Friday, June 19, 2009

शास्त्रों के अनुसार वर्ण व्यवस्था - भाग २

पिछली चर्चा में हम वर्ण व्यवस्था की वेदानुसार व्याख्या कर रहे थे और उसके प्रारंभिक रूप को कर्मगत ही पाया। आज उस चर्चा को वेदों और मनु-स्मृति के अनुसार समझने का प्रयास करेंगे।

पिछली चर्चा में यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण के अनुसार हमने वर्णों के जन्म के विषय में जाना। किस प्रकार स्वर्ग, व्योम और भूमि से वर्णों का सम्बन्ध स्थापित किया गया था - जिसका विश्लेषणात्मक पहलु कर्मगत आधार पर यूँ किया जा सकता हैं कि दार्शनिक, बौधिक और धार्मिक कृत्यों से सम्बंधित कार्य (स्वर्ग) से ब्राह्मण, प्रशासनिक, संरक्षण एवं आश्रय देने के कृत्यों (व्योम) से क्षत्रिय और भूमि से जुड़े कार्यों से अन्य वर्ण (वैश्य और शूद्र) जन्मे। इस व्यवस्था में सभी को सामान अवसर भी प्राप्त थे। शतपथ ब्राह्मण के १.१.४.१२ श्लोक में वैदिक क्रियाओं में सभी वर्णों का संबोधन दिए हैं जिससे ये स्पष्ट होता हैं कि वैदिक कार्यों में सारे वर्ग भाग लेते थे । शतपथ ब्राह्मण (श्लोक १४.४.२.२३, ४.४.४.१३), तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.९.१४) में क्षत्रियों को संरक्षण और व्यवस्था कायम करने के कारण सभी वर्णों में श्रेष्ठ बताया गया हैं । वहीं दूसरी ओर तैत्तिरीय संहिता ( ५.१.१०.३) और ऐतरेय ब्राह्मण (८.१७) में ब्राह्मणों को ज्ञान के कारण श्रेष्ठ मन गया हैं। इन विरोधाभासी प्रतीत होने वाले विचारों से यह तो सिद्ध होता ही कि सर्वमान्य रूप से किसी वर्ण की भी श्रेष्ठता नहीं थी और un वर्गों को केवल अपने कर्मो के आधार पर ही आँका जाता था। वेदों से चर्चा समाप्त करने से पहले मैं अरविन्द शर्मा जी के विचार भी प्रस्तुत करना चाहूँगा। उनके मतानुसार सभी वर्गों की समानता उनको एक-एक वेद के साथ जोड़ भी हमारे मनीषियों ने प्रदान की हैं ("क्लास्सिकल हिंदू थॉट")। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.१२.९.२) में कहा गया हैं -
"सर्वं तेजः सामरूप्य हे शाश्वत।
सर्व हेदम् ब्रह्मणा हैव सृष्टम्
ऋग्भ्यो जातं वैश्यम् वर्णमाहू:
यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् ।
सामवेदो ब्रह्मणनाम् प्रसूति
अर्थात ऋगवेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण का जन्म हुआ। इस आधार पर ये भी मन जा सकता हैं कि अथर्ववेद का सम्बन्ध शूद्रों से हैं। जिस प्रकार कोई भी ज्ञानवां व्यक्ति किसी भी वेदों को दुसरे से ऊपर नहीं मान सकता उसी प्रकार उनसे जुड़े वर्ण भी एक दुसरे से ऊपर नहीं हो सकते।

वेदों के बाद वर्ण-व्यवस्था से सम्बंधित सबसे ज्यादा चर्चित ग्रन्थ मनु-स्मृति ही हैं (संभवतः वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में वेदों से भी अधिक चर्चित)। भारतीय दर्शन को समझने के लिए जिस ग्रन्थ को पाश्चात्य विद्वानों (अंग्रेजो) ने सर्वप्रथम चुना था वो मनु स्मृति ही था (सन् १७९४ में सर विलियम जोन्स)। इस ग्रन्थ के जिन अंशो को लेकर इसकी निंदा होती रही हैं उनमे से अधिकांश ८वे आध्याय से हैं। वास्तव में उनके अध्ययन के बाद कुछ तो अत्यन्त ही क्रूर और अमानवीय प्रतीत होते हैं (मुझे तो व्यक्तिगत रूप से कुछ अत्याचार के दिशा-निर्देशों से भरे किसी डरावनी पुस्तक से उठाये हुए प्रतीत हुए - जैसे जिह्वा, हस्त विच्छेदित करना, जीवन पर्यन्त बंधुआ मजूरी करना, एक वर्ण का दुसरे का उत्पीडन शास्त्र सम्मत मानना आदि) किंतु इस सम्बन्ध में श्री सुरेन्द्र कुमार की लिखित पुस्तक "विशुद्ध मनुस्मृति" से विचार प्रकट करना चाहूँगा। उन्होंने मनु-स्मृति के 2,६८५ छंदों (श्लोकों) में से मात्र १,२१४ को मूल ग्रन्थ का अंश माना हैं। उनके अनुसन्धान के अनुसार बाकी के श्लोक कालांतर में मनु-स्मृति से जुड़े - उनमे से अधिकांश या तो तत्कालिन लेखकों/ऋषियों की व्यतिगत समझ के अनुसार की हुई व्याख्याएं हैं। इसी सम्बन्ध श्री भीमराव अम्बेडकर जी का भी शोध महत्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार मनुस्मृति के अधिकांश भाग (जोकि यह कालांतर में जुड़े अंश हो सकते हैं) पुष्यमित्र सुंग के राज्य में बढ़ते बौध्य प्रभाव को दबाने के लिए लिखे गए (Revolution and Counter-Revolution in India )। यदि इन कालांतर में जुड़े हुए श्लोकों की भाषा को देखें तो वो भी एक विलुप्त होते समाज की साम, दाम दंड भेद की भाषा ही लगती हैं जोकि उस काल के उच्च वर्ग को लुभाकर अन्य पंथ की तरफ़ होने वाले रुझान से एन केन प्रकारेण रोकना चाह रहा हो। यदि इस ग्रन्थ को इन श्लोको से हटा कर देखें तो हम मनु-स्मृति के मूल रूप को समझ पाएंगे और जान पाएंगे कि शंकराचार्य, स्वामी दयानंद, एन्नी बेसेंट, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और फ्रिएद्रीच निएत्ज़सचे जैसे विद्वानों ने इस ग्रन्थ को क्यों सराहा।


