Saturday, August 8, 2009

इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था -भाग २

न वर्णा न वर्णाश्रमाचारधर्मा न मे धारणाध्यानयोगादयोपि।
अनात्माश्रयाहंममाध्यासहानात्‌ तदेकोऽवशिष्ट: शिवः केवलोऽहम्‌॥

जगतगुरु आदि शंकराचार्य द्वारा रचित "दशाश्लोकी" के यह श्लोक
७वी शताब्दी में वर्ण-व्यवस्था की धार्मिक मीमांसा और दर्शन में नगण्यता को दिखता है।

पिछली चर्चा (देखें) में हमने विश्व की सभी पुरातन सभ्यताओं के विकास क्रम में सहज रूप से कर्माधारित सामाजिक वर्गों या वर्णों का निर्माण होना पाया। आज भी विश्व की विभिन्न क्षेत्रो में इस प्रकार के सामाजिक वर्ग देखने को मिल जातें हैं - चाहे वह मेसो अमेरिकन क्षेत्रों में पाया जाने वाला वर्गीकरण हो (पेनिनसुलर, क्रिओल्लो , कास्तिजो , मेस्तिजो , चोलो , मूलतो, इन्डियो , जंबो मराकुचो इत्यादि) या अफ्रीकी महाद्वीप में पाई जाने वाली मंडे , जोनोव , वोलोफ, बोरना और उबुहके जातियाँ ; या हवाई की कहुना, अली'इ, मकाsइनना और कौवा जातियाँ; या इसी प्रकार जापान, चीन, या कोरिया के सामाजिक वर्ग...हर सामाजिक व्यवस्था में इन श्रम आधारित वर्गों का कोई न कोई रूप देखने को मिल ही जाता हैं। साथ ही इन सभी भौगालिक रूप से फ़ैली हुई सभ्यताओं का प्रथम दृष्टया अध्धयन सामान स्वरूप के वही तीन-चार वर्गों को दर्शाता हैं। ऐसे में भारतीय वर्ण-व्यवस्था को धार्मिक (वैदिक अथवा हिंदू) आधार पर स्वीकार करना अनुचित होगा। वस्तुतः यह वयवस्था सामाजिक विकास क्रम की ही स्वाभाविक परिणति हैं।

भारतीय संस्कृति में भी यह व्यवस्था श्रम-आधारित ही थी और इस प्रकार का वर्ग-विभाजन सामाजिक आवश्यकता के कारण ही उत्पन्न हुआ। इसे किसी भी रूप से धार्मिक और वैदिक नहीं माना जा सकता। इसी कारण भारतीय इस्लामिक और ईसाई पद्धतियों में भी जाति का स्वरुप बना रहा । (इसी कारण आज भी दलित ईसाई, मुस्लिम और सिखों की राजनीति भी हिंदू दलितों की तरह अपने परवान पर हैं।) इस विषय पर दक्षिण भारतीय विद्वान "के श्रीनिवासुलु" के विचार भी महत्वपूर्ण हैं - वे वर्ण व्यवस्था का आधार सिद्धान्तिक रूप से सामाजिक मानते हैं न की धार्मिक। "यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया , बर्कली " के "जोर्ज एल हार्ट" द्वारा किए तमिल संगम साहित्य और १००-७०० ईस्वी के बीच रचित अन्य दक्षिण भारतीय सहित्य अध्ययन के अनुसार भी वर्ण व्यवस्था वैदिक नहीं मानी जा सकती। अवैदिक समाज में भी एक प्रकार के वर्ग-विभाजन और पुजारी प्रधान समाज के रूप मिलते हैं (जोर्ज हार्ट के लेख "दक्षिण भारत में जाति के प्रारंभिक साक्ष्य" (Early Evidence for Caste in South India ) के अनुसार)। इस सम्बन्ध में विलियम क्रूक के सम्पूर्ण अवध (और मूल रूप से सारे भारतीय ) के वर्णों के बीच मानवीय संरचना के अध्ययन से (अन्थ्रोपोमेट्री स्टडी - anthropometry study) से निकला गया यह निष्कर्ष कि सभी भारतीय वर्ण एक ही मानव-प्रजाति के संतति हैं और उनमे कोई विजित और पराजित जातियों का मेल नहीं मिलता हैं - यह सिद्ध करता हैं की उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूर्व से लेकर पश्चिम तक वर्ण व्यवस्था का विकास सहज रूप से भारतीय उपमहादीप में हुआ। यहाँ पनपते समाज ने अपनी श्रम की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वर्ण-व्यवस्था का विकास किया। (शूद्र समाज कोई आर्यों से पराजित जाति नहीं हैं।)

