिता का अपमान किया हो में न जाना चाहती हों । अर्जुन ने जब द्रौपदी का वरण किया तब द्रौपदी को उनके कुरु वंशज होने का भेद नहीं पता था। वर्ण इतर घरानों में होने वाले कुरु विवाह (शांतनु से लेकर पांडवों तक) और स्वयंवर में कर्ण के निमंत्रण से इस प्रकरण में वर्णाधारित भेदभाव नगण्य प्रतीत होता हैं। द्रौपदी द्वारा कर्ण को मना करना एक सुरक्षात्मक निर्णय था जिसका क्रियान्वयन जाति व्यवस्था की ओट में हुआ परन्तु उस निर्णय में जाति गत विद्वेष नहीं था ।

युद्घ की घड़ी में कर्ण के जाति-गत विरोध के रूप में कुछ प्रबुद्ध जन भीष्म के उस निर्णय को भी लेते हैं जिसमे अपने नेतृत्व में कर्ण को लेने से मना कर दिया था। इस घटना को जाति-गत रूप से देखना भी अनुचित होगा। भीष्म कर्ण के गुरु-भाई भी थे और गुरु के दिए शाप को भी जानते थे संभवतः इसी कारण कर्ण को युद्घ में लाकर क्षति नहीं पहुँचाना चाहते थे। उनको स्वयं इच्छा मृत्यु का वर था और वे चाहते तो सारे पांडवों का विनाश भी कर सकते थे। किंतु वे ह्रदय से पांडवों की विजय चाहते थे। ऐसे में एक और पराक्रमी योद्धा को रण में लाने से पांडवों को भी हानि होती। दोनों ही परिस्थितियों में इस निर्णय को भी जाति-गत नहीं माना जा सकता।

कर्ण का चरित्र आदर्शों से भरा होकर भी अधर्म का मूक समर्थक रहा। और संभवतः यही उसके पतन का कारण भी बना । यश पाकर भी यशस्वी न हो सका। यह जानकर भी कि वह पांडवों और कौरवों में अग्रज होकर भी युद्घ को रोक सकता - मित्र के मान-सम्मान के लिए लड़ता अपनी मृत्यु-शय्या तक दान देता रहा। ऐसे व्यक्तित्व अपने आप में वर्ण वर्गीकरण से कहीं ऊंचा उठ जातें हैं। कर्ण के लिए गुलाल फ़िल्म से कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं -

जीत की हवस नहीं, किसी पर कोई वश नहीं
क्या जिंदगी है ठोकरों पे मार दो ,
मौत अंत है नही तो मौत से भी क्यों डरे?
यह जाके आसमान में दहाड़ दो ।

8 comments:

  1. लेख बहुत बढ़िया है और ज्यादा जानकारी के लिये आप शिवाजी सामंत का उपन्यास "मृत्युंजय" दानवीर कर्ण की जीवन गाथा पढ़िये।

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  2. बहुत ही बढिया आलेख्! आभार

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  3. तार्किक और बोधगम्य। एक सकारात्मक और आशावादी परिकल्पना भी है। बधाई।

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  4. पढ़कर बहुत अच्छा लगा और काफी कुछ अधिक स्पष्ट हुआ. आशा है उस काल की परिस्थितियों को समझने में यह लेख मेरे साथ और लोगों के लिए भी सहायक सिद्ध होगा. टिप्पणी का मान रखने और समय देने के लिए धन्यवाद.

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  5. 'वर्णसंकरता' और रक्त पवित्रता की 'यूरोपियन' अवधारणा भारतीय सन्दर्भों में लागू करने पर भ्रांतियाँ होती है। गीता में अर्जुन जब वर्ण संकरता के प्रश्न उठाता है तो कृष्ण ऐसा कुछ नहीं कहते जिससे उसकी वर्णसंकरता जाहिर होती हो।

    वर्ण संकरता की इस कसौटी पर वशिष्ठ, अगस्त्य वगैरह जाने कितने ऋषि वर्णसंकर कहलाएंगें। इस प्रसंग में सत्यकाम जाबाल की कथा का स्मरण भी आवश्यक है।

    संस्कार और ऋषि परम्परा की सहमति से कोई भी ब्राह्मण या क्षत्रिय हो सकता था। परवर्ती मध्य काल में भी विदेशी और देसी लड़ाकू जातियों का शोधन कर उन्हें क्षत्रिय राजपूत बनाने के प्रमाण मिलते हैं। ध्यातव्य है कि ये भी अपने गोत्रों को ऋषि परंपरा से जोड़ते हैं।
    ब्राह्मणों के एक वर्ग जिन्हें 'सकलदीपी' कहा जाता है का भी उदाहरण लिया जा सकता है।
    रक्त की शुद्धता और त्वचा की शुभ्रता की विदेशी अवधारणा की तुलना जब वृहदारण्यक उपनिषद के Content से करते हैं तो और स्पष्टीकरण होता है।
    उसमें 'श्याम वर्ण' के वेदज्ञाता पुत्र की प्राप्ति हेतु मंत्र बताए गए हैं।

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  6. गिरिजेश राव जी,

    मेरे पिछले चिठ्ठों का सार भी यही हैं...हमारी कर्मगत व्यवस्था ही वर्ण व्यवस्था का आधार हैं। सत्यकामा जबला की कथा ही क्यों, मैंने ऐसे अनेक उदाहरण शास्त्रों के आधार पर दिए हैं जो कि वर्ण-व्यवस्था के कर्म गत रूप को उजागर करते हैं। यदि आप पिछली चर्चाओं को पढेंगे तो पायेंगे कि वे आपके इस कथन का समर्थन करते हैं कि संस्कार और ऋषि परम्परा की सहमति से वर्ण परिवर्तन होते रहें हैं।

    वर्तमान में चल रहीं चर्चा (इतिहास के आधार पर वर्ण-व्यवस्था) में सकलदीपी और कई अन्य ऐसे उदहारण आयेंगे जहाँ वर्ण-परिवर्तन हुआ हैं। और फ़िर सकलदीपी ब्राह्मणों की चर्चा तो आगे भी सरयूपारीण ब्राह्मणों के साथ आएगी। आशा हैं कि आप उन चर्चओं में भी आपने मत देकर उत्साह वर्धन करते रहेंगे।

    सादर,

    सुधीर

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  7. कृष्ण, राम और शिव ये तीनों ही श्याम वर्ण के थे !

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