Saturday, May 23, 2009

दैनिक हिन्दुस्तान के रविश जी को एक खुला पत्र.

आदरणीय रविश जी,

सहर्ष अभिनन्दन। सर्वप्रथम मैं आपका आभार व्यक्त करना चाहूँगा - मेरे इस प्रयास का संज्ञान लेने और इसके सम्बन्ध में अपने विचारों का प्रकाशन के लिए। आपके विचार, यूँ तो १३ मई २००९ के दैनिक हिन्दुस्तान संस्करण में प्रकाशित हुए किंतु उसके विषय में मुझे इस ही सप्ताहांत में पता चला। सौभाग्यवश मेरे एक शुभेक्छु ने ऑनलाइन प्रिंट संस्करण से उस विवेचन (कमेंट्री) की एक प्रति सुरक्षित रख ली थी (देखें)। उस लेख को पढ़कर लगा कि कई मसलों पर मुझे अपने विचार स्पष्ट करने चाहिए पर साथ ही यह सोचकर हर्षानुभूति भी हुई कि "बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा" ।

गाँधी जी ने कहा था कि (अपने धरोहर और परम्पराओं का) सच्चा ज्ञान नैतिक सामर्थ्य और स्थायीत्व प्रदान करता हैं। मैंने इस चिठ्ठे का प्रारम्भ इसी आस्था के साथ किया था। जहाँ तक इस चिठ्ठे की यदुकुल के पोर्टल से समानता हैं वो केवल वर्ग विशेष पर आधारित नाम के साथ समाप्त हो जाती हैं । यदुकुल जहाँ एक वर्ग विशेष के लिए सामाजिक मेलजोल बढाने के लिए समर्पित हैं (जिसका स्पष्टीकरण वे अपने मूल पृष्ट पे ही कर देते हैं) वहीं सरयूपारीण एक स्वान्वेषण का प्रयास हैं। इस प्रयास में मैं सभी बुद्धिजीवियों का सानिध्य चाहता हूँ। एक अपेक्षा हैं कि इस विश्लेषण की समीक्षा सभी वर्गों के प्रतिनिधियों के सहयोग से तैयार होगी। जहाँ तक मेरी खोज हैं वो तो संसाधनों की उपलब्धता से सीमित हैं किंतु पाठक जगत के विशालकाय ज्ञान सिन्धु और गंभीर चिंतन से एक सार्थक, सम्पूर्ण, सारगर्भित, विश्वसनीय और तथ्वात्मक लेख-कोष का निर्माण होगा - यही आशा हैं। साथ ही वंश परम्परा के अनुसरण का प्रयास भी, आजकल कि यायावर जीवन शैली में बिना सहयोग के किन्चित मात्र भी सम्पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकती। यह जड़ों के खोज का प्रयास प्रथम दृष्टया जातिवादी लग सकता हैं किंतु एक निष्पक्ष विश्लेषण प्राचीन ज्ञान व्यवस्था के वैज्ञानिक आधार के अन्वेषण की तृष्णा को अवश्य ही उजागर करेगा।

जहाँ तक मेरे चिठ्ठे पर ब्राह्मणों के टिपण्णी का प्रश्न हैं- मैं समझता हूँ की वंश परम्परा ढूँढने की सांझी -इच्छा और योगदान की चाहत और साथ में यह मार्ग-दर्शन की कामना और शुभेच्छा हो सकती हैं। वैसे हर वर्ग का आशीष चाहिए। जब मैं खादियापार (अपने पैतृक ग्राम) के विषय में लिखना प्रारम्भ करूंगा तो साथ ही मेरे पूर्वज और ग्राम संस्थापक स्वर्गीय श्री पलटन बाबा और एक उनके मित्र (जोकि तेली थे) की मित्रता की भी बात करूँगा। इस गाँव में आज भी ये दोनों समुदाय बिना किसी विद्वेष और वैमनस्य के रहते हैं।

आपके द्वारा साईबर ब्राह्मण की कामना .... हाँ! साईबर ब्राहमणों का आगमन तो हो ही चुका हैं। कर्मगत आधार पर भारत वर्ष के द्वारा जो परचम लहराए गएँ हैं वे सभी तो साईबर ब्राह्मण की ही तो देन हैं.... चाहे वो अजीम प्रेम जी हो या सब्बीर भाटिया... (जन्मगत आधार पर तो यह वर्ग प्रस्तावित नहीं हैं, जैसे जोशी जी से मिलकर आपको लगा)।