मनु स्मृति में वर्ण व्यवस्था को अत्यन्त विस्तार से समझाया गया हैं। किंतु इसमे भी वर्ण परिवर्तनीय और कर्म बोधक ही हैं.... मनु की मूल व्यवस्था विद्वेषकारी नहीं हैं। मनु कहते हैं "शुद्रो ब्रह्मणाथामेथी ब्रह्मणास्चेथी शुद्रताम" अपने कर्मो के आधार पर ब्राह्मण शूद्र हो सकता हैं और शूद्र ब्राह्मण. इसी प्रकार अन्यत्र मनु कहते हैं "आददीत परां विद्यां प्रयत्नादवरादपि । अन्त्याद्पी परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि" अर्थात जिस प्रकार दुष्कुल (छोटे कुल) की स्त्री से मिलने पर रत्न (उपहार) ले जाने चाहिए उसी प्रकार ज्ञान किसी भी व्यक्ति से (वर्ण भेद नगण्य हैं) आदर पूर्वक लेना चाहिए।


इसी प्रकार मनु ने १०वे अध्याय में कहा हैं "अहिंसा सत्यम् अस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रह: । एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वंर्ये आब्रवीन मनु: ॥ " अर्थात चारों वर्णों के लिए नियम बनाते हए मनु कहते हैं - "अहिंसा, इन्त्रियों पर संयम, शुद्धता और सत्यता ही सभी वर्णों के लिए आवश्यक हैं"। (जब अहिंसा सभी वर्णों ले लिए आवश्यक हैं तो फ़िर आठवें अध्याय में बताये नियम कियान्वित ही नहीं किए जा सकते। ) इसी अध्याय में २४वे श्लोक में ब्राह्मण और शूद्र से उत्पन्न वंशजों के पुनः ब्राह्मण वर्ण में पुनः लौट आने का भी नियम भी दिया हैं। वर्ण परिवर्तन और उसकी उन्मुक्तता छान्दोग्य उपनिषद के सत्यकामा जाबाला की कथा में भी मिलता हैं, जहाँ केवल माता के परिचय के आधार पर बिना वर्ण के ज्ञान पर भी गुरु ने सत्यकामा को दीक्षित किया। ऐसा ही विवरण चंद्रप्रभा राजन की तीन हाथ वाली उपनिषद कथा में भी मिलता हैं (भारत एक खोज एपिसोड ४)। नारद भक्ति सूत्र में भी ईश्वर भक्ति और उपासना में जाति भेदों को नगण्य बताया हैं क्योंकि सभी भक्त भगवान् के ही हैं. - "नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियाभेदः । यतस्तदीया: । "। इसी प्रकार शाण्डिल्य सूत्र में कहा गया हैं - "आनिन्द्ययोंयाधिक्रियते पारम्पर्यात सामान्यवत" शास्त्रों और उपदेशों की परम्परा से सिद्ध होता हैं कि भक्ति पर सभी का बराबर अधोकार हैं।


इसी प्रकार मनु स्मृति में विभिन्न वर्णों के मिलन से उत्पन्न वर्णों (जातियों ) का भी उल्लेख हैं किंतु यदि इन संकर वर्णों का प्रथम दृष्टया विश्लेषण उन्हें कर्मगत ही पाते हैं। इन वर्णों में से कई तो कर्म सूचक ही हैं जैसे निषाद, वीणा, सूत इत्यादि। अन्य संकर वर्ण जैसे ब्राह्मण और वैश्य के मिलन से उत्पन्न अम्बष्ठ (चिकित्सक) वर्ण भी कर्मगत ही हैं। यह तो सम्भव नहीं कि इस प्रकार के मिलन से उत्पन्न हर व्यक्ति वैद्य ही होगा ....किंतु इस प्रकार के श्लोकों को यूँ समझा जा सकता हैं कि वैश्य गुण से व्यापारिक समझ और ब्राह्मण गुण से ज्ञान पिपासु होने से इस वर्ग की चिकित्सा क्षेत्र में सफलता निश्चित हैं। किंतु ये संकर वर्ण फ़िर भी कर्मगत रूप ही दिखाते हैं। इस विषय पर ऐसे ही कुछ विचार विलियम क्रूकस ने भी अपनी पुस्तक "दा ट्राइब्स एंड कास्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध" में व्यक्त किए हैं।


आज चर्चा में इतना ही... अगले सप्ताह वज्रसूचिका उपनिषद में ब्राह्मण व्यवस्था की चर्चा....


सादर,
सुधीर


विशेषानुरोध: अभी तक की चर्चा के विषय में अपने विचारों को अवश्य बतलाये

6 comments:

  1. आपकी व्याख्या को गौर से पढ़ रहा हूँ ,अच्छी तरह प्रस्तुत किया है आपनें .

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  2. बहुत ज्ञानवर्धक लेख है

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    चर्चा । Discuss INDIA

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  3. बेहतरीन अनुसंधान ।

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  4. चर्चा अच्छी चल रही है. आगे बढाएं.

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  5. जानकारी के लिए आभार।

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