भारतीय समाज में कालांतर में उत्त्पन्न हुए मध्यम वर्ग (जैसेकि कायस्त ) भी वर्ण व्यवस्था के कर्मगत रूप को उजागर करता हैं। सामाजिक विकास के साथ जब कृषि और पशु-पालन जैसे प्राथमिक व्यवसायों को छोड़ कर शिल्प, कला और निर्माण जैसे व्यवसायों के विकास हुआ उनके साथ ही वाणिज्य, कर, राजस्व जैसे जटिल प्रक्रियाओं का भी उदय हुआ। इन जटिल सामाजिक विकास क्रम में समाज को एक नए मध्यम वर्ग की आवश्यकता हुई तो लेखाकारों, मुनिमो, महाजनों, धनिकों के नए समुदायों का जन्म हुआ। यह समुदाय चार वर्णों की परिभाषा पर पूर्ण रूपेण खरे नहीं उतरते किंतु यह समाज की आवश्यकता ही थी जिसने इन वर्गों को भी न केवल धार्मिक मान्यता ही दी किंतु साथ ही उन्हें उनके गुणों के आधार पर संकर वर्णों में भी जगह दी। उदाहरणार्थ - कायस्थों को ब्राह्मण और क्षत्रिय का मिला जुला रूप माना गया हैं नाकि मनु-स्मृति के अनुसार उन्हें सूत माना गया । ( स्पष्ट करना चहुँगा कि प्रचलित किम्वदंती के अनुसार - चित्रगुप्त के ब्रह्मा जी के काया से उत्पन्न होने वाले १७ वे पुत्र के नाते कई जगह कायस्थों को ब्राह्मण का ही रूप माना जाता हैं किंतु इस चर्चा में हम मानव इतिहास के आधार पर इस व्यवस्था को परख रहें हैं)।

भारतीय इतिहास के रूप को समझने के लिए प्राचीन काल के विदेशी यात्रियों के विवरण से उपयुक्त स्रोत क्या होगा। विदेशी पर्यटक बिना किसी सामाजिक प्रभाव के एक निष्पक्ष टिपण्णी प्रदान करते हैं। ३०६-२९८ ईसा पुर्व में मेगस्थनीज मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्यूकस का राजदूत बनकर रहा था। उसने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में पाटलिपुत्र नगर की विस्तृत चर्चा की है। इसमे उसने चार वर्णों के स्थान पर सात वर्णों का उल्लेख किया हैं - दार्शनिक, कृषक, चरवाहे (पशु-पालक), शिल्पकार, योद्धा , निरीक्षक (अधिकारी) और मंत्री। इसके अतिरिक्त सम्राट तो प्रमुख होता ही था। इस प्रकार हम उस समाज में चार वर्णों का स्पष्ट रूप नहीं पाते हैं। जो इस बात को उजागर करता हैं कि या तो उस समय इन वर्णों का उदय नहीं हुआ था या फ़िर वे इतनी महत्ता नहीं रखते थे कि वे समाज में स्पष्ट रूप से दिखें। अन्य साक्ष्यों के आधार पर चाणक्य ब्राह्मण था यह बात सर्व-विदित हैं अतः प्रथम सिद्धांत कि उस काल में वर्ण व्यवस्था नहीं थी सत्य नहीं प्रतीत होती हैं। सो उस काल में वर्ण-व्यवस्था के बंधन और नियम उतने कठोरता से नहीं पालन किए जाते थे और उनका कोई भी महत्व नहीं था। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को साधारण सैनिक से सम्राट बनाया किंतु उस समय भी जाति आड़े नहीं आयी। यहाँ तक कि चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी जाति के विभाजान को कहीं भी आधार नहीं बनाया गया हैं।