बोस्टन ब्राह्मण के विषय में कुछ तथ्य.... जिस प्रकार आप को, एक सामाजिक रूप से प्रबुद्ध वर्ग जो तत्कालीन विषयों पर अपने विचार (निष्पक्ष रूप से) निर्भय हो कर संगणक के माध्यम से सबसे कह सके , के लिए साईबर ब्राह्मण नामकरण करने की प्रेरणा हुई ठीक उसी प्रकार डॉ ऑलिवर वेन्डेल सीनियर को जब बोस्टन में प्रतिष्ठित संभ्रांत वर्ग को परिभाषित करने के लिए एक नाम की आवश्यकता हुई तो उन्होंने "बोस्टन ब्राह्मण" शब्द का इस्तेमाल किया। पिछले अमेरिकी चुनावों में सेनिटर जॉन कैरी के लिए इस शब्द का इस्तेमाल काफी खुल के हुआ। डॉ ऑलिवर वेन्डेल पेशे से एक चिकित्सक और लेखक थे। सर्वप्रथम इस शब्द का उपयोग १८६० में "अटलांटिक मंथली" नामक पत्रिका के जनवरी संस्करण में डॉ वेन्डेल ने अपने लेख 'दा प्रोफ़ेसरस स्टोरी' (The Professor's Story) में किया था। बाद में उन्होंने अपने नावेल "दा ब्राह्मण कास्ट ऑफ़ न्यू इंग्लैंड (The Brahmin Caste of New England)"में भी इस शब्द का प्रयोग बोस्टन और न्यू इंग्लैंड के संभ्रांत वर्ग के लिए किया। कालांतर में यह शब्द व्यापक सन्दर्भ में सारे न्यू इंग्लैंड के उच्च वर्गीय संभ्रांतों के लिए प्रयुक्त होने लगा। सामान्यतः यह वर्ग अति शिक्षित (मूलतः हारवर्ड के संस्थागत विद्यार्थी ),सामाजिक रूप से उदार और चिंतनशील लोगों का समुदाय था। यह लोग प्रभावशाली वर्ग कला, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान और तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्था के संरक्षक थे। यह समुदाय तो स्वमेव रूप से भारत की प्राचीन परम्परा से प्रभावित था।

रवीश जी, आज तो भारत में भी कोई ब्राह्मण कहलाना पसंद नहीं करता (देखें, स्पष्ट कर दूँ कि मैं इस विडियो विचारों से पुर्णतः सहमत नहीं हूँ) तो विदेशों में कहाँ से मेक्सिको या जार्जिया ब्राह्मण कहाँ से आयेंगे ? किंतु यदि हम ब्राह्मण व्यवस्था को सही रूप से समझे और उसका पालन करें तो कोई निश्चय ही हर घर में, हर गली में और हर हाट पर स्वं को सगर्व ब्राह्मण कहते हुए लोग मिल जायेंगे। आपका साईबर ब्राह्मण का स्वपन इतना विस्तृत हो जाएगा कि आप विज्ञान ब्राह्मण, अर्थशास्त्र ब्राह्मण, दर्शन ब्राह्मण न जाने कितने ब्राह्मणों से ख़ुद को घिरा हुआ पायेंगे ।

अंत में, इस आशा के साथ इस पत्र को समाप्त कर रहा हूँ कि मेरे सारे चिठ्ठों को (विशेष रूप से इस चिठ्ठे को) भविष्य में भी आपकी समीक्षा का लाभ और आशीष मुझे मिलता रहेगा।

सादर,

विशेषानुरोध : कृपया अगली समीक्षा के विषय में मुझे भी सूचित करेंगे तो हर्ष होगा।

3 comments:

  1. सुधीर का धीर
    हर लेगा हर
    मन से पीर
    बसी हुई है
    बन कर खीर।

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  2. प्रिण्ट मीडिया को घणा भाव देना समय खोटा करना है! :-)

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  3. बहुत 'रविश' उड़ गया भाई. पता नहीं ये मुगालता क्यों है कि वे जो कुछ उचारेंगे वो पत्थर की लकीर होगी.

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