३९८ ईसवीं में चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन में आने वाले चीनी यात्री फाह्यान ने नालन्दा, पटना, वैशाली आदि स्थानों का भ्रमण किया। उसने भी अपने यात्रा वृतांतों में वर्ण व्यवस्था अथवा जाति प्रथा या समाज के किसी वर्ग के शोषण का उल्लेख नहीं किया हैं। इसी प्रकार ७वीं सदी में (६७३-६९२ ई.) भारत आगमन पर आए चीनी यात्री इत्सिंग के भी यात्रा-वृतांतों में जाति का उल्लेख नहीं मिलता।

हर्षवर्धन के शासनकाल (६४१ ई.) में भारत आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (ह्वेनसांग) ने अपने यात्रा-वृतान्त सी-यू-की में सिन्ध प्रदेश में शूद्र शासक क वर्णन किया हैं। अन्य साक्ष्यों के आधार पर उस समय सिंध में अन्तिम हिंदू शासक राजा दाहिर का शासन था -वे ब्राह्मण वंशज थे (और संभवतः अपनी सौतेली बहन से विवाह के कारण शूद्र माने जाने लगे हों।) । यह तो स्पष्ट नहीं हैं कि ह्वेन त्सांग ने उस शासन को शूद्र की उपाधि क्यों दी किंतु इस वर्णन से यह तो सिद्ध होता ही हैं कि राजकीय कार्य क्षत्रियों तक ही सिमित नहीं थे। उन्हें ब्राह्मण या शूद्र कोई भी कर सकता था।

आंध्र-प्रदेश के शूद्र वंशीय शासकों ने तो स्वयं अपनी शूद्रता पर गर्व करते हुए शिलालेख लगवाये (सिन्गामा-नायक, १३६८)। इनमें तीनो वर्णों से शूद्र वर्ण को शुद्धता के आधार पर श्रेष्ठ माना गया हैं। इसमें लिखा हैं कि जिस प्रकार प्रभु के चरणों से निकल कर गंगा पवित्र हैं वैसे ही ईश्वर के चरणों से उत्पन्न शूद्र भी पवित्र हैं। (के राम शास्त्री, एपिग्रफिया इंडिका संस्करण १३)। इसी प्रकार एक अन्य दक्षिण भारतीय शासक प्रोलाया भी शूद्र वंश में पैदा हुए थे। उन्होंने भी ईश्वर के चरणों से उत्पत्ति को भाग्यशाली मानते हुए कहा कि "पुंसः पुरानास्य पदादुदिर्नाम वर्णं यामाहु कलिकलावार्यम" (कुनाल)

इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल शास्त्रों के आधार पर बल्कि भारत के प्रारंभिक और मध्यकालीन इतिहास तक वर्ण व्यवस्था कोई भी जन्मगत आधार पर अवरोध नहीं उत्पन्न करती हैं। यह एक पूर्ण रूपेण सामाजिक व्यवस्था है जिसको धार्मिक ग्रंथों में कर्मगत आधार पर मान्यता तो मिली हैं किंतु उसके अनुपालन में कोई बाध्यता नहीं हैं। सभी वर्णों को सामान अवसर प्राप्त हैं। अपनी आगे की चर्चा में वर्ण व्यवस्था के परिवर्तनीय रूप को देखेंगे।

सादर,
सुधीर

8 comments:

  1. भारतीय संस्कृति में भी यह व्यवस्था श्रम-आधारित ही थी और इस प्रकार का वर्ग-विभाजन सामाजिक आवश्यकता के कारण ही उत्पन्न हुआ।

    ठीक कह रहे हैं आप। गीता में भी एक श्लोक है - '"चातुर्वण्यं मया श्रृष्टं गुण कर्म विभागशः"

    आपके आलेख को पढ़कर अचछा लगा।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. adbhut aur anootha aalekh
    gahan adhyyan aur shodh upraant likhe gaye is aalekh k liye aapka abhinandan !

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  3. भारत भूमि पर अनेक कायस्थ राजाओं ने राज्य किया जहाँ एक तरफ कायस्थ राज काज में निपुण हैं वही अपनी बौधिक क्षमता से भारत एवं विश्व को आलोकित किया |
    वेद पुराणों में श्री चित्रगुप्त महाराज व् उनके वन्सजो का विवरण तथा कायस्थ नाम करण -

    ब्राहस्य मुख मसीद बाहु राजन्यरू कृतरू। उरुतदस्य वैश्य, पद्यायागू शूद्रो अजायतरू।। (अहिल्या कामधेनु संहिता)

    (अर्थात् नव निर्मित सृष्टि के उचित प्रबन्ध तथा समाज की सुव्यवस्था के लिए श्री ब्रह्मा जी ने अपनें मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा चरणों से शूद्र उत्पन्न कर वर्ण चतुष्टय (चार वर्णों) की स्थापना की। सम्पूर्ण प्राणियों के शुभ-अशुभ कार्यों का लेखा-जोखा रखनें व पाप-पुण्य के अनुसार उनके लिये दण्ड या पुरस्कार निश्चित करने का दायित्ंव श्री ब्रह्मा जी ने श्री धर्मराज को सौंपा। कुछ समय उपरान्त श्री धर्मराज जी ने देखा कि प्रजापति के द्वारा निर्मित विश्व के समस्त प्राणियों का लेखा-जोखा रखना अकेले उनके द्वारा सम्भव नहीं है। अतरू धर्मराज जी ने श्री ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि श्हे देव! आपके द्वारा उत्पन्न प्राणियों का विस्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। अतरू मुझे एक सहायक की आवश्यकता है। जिसे प्रदान करनें की कृपा करें।)

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  4. अधिकारेषु लोका नां, नियुक्तोहत्व प्रभो। सहयेन बिना तंत्र स्याम, शक्तरू कथत्वहम्।। (अहिल्या कामधेनु संहिता)

    (श्री धर्मराज जी के निवेदन पर विचार हेतु श्री ब्रह्मा जी पुनरू ध्यानस्त हो गये। श्री ब्रह्मा जी एक कल्प तक ध्यान मुद्रा में रहे, योगनिद्रा के अवसान पर कार्तिक शुल्क द्वितीया के शुभ क्षणों में श्री ब्रह्मा जी ने अपने सन्मुख एक श्याम वर्ण, कमल नयन एक पुरूष को देखा, जिसके दाहिने हाथ में लेखनी व पट्टिका तथा बायें हाथ में दवात थी। यही था श्री चित्रगुप्त जी का अवतरण।)

    सन्निधौ पुरुषं दृष्टवा, श्याम कमल लोचनम्। लेखनी पट्टिका हस्त, मसी भाजन संयुक्तम्।। (पद्मपुराण-पाताल खण्ड)

    (इस दिव्य पुरूष का श्याम वर्णी काया, रत्न जटित मुकुटधारी, चमकीले कमल नयन, तीखी भृकुटी, सिर के पीछे तेजोमय प्रभामंडल, घुघराले बाल, प्रशस्त भाल, चन्द्रमा सदृश्य आभा, शंखाकार ग्रीवा, विशाल भुजाएं व उभरी जांघे तथा व्यक्तित्व में अदम्य साहस व पौरूष झलक रहा था। इस तेजस्वी पुरूष को अपने सन्मुख देख ब्रह्मा जी ने पूछा कि आप कौन है? दिव्य पुरूष ने विनम्रतापूर्वक करबद्ध प्रणाम कर कहा कि आपने समाधि में ध्यानस्त होकर मेरा आह्नवान चिन्तन किया, अतरू मैं प्रकट हो गया हूं । मैं आपका ही मानस पुत्र हूं। आप स्वयं ही बताये कि मैं कौन हूं ? कृपया मेरा वर्ण- निरूपण करें तथा स्पष्ट करें कि किस कार्य हेतु आपने मेरा स्मरण किया। इस प्रकार ब्रह्माजी अपने मानस पुत्र को देख कर बहुत हर्षित हुये और कहा कि हे तात! मानव समाज के चारों वर्णों की उत्पत्ति मेरे शरीर के पृथक-पृथक भागों से हुई है, परन्तु तुम्हारी उत्पत्ति मेरी समस्त काया से हुई है इस कारण तुम्हारी जाति कायस्थ होगी।)

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  5. मम् कायात्स मुत्पन्न, स्थितौ कायोऽभवत्त। कायस्थ इति तस्याथ, नाम चक्रे पितामहा।। (पद्म पुराण पाताल खण्ड) कायेषु तिष्एतति-कायेषु सर्वभूत शरीरेषु। अन्तर्यामी यथा निष्एतीत।। (पद्य पुराण पाताल खण्ड)

    (काया से प्रकट होनें का तात्पर्य यह है कि समस्त ब्रह्म-सृष्टि में श्री चित्रगुप्त जी की अभिव्यक्ति। अपनें कुशल दिव्य कर्मों से तुम कायस्थ वंश के संस्थापक होंगे। तुम्हें समस्त प्राणि मात्र की देह में अर्न्तयामी रूप से स्थित रहना होगा। जिससे उनकी आंतरिक मनोभावनाएं, विचार व कर्म को समझने में सुविधा हो।)

    चित्रं वचो मायागत्यं, चित्रगुप्त स्मृतो गुरूवेरू। सगत्वा कोट नगर, चण्डी भजन तत्पररू।। (पद्य पुराण पाताल खण्ड)

    (ब्रह्माजी ने नवजात पुत्र को यह भी स्पष्ट किया कि आप की उत्पत्ति हेतु मैने अपने चित्त को एकाग्र कर पूर्ण ध्यान में गुप्त किया था अतः आपका नाम चित्रगुप्त ही उपयुक्त होगा। आपका वास नगर कोट में रहेगा और आप चण्डी के उपासक होंगे।)

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  6. देश को बर्बाद करने वाले अग्रेजो के परम चाटुकार पंडित ही थे , अपने स्वार्थ के समाज में जातिवाद फ़ैलाने व् भेदभाव करने वाले पंडित ही थे । आज सबसे बड़े चोर गद्दार ब्राहमण ही हैं ।

    ब्राम्हण के सत्संग में सुख नहि पावे कोय !
    राजा बाली - हरिश्चन्द्र ने दिया राज सुख खोय !!
    दिया राज सुख खोय - हरी जिन जनक दुलारी !
    तीन लोक के नाथ लात तिनहू को मारी !!
    कह काका कविराय जगत का यही है थम्मन !
    कितना भी भला करो - दागा करेगा बाम्हन !!

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  7. किसी के विषय में कैसी भी कविता बहुत से लोग बना सकते हैं ऐसा ही अगर सत्य होने लगा तो समाज का बचाना तो दूर समाप्त होना तय है...काका हो या चाचा कवी अगर यह सब कुछ जनता ही था तो जोकर क्यों बना रहता जीवन भर....वेड में यज्ञ का अर्थ साधना , निर्माण और सिद्धि तथा कृति हैं और भी अर्थ हैं तो कैसे यज्ञ को परिभषित सही करोगे...पढ़ लेना...ठीक से समझ कर ..दुसरे लोग कहते हैं परन्तु भुगतना खुद पड़ता है...समझ कर काम और गली दें कोई भी किसी को का या चहक अ कवी बनकर कुछ भी अख देकाग इतिहास में सब दर्ज है...भविष्य पृरण की बातें सत्य साबित हो रहें हैं उनको भी पढना...

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